मध्य प्रदेश: क्या शिवराज सरकार के पेसा क़ानून लागू करने की वजह आदिवासी हित नहीं चुनावी है?

मध्य प्रदेश सरकार बीते दिनों पेसा क़ानून लागू करने के बाद से इसे अपनी उपलब्धि बता रही है. 1996 में संसद से पारित इस क़ानून के लिए ज़रूरी नियम बनाने में राज्य सरकार ने 26 साल का समय लिया. आदिवासी नेताओं का कहना है कि शिवराज सरकार के इस क़दम के पीछे आदिवासियों की चिंता नहीं बल्कि समुदाय को अपने वोट बैंक में लाना है.

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15 नवंबर 2022 को शहडोल में जनजातीय गौरव दिवस के अवसर पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के साथ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और अन्य नेता. (फोटो साभार: सोशल मीडिया)

मध्य प्रदेश सरकार बीते दिनों पेसा क़ानून लागू करने के बाद से इसे अपनी उपलब्धि बता रही है. 1996 में संसद से पारित इस क़ानून के लिए ज़रूरी नियम बनाने में राज्य सरकार ने 26 साल का समय लिया. आदिवासी नेताओं का कहना है कि शिवराज सरकार के इस क़दम के पीछे आदिवासियों की चिंता नहीं बल्कि समुदाय को अपने वोट बैंक में लाना है.

15 नवंबर 2022 को शहडोल में जनजातीय गौरव दिवस के अवसर पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के साथ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और अन्य नेता. (फोटो साभार: सोशल मीडिया)

भोपाल: बीते 15 नवंबर को मध्य प्रदेश सरकार ने आदिवासी नायक बिरसा मुंडा की जयंती के अवसर पर आदिवासियों को अधिकार संपन्न बनाने वाला पेसा (पंचायत, अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार क़ानून, 1996) क़ानून लागू कर दिया. गौरतलब है कि इस दिन को राज्य सरकार ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाती है.

वर्ष 1996 में संसद से पारित यह क़ानून संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत आने वाले क्षेत्रों में ग्राम सभाओं को अधिकार संपन्न बनाकर प्रशासन का अधिकार देता है, जिससे स्थानीय जनजातियों के जल, जंगल और ज़मीन पर अधिकार व संस्कृति का संरक्षण सुनिश्चित किया जा सके. साथ ही, यह क़ानून विवादों के समाधान भी परंपरागत तरीकों से ग्राम सभाओं के स्तर पर निपटाने की बात करता है और ग्राम पंचायतों को बाजारों के प्रबंधन की शक्ति भी प्रदान करता है. आदिवासी या जनजातीय समुदायों को साहूकारी प्रथा से मुक्ति जैसे प्रावधान भी इसमें हैं.

शराब/भांग विक्रय एवं प्रतिषेध, श्रम रोजगार, सामाजिक क्षेत्र की संस्थाओं पर नियंत्रण, सरकारी योजनाओं का कार्यान्वयन एवं निरीक्षण आदि संबंधी शक्तियां ग्राम सभाओं को प्रदान कर यह क़ानून आदिवासियों द्वारा अपने क्षेत्रों में स्वशासन की अवधारणा को साकार करता है.

यूं तो यह क़ानून 1996 में ही संसद से पारित हो गया था, लेकिन मध्य प्रदेश सरकार ने राज्य में इसे लागू करने के लिए आवश्यक नियम बनाने में 26 साल का समय लगा दिया.

आदिवासी बहुल शहडोल में आयोजित हुए एक भव्य समारोह में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, राज्यपाल मंगूभाई पटेल एवं केंद्र व राज्यों के मंत्रियों व सत्तारूढ़ नेताओं की मौजूदगी में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने क़ानून की नियमावली को जारी किया.

उसके बाद से मध्य प्रदेश सरकार आदिवासी समुदाय के बीच इस क़ानून को लेकर जागरुकता अभियान चला रही है और आदिवासी इलाकों में आयोजित अपनी हर सभा में मुख्यमंत्री चौहान इस क़ानून को लागू करना अपनी सरकार की उपलब्धि बता रहे हैं.

डिंडौरी में आयोजित एक ऐसी ही सभा में उन्हें कहते सुना गया, ’70 साल में कांग्रेस ने कभी आदिवासी भाइयों को कोई अधिकार नहीं दिया. राज्य में कमलनाथ 15 महीने के लिए सरकार में आए, लेकिन उन्होंने भी आदिवासियों को कोई अधिकार नहीं दिया. हमारी सरकार ने आदिवासी भाइयों के हितों को ध्यान में रखते हुए पेसा क़ानून लागू किया है. आज मैं आप सबको इस क़ानून की जानकारी देने आया हूं.’

लेकिन, मुख्यमंत्री, उनकी पार्टी भाजपा और राज्य सरकार के इस आदिवासी प्रेम पर जय आदिवासी युवा शक्ति (जयस) संगठन के राष्ट्रीय संरक्षक और कांग्रेस विधायक हीरालाल अलावा सवाल उठाते हैं.

उनका कहना है, ‘दो कारणों से सरकार को क़ानून लागू करने की ज़रूरत आन पड़ी. पहला, मैंने जयस के राष्ट्रीय संरक्षक के नाते इस संबंध में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी, जिस पर अदालत का अल्टीमेटम मिलने के बाद सरकार ने अगस्त 2022 तक नियम बना लेने की बात कही थी. लेकिन, अगस्त बीतने पर भी जब कुछ निष्कर्ष नहीं निकला और अक्टूबर-नवंबर आ गया तो हमने राज्य के मुख्य सचिव को अवमानना का नोटिस भेजा था.’

वे आगे बताते हैं, ‘इसलिए एक तो सरकार पर अवमानना की कार्रवाई का दबाव था और दूसरा कारण कि 2023 में राज्य विधानसभा के चुनाव भी करीब हैं, इसलिए आदिवासी वोट बैंक को अपने पाले में करने के लिए भी इन्होंने यह कदम उठाया.’

जानकारों का भी मानना है कि चुनाव से ऐन पहले पेसा क़ानून लागू करना सरकार का आदिवासी प्रेम नहीं, बल्कि राज्य की कुल आबादी के क़रीब 23 फीसदी आदिवासी मतदाताओं के बीच अपनी चुनावी ज़मीन तैयार करना है.

राज्य की एक वरिष्ठ पत्रकार कहती हैं, ‘यह क़ानून तो बहुत पुराना है. इन लोगों ने बस नियम बनाए हैं, वो भी 26 साल बाद, जिनमें 18 साल तो भाजपा की ही सरकार थी. मध्य प्रदेश से पहले कई राज्य यह क़ानून लागू कर चुके हैं, जबकि मध्य प्रदेश में देश की सबसे ज्यादा आदिवासी आबादी है, इस लिहाज इसे तो वर्षों पहले यहां लागू हो जाना चाहिए था.’

वे आगे कहती हैं, ‘भाजपा सरकार इतने सालों बाद जागी और वे प्रस्तुत इस तरह कर रहे हैं कि मानो यह क़ानून पहली बार मध्य प्रदेश में ही लागू हुआ है.’

हालांकि, वे कांग्रेस पर भी निशाना साधती हैं और कहती हैं कि 1996 से 2003 के बीच राज्य की कांग्रेस सरकार ने भी इस पर कोई पहल नहीं की थी, इससे पता चलता है कि राज्य के आदिवासियों को लेकर ये दोनों दल कितने गंभीर हैं.

वे बताती है, ‘क़ानून के नियम तो पिछले साल ही बना दिए गए थे लेकिन भाजपा हर चीज को इवेंट बनाती है. इसलिए घोषणा के लिए ‘जनजातीय गौरव दिवस (बिरसा मुंडा जयंती)’ को चुना और राष्ट्रपति को बुलाकर ऐलान करवा दिया. अब ये आदिवासियों के बीच क़ानून की जानकारी देने के लिए जागरुकता शिविर लगा रहे हैं, जिनमें मुख्यमंत्री खुद जाते हैं.’

वे आगे कहती हैं, ‘मतलब कि क़ानून को एक इवेंट बनाकर जनता से जुड़ाव स्थापित किया जा रहा है. चूंकि, चुनाव पास आ रहा है, इसलिए क़ानून लागू करने के लिए यह वक्त चुना जिससे लोगों के दिमाग में यह ताजा रहेगा कि भाजपा ने पेसा क़ानून लागू किया. जबकि, इन्हें कहना चाहिए कि हमने 26 साल बाद पेसा क़ानून के नियम बनाए हैं.’

बता दें कि 230 सदस्यीय मध्य प्रदेश विधानसभा में 20 फीसदी यानी 47 सीट अनुसूचित जनजाति (एसटी) समुदाय के लिए आरक्षित हैं. जानकारों के मुताबिक, राज्य की करीब 70 से 80 सीट पर आदिवासी मतदाताओं का प्रभाव है.

2003 में राज्य में भाजपा की वापसी में आदिवासी वर्ग का अहम योगदान था. तब 41 सीट एसटी आरक्षित थीं, जिनमें 37 भाजपा जीती जबकि कांग्रेस को महज दो सीट मिलीं. अगले दो चुनावों में भी आदिवासी भाजपा के साथ रहा और वह सत्ता में बनी रही.

2008 में एसटी सीट की संख्या बढ़कर 47 हो गई थी. 2008 और 2013 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने क्रमश: 29 और 31 सीट जीतीं, जबकि कांग्रेस क्रमश: 17 और 15 सीट जीती. लेकिन, 2018 में पासे पलट गए. भाजपा की सीटें आधी रह गईं. वह 16 पर सिमट गई. जबकि कांग्रेस की सीट बढ़कर दोगुनी (30) हो गईं और उसने सरकार बना ली.

चुनाव में भाजपा ने कुल 109 और कांग्रेस ने 114 सीट जीतीं. हार-जीत का अंतर इतना मामूली था कि यदि आदिवासी मतदाता भाजपा से नहीं छिटकता तो उसकी सरकार बननी तय थी.

इसलिए भाजपा सरकार अब आदिवासी मतदाताओं की अहमियत समझ रही है और बीते डेढ़ साल से राज्य में भाजपा की राजनीति आदिवासी केंद्रित हो गई है. केंद्रीय राजनीति के सबसे बड़े तीन स्तंभ प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और राष्ट्रपति इस दौरान आदिवासियों से जुड़े समारोहों में शरीक़ हुए हैं.

आदिवासियों को रिझाने के लिए शिवराज सरकार के प्रयास

18 सितंबर 2021 को जबलपुर में राज्य सरकार द्वारा आजादी की लड़ाई में शहीद हुए आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले राजा शंकर शाह और कुंवर रघुनाथ शाह के बलिदान दिवस पर एक समारोह आयोजित किया गया था, जिसमें केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह शामिल हुए.

इससे कुछ ही दिन पहले ही मुख्यमंत्री ने 15 नवंबर 2021 यानी बिरसा मुंडा जयंती को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाने और भव्य आयोजन करने का ऐलान किया था. इस आयोजन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शामिल हुए थे.

और फिर, 15 नवंबर 2022 को आयोजित ‘जनजातीय गौरव दिवस’ में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू शामिल हुईं.

इतना ही नहीं, श्योपुर के जिस कूनो-पालपुर अभयारण्य में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अपने जन्मदिवस पर ‘चीता’ छोड़ने का जो आयोजन हुआ था, वह इलाका भी आदिवासी बहुल है. इस दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने स्व-सहायता समूह की महिलाओं से भी संवाद किया था और इस दौरान आदिवासी महिलाओं को प्रमुखता में रखा गया था, जिन महिलाओं को उनसे मुलाकात के लिए चुना गया था, वे आदिवासी समाज से ही आती थीं.

अगर भाजपा सरकार के राज्य की सत्ता में वर्तमान कार्यकाल और 2003 से 2018 तक के कार्यकाल के बीच तुलना करें, तो उन 15 सालों में शायद ही किसी भाजपा नेता के मुख से बिरसा मुंडा, टंट्या भील और राजा शंकर शाह एवं उनके बेटे कुंवर रघुनाथ शाह जैसे आदिवासी नायकों का कभी जिक्र सुना गया हो.

लेकिन, वर्तमान कार्यकाल में राजा शंकर शाह और कुंवर रघुनाथ शाह की प्रतिमाएं जबलपुर में स्थापित की गईं और उनके शहादत दिवस पर भव्य कार्यक्रमों का आयोजन हुआ; बिरसा मुंडा जयंती को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाया जाने लगा और उसमें प्रधानमंत्री एवं राष्ट्रपति जैसे अतिथियों को बुलाकर आदिवासियों कों केंद्रीय नेतृत्व के आकर्षण से रिझाया गया; टंट्या भील के शहादत दिवस (4 दिसंबर) पर भव्य सरकारी आयोजन होने लगे और उन्हें टंट्या मामा के तौर पर स्थापित करते हुए पातालपानी रेलवे स्टेशन का नाम उनके नाम पर रख दिया; भोपाल के हबीबगंज रेलवे स्टेशन का नाम भी आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखने वाली रानी कमलापति के नाम पर रखा गया; जनजातीय सम्मेलन आयोजित किए गए.

इसी कड़ी में छिंदवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम राजा शंकरशाह के नाम पर रखा गया, राज्य के आदिवासी बहुल 89 विकासखंडों के करीब 24 लाख परिवारों को घर-घर सरकारी राशन पहुंचाने के लिए ‘राशन आपके द्वार’ योजना शुरू की गई, आदिवासियों को रोजगार के अवसर प्रदान करने, पुलिस में दर्ज आपराधिक मामलों को वापस लेने, आबकारी क़ानून में संशोधन करके उन्हें महुआ से शराब बनाने और संग्रह करने का अधिकार देने, आदिवासी कलाकारों के लिए 5 लाख रुपये का पुरस्कार घोषित करने जैसी अनेक छोटी-बड़ी योजनाएं और आयोजन प्रदेश सरकार लगातार कर रही है.

यह सब बीते 14-15 महीनों में ही हुआ है और अब पेसा क़ानून के लिए जनजागरुकता अभियान चलाया जा रहा है, जो बीते विधानसभा चुनाव में भाजपा और शिवराज सरकार द्वारा चलाई गई ‘एकात्म यात्रा’ की याद दिलाता है.

‘एकात्म यात्रा’ में भाजपा नेता घर-घर जाकर आदि शंकराचार्य की प्रतिमा के लिए धातु का संग्रह कर रहे थे और मुख्यमंत्री जगह-जगह यात्रा ले जाकर जनसभाएं कर रहे थे, इस प्रकार यह यात्रा उनके लिए चुनावी जनसंपर्क का माध्यम बन गई थी.

इसी तरह अब पेसा क़ानून के प्रति जनजागरुकता के नाम पर भाजपा नेता आदिवासी इलाकों में गांव दर गांव सभाएं कर रहे हैं, इस बहाने आदिवासियों के घर-घर में जनसंपर्क स्थापित हो रहा है. मुख्यमंत्री भी लगातार सभाएं कर ही रहे हैं.

जानकार तो यह तक मानते हैं कि मध्य प्रदेश के मौजूदा राज्यपाल मंगू भाई पटेल, जो गुजरात के आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं और राज्य में आदिवासी कल्याण मंत्री भी रहे थे, की भी नियुक्ति प्रदेश राजनीति के आदिवासी एंगल को ध्यान में रखते हुए ही की गई थी.

धार जिले के कुक्षी में आयोजित पेसा जागरुकता कार्यक्रम में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान (फोटो साभार: फेसबुक/@CMMadhyaPradesh)

कितना ईमानदार है पेसा क़ानून लागू करने का सरकारी दावा?

अचानक से उभरा भाजपा सरकार का यह आदिवासी प्रेम ही पेसा क़ानून को लेकर उनकी नीयत पर सवाल खड़े कर रहा है.

मध्य प्रदेश कांग्रेस के अनुसूचित जनजाति मोर्चा अध्यक्ष और कांग्रेस विधायक ओमकार सिंह मरकाम द वायर  से बात करते हुए कहते हैं, ‘पेसा क़ानून 1996 में बना था, इन्होंने 26 साल बाद अब लागू किया है. इस दौरान 18 साल शिवराज ही राज्य के मुख्यमंत्री थे. इस दौरान इन्होंने क्यों लागू नहीं किया, ये बड़ा प्रश्न है. इनको आदिवासी समाज से माफी मांगनी चाहिए और 18 साल विलंब का कारण बताना चाहिए. चुनाव करीब आते ही इनकी आंखें क्यों खुलीं?’

वे आगे कहते हैं, ‘हकीकत तो यह है कि अनुसूचित जाति/जनजाति के विकास के लिए जो मूलभूत आवश्यकताएं हैं, जैसे- शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और कृषि, इन सब चीजों को सरकार पूरा नहीं कर रही है, लेकिन प्रचारित कर रही है कि हमने पेसा क़ानून दिया है.’

मरकाम जोड़ते हैं, ‘अगर राज्य सरकार आदिवासियों के हित में स्वयं की कोई नीति लाती तो प्रचारित कर सकते थे, लेकिन जो क़ानून ढाई दशक से मौजूद है, जिसे लागू करने में इन्होंने देरी की है, इस पर शर्मिंदा होने के बजाय इसे अपनी उपलब्धि के तौर पर पेश कर रहे हैं.’

मरकाम का यह भी कहना है कि इस क़ानून के तहत जो अधिकार ग्रामसभाओं को दिए जाने चाहिए थे, वे नहीं दिए गए हैं. नियम बनाते वक्त वित्तीय प्रबंधन का उल्लेख नहीं किया गया है.

हीरालाल अलावा का भी यही कहना है. वे कहते हैं, ‘ग्रामसभाओं की वित्तीय शक्तियों पर कोई स्पष्ट बात नहीं कही गई है. ग्रामसभा तो गठित कर देगी सरकार, लेकिन उनका संचालन कैसे होगा? ग्रामसभा में अध्यक्ष, सदस्य, सचिव आदि होंगे, उनके वेतन का ढांचा क्या होगा? बिना वेतन कोई संस्था कैसे काम करेगी?’

साथ ही उनका यह भी कहना है कि ग्रामसभाओं को ग्रामसभा के भीतर आने वाले संसाधनों पर राजस्व वसूलने के अधिकार स्पष्ट नहीं हैं. उनका सवाल है कि बिना संसाधनों या आय के ग्रामसभाएं कैसे सशक्त होंगी.

अलावा का कहना है कि सरकार ने नियम बनाने के बाद संशोधन मांगे थे, जो हमने उन्हें भेजे थे लेकिन इन्होंने वे संशोधन स्वीकारे नहीं.

वे कहते हैं, ‘हमने कहा था कि पेसा क़ानून उसकी मूल भावना में लागू हो, जिस पर आश्वासन दिया गया था कि जब भी नियम बनेंगे तो छठवीं अनुसूची के पैटर्न पर ग्रामसभाओं को अधिकार संपन्न और स्वायत्त बनाएंगे. पेसा क़ानून असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम मे लागू छठवीं अनुसूची की तर्ज पर पांचवीं अनुसूची के राज्यों में ग्रामसभाओं को सशक्त बनाने के लिए ही बना था. छठवीं अनुसूची में स्वायत्त ज़िला परिषद और स्वायत्त क्षेत्रीय परिषद होती हैं, जिनके पास वित्तीय शक्ति होती हैं. ज़िले में जो ‘कर’ प्राप्त होता है, उसके नियंत्रण और इस्तेमाल का अधिकार होता है. लेकिन, सरकार के पेसा नियमों में ग्रामसभाओं को गांवों के अंदर ‘कर’ लेने का कोई अधिकार नहीं है. मतलब कि वित्तीय शक्ति शून्य है.’

साथ ही, वे ग्रामसभाओं को प्रशासनिक अधिकार न दिए जाने की भी बात करते हैं और कहते हैं कि इस तरह पेसा क़ानून की मूल भावना की अनदेखी की गई है.

अलावा का कहना है, ‘छठी अनुसूची के राज्यों में ज़िला स्वायत्त परिषद को प्रशासनिक ढांचे को दिशानिर्देश देने का अधिकार होता है. कलेक्टर-कमिश्नर पहले परिषद के साथ बैठक करके चर्चा करते हैं, उसके बाद ज़िलों में प्रशासन से संबंधित निर्णय लेते हैं. लेकिन, पांचवीं अनुसूची के इलाकों में तो अधिकारी किसी की सुनते ही नहीं है. इसलिए ग्रामसभाओं को प्रशासनिक शक्तियां भी दी जानी चाहिए थीं, जिसके तहत गांवों का एक अलग प्रशासनिक ढांचा होता जो प्रशासन के साथ मिलकर काम करता.’

उन्होंने आगे कहा, ‘पांचवी अनुसूची भी अलग प्रशासनिक ढांचे की बात करती है. लेकिन, जो प्रशासनिक ढांचा इंदौर-भोपाल जैसे सामान्य ज़िलों में है, वही धार, झाबुआ और मंडला जैसे आदिवासी इलाकों में है. उदाहरण के लिए, इसलिए तो जेलों में आदिवासी कैदियों की संख्या अधिक है.’

वे ग्रामसभा के अधिकारों को भी कम किए जाने की बात करते हैं और कहते हैं कि नियमों में ग्रामसभा के तीन बार बैठने की बात कही गई है और उसके बाद भी अगर किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाते हैं तो ग्रामसभा के अध्यक्ष का मत निर्णायक होगा.

अलावा कहते हैं, ‘ओडिशा में वेदांता कंपनी 20 हजार करोड़ की परियोजना लेकर पहुंची थी तो नियमगिरी पर्वत को खोदने से रोकने के लिए वहां के आदिवासियों ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था, सुप्रीम कोर्ट ने ग्रामसभा की अनुमति की बात कही तो राज्य सरकार ने सात ग्रामसभाएं बैठाईं, जिनके निर्णय के आधार पर परियोजना रद्द हो गई. लेकिन मध्य प्रदेश का पेसा क़ानून सिर्फ तीन ग्रामसभा की बात कर रहा है और ग्रामसभा अध्यक्ष को अंतिम निर्णय का अधिकार दे रहा है.’

इस संबंध में बरगी बांध प्रभावित एवं विस्थापित संघ के संयोजक राज कुमार सिन्हा की चिंताएं अलग हैं. वे कहते हैं, ‘ये वो कुछ रास्ते हैं जो ग्रामसभा में दलाल पैदा करेंगे. सरकारी हस्तक्षेप करने का उन्होंने एक चोर दरवाजा खोल रखा है. फर्जी ग्रामसभाएं खड़ी की जाती हैं, छत्तीसगढ़ में हमने देखा है.’

सिन्हा का कहना है कि यदि सरकार वास्तव में आदिवासियों का हित चाहती है तो उसे पेसा क़ानून लागू करने के साथ-साथ अन्य मौजूदा क़ानूनों में भी पांचवी अनुसूची के क्षेत्रों के मुताबिक बदलाव करना चाहिए.

वे कहते हैं, ‘स्थानीय समुदायों को जन, जंगल और ज़मीन का अधिकार तो 2006 के वनाधिकार क़ानून में भी दिया गया है, लेकिन वन विभाग आज भी वन अधिनियम-1927 की धाराओं के तहत काम करता है. उसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है. अगर पेसा क़ानून के मुताबिक जो मौजूदा क़ानून हैं, उनमें कोई बदलाव नहीं किया जाएगा तो जो प्रशासनिक अधिकारी हैं वो तो उसी तय क़ानून के तहत काम करेंगे.’

वे जोड़ते हैं, ‘अगर आदिवासी इलाकों के हिसाब से आईपीसी की धाराओं में बदलाव नहीं होगा तो विवादों का निपटारा ग्राम न्यायालय में न होकर, पुलिस का हस्तक्षेप तो रहेगा ही.’

वे आगे कहते हैं, ‘मध्य प्रदेश में कांग्रेस की दिग्विजय सिंह सरकार के समय भू राजस्व संहिता में, आबकारी अधिनियम और साहूकारी अधिनियम समेत बहुत सारे क्षेत्रों में बदलाव किया गया लेकिन जो केंद्रीय क़ानून हैं, जैसे- वन संरक्षण कानून हो गया या आईपीसी, उनमें तो केंद्र ही बदलाव कर सकता है, तो राज्य सरकार को केंद्र को लिखना चाहिए कि पांचवीं अनुसूची के आदिवासी क्षेत्रों में आईपीसी की धाराएं कैसे काम करेंगी, इनमें संशोधन होना चाहिए.’

साथ ही, वे कहते हैं कि क़ानून के प्रति जनजागरुकता अभियान तो शिवराज सरकार चला रही है लेकिन आदिवासी इलाकों के प्रशासनिक अमले को संवेदनशील बनाने के लिए पहल नहीं दिख रही, इसका माइंडसेट तो वही पुराना वाला है.

उनका कहना है, ‘सरकार, ग्राम सरकार की बात कर रही है लेकिन ग्रामसभा की बात तो प्रशासन मानता ही नहीं. ग्राम सरकार आदेशित करेगी लेकिन हमारे प्रशासनिक अधिकारियों को आदेश सुनने की आदत नहीं है क्योंकि शुरू से ही गांव के लोग उनके सामने हाथ जोड़ते रहे हैं.’

वे एक उदाहरण भी देते हैं कि कैसे राज्य में पेसा क़ानून लागू होने के बावजूद भी ग्रामसभा की अनुमति के बिना एक परियोजना को मंजूरी दे दी गई.

पेसा क़ानून लागू होने के बावजूद भी ग्रामसभा को बिना बताए बांध परियोजना को मंजूरी

सिन्हा बताते हैं कि मंडला ज़िले में नर्मदा घाटी में प्रस्तावित बसनिया बांध को लेकर बीते 24 नवंबर 2022 को नर्मदा विकास विभाग और एफकोंस कंपनी के बीच एक अनुबंध हुआ है. इस बांध से मंडला ज़िले के 18 और डिंडोरी ज़िले के 13 आदिवासी बाहुल्य गांव के 2,735 परिवार विस्थापित होंगे, जिनकी आजीविका का एकमात्र साधन खेती है. यह जंगल जैव विविधता से परिपूर्ण है.

इस संबंध में बीते दिनों मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री एवं नर्मदा विकास मंत्री को पत्र लिखकर चेताया भी जा चुका है, जिसमें लिखा गया है, ‘मंडला जिला संविधान की पांचवी अनुसूची के तहत वर्गीकृत है,जहां पेसा अधिनियम प्रभावशील है. इस परियोजना के सबंध में प्रभावित ग्रामसभा को किसी भी तरह की जानकारी नर्मदा घाटी विकास विभाग द्वारा नहीं दी गई है. यह आदिवासियों को पेसा नियम के तहत प्राप्त संवैधानिक अधिकारों का हनन है.’

आगे कहा गया है, ‘पांचवी अनुसूची और पेसा अधिनियम के तहत प्राप्त अधिकार के दायरे में हमारी ग्राम सभा बांध बनाए जाने की स्वीकृति प्रदान नहीं करती है.’

पत्र पर कोई संज्ञान न लिया जाता देख बीते 28 दिसंबर को ग्रामीणों ने सैकड़ों की संख्या में जुटकर एक रैली भी निकाली और कलेक्टर को ज्ञापन सौंपा. 30 दिसंबर 2022 को जब एक सर्वे टीम परियोजना स्थल का सर्वे करने पहुंची तो ग्रामीणों ने उन्हें बंधक बना लिया.

सिन्हा कहते हैं, ’40 ग्रामसभाएं इस बांध से प्रभावित हैं, लेकिन उन्हें इसकी जानकारी ही नहीं है. जब राज्य सरकार ग्राम सरकार की बात कर रही है तो परियोजना के बारे में उन्हें बताओ तो सही. इसलिए पेसा क़ानून लागू करने की कवायद सिर्फ आदिवासी वोट पाने के लिए है, क्योंकि पिछली बार उन्हें इन क्षेत्रों से हार मिली थी.’

बसनिया बांध के खिलाफ हुआ प्रदर्शन. (फोटो साभार: फेसबुक/@Santosh Paraste)

आदिवासियों पर अत्याचार और उनके अधिकारों पर कुठाराघात पर चुप सरकार

मध्य प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता भूपेंद्र गुप्ता कहते हैं कि पेसा क़ानून में 1996 में कांग्रेस ने जो नियम बनाए थे, वे ही इन्होंने लागू किए हैं. कुछ नया नहीं किया है. यह सिर्फ वोट हासिल करने का ड्रामा है क्योंकि आबकारी अधिनियम, साहूकारी क़ानून इनमें पहले से ही बदलाव हैं. आदिवासियों की जमीन किसी और द्वारा न खरीदे जाने से संबंधित दो दशकों से अधिक समय से प्रभावी है.

वे कहते हैं, ‘ग्रामसभा संबंधी प्रावधान ढाई दशक से हैं, लेकिन इनके ही राज में विकास के नाम पर उद्योगों को आदिवासियों की ज़मीनें दी गईं. कलेक्टर की अनुमति से सैकड़ों आदिवासियों की जमीनें इन्होंने हड़पवाई हैं. अब कह रहे हैं कि अब नहीं होगा ऐसा, जबकि ये 1996 के बाद से ही नहीं होना था. वहीं, भारत में जो भू अधिग्रहण कानून में कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार ने बदलाव किए थे, उसमें प्रावधान था कि 4 गुना जमीन का मुआवजा देना है. मध्य प्रदेश ऐसा राज्य है जिसने आधिकारिक तौर पर कहा है कि हम दो गुना से ज्यादा मुआवजा नहीं देंगे.’

समूचे प्रदेश में एनडीटीवी के लिए रिपोर्टिंग करने वाले वरिष्ठ पत्रकार अनुराग द्वारी कहते हैं, ‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े बताते हैं कि देश में आदिवासियों पर सबसे ज्यादा अत्याचार मध्य प्रदेश में ही होते हैं. 2020-21 के आंकड़े बताते हैं कि अत्याचार के मामलों में 9.8 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. लगातार आदिवासी बहुल ज़िलों- चाहे डिंडोरी की बात करें या अलीराजपुर और झाबुआ की- के प्रति सरकार उदासीन रही है. आदिवासियों के बीच कई मामलों में जनजागृति की जरूरत है, जैसे कि महिलाओं पर अत्याचार, लेकिन सरकार ने कभी प्रयास नहीं किए. अभी पेसा क़ानून के लिए जरूर जनजागरुकता अभियान चलाने लगे.’

वे आगे कहते हैं, ‘आदिवासियों के लिए आरक्षित पद खाली हैं. आदिवासी बहुल जिलों के स्कूलों में शिक्षक नहीं हैं. अस्तपाल में डॉक्टर नहीं है. अक्सर ऐसी तस्वीरें सामने आती हैं कि खाट पर मरीज लेकर जा रहे हैं, एम्बुलेंस नहीं पहुंच पा रहीं क्योंकि सड़कें नहीं हैं. नल-जल योजना की सबसे खराब प्रगति आदिवासी बहुल जिलों में ही है. प्रधानमंत्री आवास योजना के मकान कागजों पर बने हैं. हाल ही में, पोषण आहार वितरण संबंधी में टेक होम राशन घोटाला हुआ था, उसमें भी आदिवासी जिलों में ही सबसे ज्यादा समस्या सामने आई थी.’

वे कहते हैं, ‘आशय यह है कि पेसा क़ानून देकर ग्रामसभाओं को सशक्त करने का सरकार कह सकती है, लेकिन अगर वे वास्तव में आदिवासियों के लिए कुछ करना चाहते तो 18 साल से सत्ता में काबिज रहते हुए उन्हें पहले ही काफी-कुछ कर लेना चाहिए था.  वैसे भी कानून तो यह 96 से है. इसलिए यह राजनीतिक हथकंडा ज्यादा लगता है, बजाय इसके कि सरकार कुछ ठोस करना चाहती है.

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