राष्ट्रीयकृत बैंकों का ढुलमुल रवैया जनता के धन को जोख़िम में डाल रहा है: बॉम्बे हाईकोर्ट

बैंक ऑफ इंडिया द्वारा एक मामले में अपील दायर करने में बरती गई 579 दिनों की देरी पर बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि बेपरवाह कर्मचारियों की खिंचाई किए जाने और उन्हें जवाबदेह बनाने की ज़रूरत है. समय आ गया है कि राष्ट्रीयकृत बैंकों को चीज़ों को गंभीरता से लेना चाहिए और उन्हें इस तथ्य के प्रति जागरूक बनाया जाना चाहिए कि उनकी लापरवाही से जनता को बहुत नुकसान होता है.

बॉम्बे हाईकोर्ट. (फोटो साभार: एएनआई)

बैंक ऑफ इंडिया द्वारा एक मामले में अपील दायर करने में बरती गई 579 दिनों की देरी पर बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि बेपरवाह कर्मचारियों की खिंचाई किए जाने और उन्हें जवाबदेह बनाने की ज़रूरत है. समय आ गया है कि राष्ट्रीयकृत बैंकों को चीज़ों को गंभीरता से लेना चाहिए और उन्हें इस तथ्य के प्रति जागरूक बनाया जाना चाहिए कि उनकी लापरवाही से जनता को बहुत नुकसान होता है.

बॉम्बे हाईकोर्ट (फोटो : पीटीआई)

मुंबई: बॉम्बे हाईकोर्ट ने हाल ही में सार्वजनिक धन के प्रबंधन के संबंध में बैंक ऑफ इंडिया के ढुलमुल रवैये को लेकर उसकी खिंचाई की है. अदालत ने यह पाया कि राष्ट्रीयकृत बैंकों को इस तथ्य के प्रति सचेत होना चाहिए कि उनकी लापरवाही जनता के लिए बड़े नुकसान का कारण बनती है.

लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस केआर श्रीराम और जस्टिस कमल खाता की खंडपीठ ने नवंबर 2020 के एक आदेश के खिलाफ वाणिज्यिक अपील दायर करने में 579 दिनों की देरी को माफ करने से इनकार कर दिया.

अदालत ने कहा, ‘सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों/राष्ट्रीयकृत बैंकों और सार्वजनिक उपक्रमों के कर्मचारी/अधिकारी इस तथ्य के प्रति असंवेदनशील हैं कि वे जनता के लिए काम कर रहे हैं और जनता के पैसे को संभाल रहे हैं. उनका ढुलमुल रवैया जनता के पैसे को गंभीर जोखिम में डाल देता है और परिणामस्वरूप देश की अर्थव्यवस्था पर भी प्रभाव पड़ता है. जबकि आवेदक (एक राष्ट्रीयकृत बैंक) अदालत से अपेक्षा करता है कि वह जनता के हितों की रक्षा करे, वे आलसी और लापरवाह बने रहते हैं और अदालतों को हल्के में लेते हैं, जो कि हमारी राय में रोका जाना चाहिए.’

अदालत ने कहा कि बैंक ऑफ इंडिया के उच्च अधिकारियों ने मामले में लापरवाही बरतने के लिए कर्मचारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की.

अदालत ने कहा, ‘बेपरवाह कर्मचारियों की खिंचाई किए जाने और उन्हें जवाबदेह बनाने की जरूरत है. समय आ गया है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों/राष्ट्रीयकृत बैंकों को चीजों को गंभीरता से लेना चाहिए और उन्हें इस तथ्य के प्रति जागरूक बनाया जाना चाहिए कि उनकी लापरवाही से जनता को बहुत नुकसान होता है.’

बैंक ऑफ इंडिया ने क्षमादान के अपने आवेदन में दावा किया था कि उसके वकील ने अपील इसलिए दायर नहीं की, क्योंकि वह कैंसर से जूझ रहे थे और बिस्तर पर थे. बैंक ने दावा किया कि उसे अगस्त 2022 में ही इस बात का पता चला और फिर उसने एक नया वकील नियुक्त किया.

अधिवक्ता ओए दास ने बैंक ऑफ इंडिया की ओर से अदालत में कहा कि उसके एक अधिवक्ता की गलती के कारण उसे (बैंक) दंडित नहीं किया जाना चाहिए. उन्होंने यह भी कहा कि वह कुछ समय से अस्वस्थ थे और यह भी देरी का एक अहम कारण है.

लेकिन अदालत इस कारण से संतुष्ट नहीं हुई. अदालत ने कहा कि यह एक राष्ट्रीयकृत बैंक है और इसके पास कानूनी मामलों के लिए एक टीम होती है. साथ ही फोन, ईमेल, एसएमएस, वॉट्सऐप आदि के जरिये लोगों से संवाद करने के लिए भी एक टीम होती है.

अदालत ने आगे कहा कि आवेदन में दिए गए पुराने वकील के साथ फॉलो-अप के लिए बैंक ऑफ इंडिया ने कोई कदम नहीं उठाए. साथ ही उसने यह भी स्पष्ट नहीं किया कि कैसे अचानक उसे अगस्त 2022 में पता चला. सिर्फ यही नहीं, देरी के बावजूद भी बैंक ने सितंबर 2022 में नया वकील नियुक्त करने के लिए एक महीने से अधिक का समय लिया.

अदालत ने कहा कि बैंक ऑफ इंडिया ने सही तरीके से काम नहीं किया और मामले को हल्के में लिया. सार्वजनिक क्षेत्र का बैंक होने के नाते जनता के पैसे को संभालने में सावधानी बरती जानी चाहिए.

अदालत ने कहा, ‘यदि डिफॉल्टर्स के खिलाफ कार्रवाई में काफी देरी बरती जाती है तो उधार दी गई राशि को वापस पाना बहुत कठिन हो जाता है. इसलिए संस्थानों के लिए यह अनिवार्य है कि वे सभी संबंधितों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करें और उन्हें इस तरह दंडित करे कि वे जनता के पैसे को कोई भी नुकसान पहुंचाने से बचें.’

अदालत को बैंक ऑफ इंडिया के जिम्मेदार अधिकारियों पर जुर्माना लगाने या उन्हें दंडारोपित करने का कोई लाभ नजर नहीं आया. अदालत ने बैंक द्वारा ईमानदारी से प्रयास न करने से हुई देरी को माफ करने से इनकार कर दिया और अपील खारिज कर दी.

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