जब भाजपा नेताओं ने रिटायर जजों की फ़ौरन नियुक्तियों पर सवाल उठाए थे…

साल 2012 में भाजपा के दिवंगत नेता और पूर्व क़ानून मंत्री अरुण जेटली ने एक कार्यक्रम में सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों की नियुक्ति के चलन पर सवाल उठाए थे. इसी कार्यक्रम में मौजूद भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष नितिन गडकरी ने कहा था कि रिटायरमेंट के बाद दो सालों (नियुक्ति से पहले) का अंतराल होना चाहिए वरना सरकार अदालतों को प्रभावित कर सकती है और एक स्वतंत्र, निष्पक्ष न्यायपालिका कभी भी वास्तविकता नहीं बन पाएगी.

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जस्टिस एसए नज़ीर, भाजपा के दिवंगत नेता अरुण जेटली और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी. (फोटो: पीटीआई/Supreme Court Website)

साल 2012 में भाजपा के दिवंगत नेता और पूर्व क़ानून मंत्री अरुण जेटली ने एक कार्यक्रम में सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों की नियुक्ति के चलन पर सवाल उठाए थे. इसी कार्यक्रम में मौजूद भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष नितिन गडकरी ने कहा था कि रिटायरमेंट के बाद दो सालों (नियुक्ति से पहले) का अंतराल होना चाहिए वरना सरकार अदालतों को प्रभावित कर सकती है और एक स्वतंत्र, निष्पक्ष न्यायपालिका कभी भी वास्तविकता नहीं बन पाएगी.

जस्टिस एसए नज़ीर, केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी और भाजपा के दिवंगत नेता अरुण जेटली. (फोटो: पीटीआई/Supreme Court Website)

नई दिल्ली: बीते रविवार को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के चार नेता और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश एस. अब्दुल नजीर सहित छह लोगों को विभिन्न राज्यों का राज्यपाल नियुक्त किया.

आंध्र प्रदेश के राज्यपाल नियुक्त हुए जस्टिस नजीर अयोध्या मामले को लेकर फैसला सुनाने वाली उच्चतम न्यायालय की पीठ के सदस्य थे और बीते जनवरी में ही वे सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हुए हैं.

उनकी नियुक्ति को लेकर विपक्ष ने आपत्ति जताते हुए सरकार की आलोचना की है और इस तरह की नियुक्तियों के खिलाफ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के दिवंगत नेता अरुण जेटली की टिप्पणियों का जिक्र किया.

साल 2012 में पार्टी के विधि प्रकोष्ठ के एक कार्यक्रम में कहा था कि सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों की नियुक्ति के प्रचलन से न्यायपालिका पर असर पड़ रहा है.

जेटली ने कहा था, ‘दो तरह के जज होते हैं- वे जो कानून जानते हैं, दूसरे वो जो कानून मंत्री को जानते हैं. हम दुनिया का इकलौता देश हैं जहां जज ही जजों की नियुक्ति करते हैं. यहां रिटायरमेंट की एक उम्र दी गई है, लेकिन जज सेवानिवृति की उम्र के बावजूद इसके इच्छुक नहीं होते. सेवानिवृत्ति से पहले लिए गए फैसले रिटायरमेंट के बाद मिलने वाले पद की हसरत से प्रभावित होते हैं.’

उस समय विपक्ष के नेता जेटली ने यह भी जोड़ा था, ‘न्यायपालिका में निष्पक्षता को बनाए रखने के लिए न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के समय मिल रहे वेतन के बराबर पेंशन देने और सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाने से मुझे कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों की नियुक्ति से न्यायपालिका पर असर पड़ रहा है.’

यह कार्यक्रम पार्टी के विधि प्रकोष्ठ द्वारा आयोजित राष्ट्रीय अधिवक्ता अधिवेशन था, जिसमें तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी भी शामिल हुए  थे. उन्होंने कहा था कि सेवानिवृत्ति के दो साल की अवधि के बाद ही जजों की नियुक्ति न्यायाधिकरणों में की जानी चाहिए.

गडकरी का कहना था, ‘… मेरी सलाह है कि सेवानिवृत्ति के बाद दो सालों (नियुक्ति से पहले) का अंतराल होना चाहिए अन्यथा सरकार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अदालतों को प्रभावित कर सकती है और एक स्वतंत्र, निष्पक्ष और ईमानदार न्यायपालिका कभी भी वास्तविकता नहीं बन पाएगी.’

इस समय विपक्ष की आलोचना को लेकर केंद्रीय कानून मंत्री बचाव में उतरे हैं, ठीक इसी तरह 2012 में जेटली के बयान के बाद कांग्रेस के तत्कालीन प्रवक्ता मनीष तिवारी ने कहा था कि उन्हें (जेटली को) पूर्व कानून मंत्री होने के नाते मालूम होना चाहिए कि कुछ संवैधानिक स्थाओं के प्रमुख केवल पदस्थ और सेवानिवृत्त न्यायाधीश ही हो सकते हैं.

कौन हैं जस्टिस नज़ीर

5 जनवरी, 1958 को कर्नाटक के दक्षिण कन्नड़ जिले के बेलुवई में जन्मे जस्टिस अब्दुल नज़ीर ने 1983 में वकालत की शुरुआत की थी. यहां 20 सालों तक उन्होंने कर्नाटक हाईकोर्ट में प्रैक्टिस की, जिसके बाद उन्हें 2003 में कर्नाटक हाईकोर्ट का अतिरिक्त न्यायाधीश नियुक्त किया गया.

17 फरवरी 2017 को सुप्रीम कोर्ट में बतौर जज नियुक्त हुए, जहां से वे बीते चार जनवरी को सेवानिवृत्त हुए हैं.

जस्टिस नज़ीर इस सरकार के लिए कई महत्वपूर्ण फैसले देने वाली संविधान पीठ का हिस्सा थे, जिसमें ट्रिपल तलाक की संवैधानिक वैधता केस, निजता के अधिकार, अयोध्या मामला और हाल ही में केंद्र के 2016 के नोटबंदी निर्णय और सांसदों की अभिव्यक्ति की आज़ादी का मामला शामिल है. तीन तलाक मामले में वे असहमति रखने वाले न्यायाधीश थे, जिनका कहना था कि यह प्रथा अवैध नहीं है.

उल्लेखनीय है कि नवंबर 2109 में अयोध्या मामले में फैसला देने वाली पांच जजों की पीठ के वे तीसरे ऐसे न्यायधीश हैं, जिन्हें मोदी सरकार द्वारा रिटायरमेंट के बाद किसी अन्य पद के लिए नामित किया गया है.

पीठ ने अपने विवादास्पद फैसले में कहा था कि दिसंबर 1992 में हिंदुत्ववादी कार्यकर्ताओं द्वारा अवैध रूप से गिराए जाने से पहले जहां बाबरी मस्जिद पांच शताब्दियों तक खड़ी थी, उसे विध्वंस से जुड़े संगठनों को सौंप दिया जाना चाहिए ताकि वे वहां राम मंदिर का निर्माण कर सकें.

पीठ की अध्यक्षता करने वाले तत्कालीन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई को सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद राज्यसभा का सदस्य बनाया गया था. इसके बाद जुलाई 2021 में सेवानिवृत्त हुए जस्टिस अशोक भूषण को उसी साल राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण (एनसीएलएटी) का प्रमुख बनाया गया था.

पूर्व सीजेआई गोगोई नवंबर 2019 में रिटायर हुए थे और उन्हें मार्च 2020 में राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया था. भूषण जुलाई 2021 में रिटायर हुए और अक्टूबर 2021 ने एनसीएलएटी की नियुक्ति मिली, वहीं जस्टिस नजीर जनवरी 2023 में रिटायर हुए थे और उन्हें इसके अगले ही महीने फरवरी 2023 में राज्यपाल बनाया गया.

क्या कहता है इतिहास

स्वतंत्र भारत के इतिहास में जस्टिस नज़ीर राज्यपाल बनाए गए सर्वोच्च न्यायालय के तीसरे सेवानिवृत्त न्यायाधीश हैं.

इससे पहले 1997 में जस्टिस फातिमा बीवी को एचडी देवेगौड़ा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से उनकी सेवानिवृत्ति के पांच साल बाद राज्यपाल बनाया था, लेकिन मोदी सरकार में ऐसा दूसरी बार हुआ है जब रिटायरमेंट के तुरंत बाद शीर्ष अदालत के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश को राज्यपाल बनाया है.

2014 में इसने भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी. सदाशिवम को केरल का राज्यपाल नियुक्त किया था. इस फैसले की यह कहते हुए काफी आलोचना हुई थी कि उन्हें सत्तारूढ़ दल की मदद करने का इनाम मिला है.

जस्टिस सदाशिवम ने इस बात से इनकार किया था कि उनकी नियुक्ति का तुलसीराम प्रजापति मामले में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के खिलाफ दायर की गई दूसरी एफआरआई को खारिज करने के उनके फैसले के साथ कोई लेना-देना है.

केरल के राज्यपाल के रूप में जस्टिस सदाशिवम को उस समय काफी शर्मनाक स्थिति का सामना करना पड़ा था जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए लाए गए सरकारी अध्यादेश पर उन्हें हस्ताक्षर करना था और उस अध्यादेश पर बाद में सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी.

साल 2018 में सेवानिवृत्ति के ठीक बाद बाद सरकार की ओर से पेश नियुक्तियों को स्वीकार करने को लेकर जजों के विवेक पर बहस छिड़ी थी. उस समय केरल हाईकोर्ट के वकील और कानून पर रिपोर्ट करने वाली वेबसाइट ‘लाइव लॉ’ के मैनेजिंग एडिटर मनु सेबेस्टियन ने द वायर  पर प्रकाशित एक लेख में कहा था कि सेवानिवृत्ति के तत्काल बाद मिलने वाली नियुक्तियों को स्वीकार करने से निश्चित रूप से न्यायपालिका की स्वतंत्रता को लेकर जनता के विश्वास को ठेस लगती है.

लेख में बताया गया था कि कैसे सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश जस्टिस चेलमेश्वर ने घोषणा की थी कि वे सेवानिवृत्ति के बाद सरकार की ओर से मिलने वाली किसी भी नियुक्ति को स्वीकार नहीं करेंगे. उनके साथी जज जस्टिस कुरियन जोसेफ ने भी इस तरह की किसी भी नियुक्ति को स्वीकारने को लेकर अनिच्छा प्रकट की थी. इन दोनों का ही कहना था कि न्यायपालिका और कार्यपालिका को एक दूसरे के प्रति प्रशंसा का भाव रखने के बजाय एक दूसरे पर निगरानी रखनी चाहिए और सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाली नियुक्तियां अक्सर न्यायपालिका की स्वतंत्रता में गिरावट की वजह बन सकती हैं.

2018 में ही केरल हाईकोर्ट से सेवानिवृत्त हुए जज जस्टिस बी. कमाल पाशा ने अपने विदाई समारोह में इस चलन के खिलाफ बयान दिया था. उन्होंने कहा था,’ ‘जब एक जज सेवानिवृत्ति के बाद सरकार से किसी नियुक्ति की उम्मीद कर रहा हो तो वो आमतौर पर अपने सेवानिवृत्ति के आखिरी साल में सरकार को नाखुश नहीं करना चाहेगा. यह एक आम शिकायत है कि ऐसे जज सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाली नियुक्तियों की उम्मीद में सरकार को नाखुश करने की हिम्मत नहीं दिखाते.’

उन्होंने जस्टिस एसएच कपाड़िया और जस्टिस टीएस ठाकुर के कहे शब्दों को भी याद करते हुए कहा था कि किसी भी जज को किसी भी सरकार से मिलने वाली वेतनभोगी नौकरियों को, कम से कम सेवानिवृत्ति के बाद के तीन साल के ‘कूलिंग पीरियड’ में स्वीकार नहीं करना चाहिए.

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