क्या सीपीआर के ख़िलाफ़ मोदी सरकार की कार्रवाई का अडानी से कोई ‘संबंध’ है?

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) का एफसीआरए लाइसेंस रद्द होने से पहले इसे मिले आयकर विभाग के नोटिस में संगठन के छत्तीसगढ़ में हसदेव आंदोलन में शामिल एनजीओ से जुड़ाव का प्रमुख तौर पर ज़िक्र किया गया है. हालांकि, नोटिस में जिस बात का उल्लेख नहीं है वो यह कि हसदेव क्षेत्र बीते क़रीब एक दशक से अडानी समूह के ख़िलाफ़ विराट आदिवासी आंदोलन का केंद्र है.

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(फोटो साभार: सीपीआर वेबसाइट/अडानी समूह)

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) का एफसीआरए लाइसेंस रद्द होने से पहले इसे मिले आयकर विभाग के नोटिस में संगठन के छत्तीसगढ़ में हसदेव आंदोलन में शामिल एनजीओ से जुड़ाव का प्रमुख तौर पर ज़िक्र किया गया है. हालांकि, नोटिस में जिस बात का उल्लेख नहीं है वो यह कि हसदेव क्षेत्र बीते क़रीब एक दशक से अडानी समूह के ख़िलाफ़ विराट आदिवासी आंदोलन का केंद्र है.

(फोटो साभार: सीपीआर वेबसाइट/अडानी समूह)

नई दिल्ली: केंद्रीय गृह मंत्रालय ने पिछले महीने सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) के विदेशी अंशदान अधिनियम (एफसीआरए) लाइसेंस को रद्द कर दिया. उससे थोड़ा पहले आयकर विभाग ने सीपीआर को कारण बताओ नोटिस भेजा था. इस विश्व-प्रसिद्ध बौद्धिक संस्था के खिलाफ़ केंद्र सरकार की कार्रवाई को परखने पर एक उद्योग समूह अदृश्य रूप में उपस्थित दिखाई देता है, जिसकी परछाई सरकारी दस्तावेज़ों पर मंडराती रहती है, लेकिन जिसका कभी नाम नहीं लिया जाता- अडानी.

हाल ही में द इंडियन एक्सप्रेस ने खबर की थी कि आयकर विभाग ने संस्था को कारण बताओ नोटिस जारी करते हुए आरोप लगाया गया था कि इसकी कई गतिविधियां इसके उद्देश्यों के अनुरूप नहीं हैं, और इसके द्वारा कुछ गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) को दी जा रही राशि एफसीआरए के दिशानिर्देशों का उल्लंघन है.

22 दिसंबर 2022 का यह नोटिस छत्तीसगढ़ में कार्यरत जन अभिव्यक्ति सामाजिक विकास संस्थान (जेएएसवीएस) के साथ सीपीआर के संबंधों पर तमाम प्रश्न करता है. गौर करें, जेएएसवीएस उन तीसेक संगठनों में से है, जिसे सीपीआर आंकड़ों को एकत्र करने और शैक्षणिक व शोध कर्म के लिए राशि देता है.

आयकर विभाग आरोप लगाता है कि सीपीआर जन अभिव्यक्ति सामाजिक विकास संस्था के जरिये हसदेव आंदोलन में भागीदारी कर रहा है. नोटिस में यह भी उल्लेख है कि आयकर विभाग ने जेएएसवीएस के न्यासी आलोक शुक्ला को तलब किया और उनके फोन से वॉट्सऐप और सिग्नल मैसेज हासिल किए.

गौरतलब है कि जब आलोक शुक्ला ने पिछले साल दिल्ली में 22 सितंबर को आयकर विभाग के समक्ष अपना बयान दर्ज कराया था, उससे ठीक दो हफ्ते पहले 7 सितंबर को विभाग ने सीपीआर के दिल्ली परिसर में एक ‘सर्वे‘ किया था.

जब वायर  ने आयकर विभाग के इस 33 पृष्ठ के नोटिस का अध्ययन किया, तो यह स्पष्ट हुआ कि इस दस्तावेज़ में इस बात का कोई जिक्र नहीं है कि हसदेव एक दशक से अधिक समय से अडानी समूह के खिलाफ विराट आदिवासी आंदोलन का केंद्र बना हुआ है. कई मीडिया ख़बरों ने इस क्षेत्र में अडानी के कोयला खनन से जुड़ी तमाम अनियमितताएं दर्ज की हैं. हसदेव बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला इस प्रतिरोध के एक प्रमुख नेता हैं.

आलोक शुक्ला ने वायर  को बताया, ‘जेएएसवीएस ने सीपीआर के साथ बौद्धिक आदान-प्रदान के लिए एक समझौता (कंसल्टेंसी एग्रीमेंट) किया है, जिसके तहत हम पर्यावरण कानूनों के उल्लंघन से संबंधित शोध करते हैं. इस विषय पर हमने कई रिपोर्ट्स प्रकाशित की हैं. हमारी कंसल्टेंसी का हसदेव आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं है.’

अडानी और हसदेवरायगढ़ क्षेत्र

आयकर विभाग सीपीआर द्वारा ‘छत्तीसगढ़ में खनन का विरोध कर रहे’ एनजीओ और संबंधित लोगों को राशि दिए जाने पर कई बार आपत्ति दर्ज करता है. नोटिस कम से कम 20 मर्तबा ‘हसदेव’ शब्द का इस्तेमाल करता है, लेकिन एक बार भी यह नहीं बताया गया है कि इस खनन का प्रमुख लाभार्थी कौन है.

हाथियों का प्राकृतिक आवास हसदेव क्षेत्र जैव-विविधता से संपन्न क्षेत्र है. रायगढ़ में फैला हाथी का गलियारा हसदेव का प्राकृतिक विस्तार है. इस भूमि के भीतर बेशुमार कोयला सोया हुआ है. छत्तीसगढ़ के सरगुजा, कोरबा और रायगढ़ जिलों में फैला यह इलाका अडानी समूह के कोयला साम्राज्य का गढ़ भी है. इस क्षेत्र में कंपनी के नौ कोयला ब्लॉक हैं, जिनमें से कईयों में लगातार विरोध के कारण काम शुरू नहीं हुआ है. ये ब्लॉक विभिन्न राज्य सरकारों को आवंटित किए गए थे, लेकिन अडानी समूह ने बीते कुछ सालों में माइन डेवलपर और ऑपरेटर (एमडीओ) के रूप में इन सभी खदानों के टेंडर हासिल कर लिए हैं.

सरगुजा जिले में परसा ईस्ट और केते बासन, परसा और केते एक्सटेंशन के कोयला खदान का स्वामित्व राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम के पास है, कोरबा जिले का गिधमुरी पतुरिया ब्लॉक छत्तीसगढ़ सरकार के पास है. भूपेश बघेल सरकार ने 2019 में ये खदान अडानी समूह को दे दी थीं. गौर करें, कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने 16 जून, 2015 को कोरबा के मदनपुर गांव में ग्रामीणों से वायदा किया था कि वह इस क्षेत्र में खनन नहीं होने देंगे.

रायगढ़ जिले में अडानी की कंपनी छत्तीसगढ़ सरकार के गारे पेल्मा III ब्लॉक का संचालन करती है. इसके अलावा महाराष्ट्र सरकार की खदान गारे पेल्मा सेक्टर II और गुजरात सरकार की खदान गारे पेल्मा I का जिम्मा भी अडानी के पास है. इनमें से केवल गारे पेल्मा III में ही काम चल रहा है, बाकी दोनों में खनन शुरू होना बाकी है.

कम-अस-कम 3,000 मिलियन टन कोयले वाली खदानों के साथ आज अडानी समूह भारत का सबसे बड़ा कोयला खदान डेवलपर और ऑपरेटर है. इस तरह अडानी समूह के लिए हसदेव क्षेत्र का महत्व समझा जा सकता है.

अधिवक्ता सुदीप श्रीवास्तव दशक भर से विभिन्न अदालतों में अडानी के कोयला ब्लॉकों से संबंधित केस लड़ रहे हैं. वे वायर  को बताते हैं, ‘इसकी संचयी (cumulative) उत्पादन क्षमता 100 मिलियन टन प्रति वर्ष है, जो कोल इंडिया लिमिटेड की कई सहायक कंपनियों से कहीं ज्यादा है. किसी एक उद्योग घराने को इतनी बड़ी संख्या में कोयला ब्लॉक देने से कोयला और बिजली उत्पादन पर न सिर्फ उसका एकाधिकार हो जाता है, बल्कि वह इस बाजार को मनचाहे तरीके से नियंत्रित भी कर सकता है.’

हसदेव क्षेत्र से उत्पन्न कोयले की आपूर्ति केवल सरकारी कंपनियों को नहीं होती, यह कोयला अडानी समूह अपने बिजली संयंत्रों के लिए भी ले जाता है. स्थानीय आदिवासी कहते हैं कि खनन के लिए ग्राम सभा की अनुमति धोखे से ली गई थी. कई मीडिया खबरों में कोयला सौदों में हुई अन्य अनियमितताओं का खुलासा भी किया गया है.

न्यूज़ वेबसाइट स्क्रॉल की एक रिपोर्ट बताती है कि परसा ईस्ट और केते बासन का लाखों टन ‘रिजेक्टेड कोयला’ अडानी के तीन बिजली संयंत्रों के पास कच्चे माल के बतौर पहुंचता रहा है. इस सौदे से अडानी समूह को फायदा हुआ और ब्लॉक की मालिक राजस्थान सरकार को भारी नुकसान, क्योंकि ‘राजस्थान ने कोयले के लिए 2,175 रुपये प्रति टन का भुगतान किया था, जबकि अडानी पावर ने 450 रुपये प्रति टन चुकाए.’

हाल ही में अल जज़ीरा ने द रिपोर्टर्स कलेक्टिव की एक लंबी पड़ताल प्रकाशित की कि नरेंद्र मोदी सरकार ने हसदेव क्षेत्र में अडानी समूह को मदद पहुंचाने के लिए कानून बनाए थे. सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में 204 कोयला ब्लॉकों के आवंटन को रद्द कर दिया था, लेकिन मोदी सरकार एक नया कानून लाई जिसने पिछले एमडीओ यानी अडानी की बहाली की अनुमति दे दी.

श्रीवास्तव कहते हैं, ‘सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों से कोयला खनन के लिए भारत द्वारा अपनाई गई एमडीओ प्रणाली सबसे खराब मॉडल है, क्योंकि इसके तहत एक निजी कंपनी को मुफ्त में कोयला खदान मिल जाती है और आजीवन सुनिश्चित लाभ मिलता रहता है. यह लाभ उस पीएसयू को मिलना चाहिए था, जिसे ब्लॉक आवंटित किया गया था, लेकिन सारा लाभ माइन डेवलपर के पास पहुंच जाता है.’

कोयला नीति का उद्देश्य सार्वजनिक इकाइयों को सस्ता कोयला उपलब्ध कराना है ताकि वे सस्ती बिजली का उत्पादन कर सकें और उपभोक्ता को लाभ पहुंचा सकें, लेकिन एमडीओ मॉडल के अंतर्गत यह उद्देश्य विफल हो जाता है.

शीर्ष पर्यावरण संस्थाएं भी हसदेव क्षेत्र में खनन के खिलाफ बोलती रही हैं. साल भर पहले भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद (आईसीएफआरई) की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि पहले से चालू खदानों को छोड़कर पूरे हसदेव क्षेत्र को ‘नो-गो’ क्षेत्र घोषित किया जाना चाहिए.

आईसीएफआरई और भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा किए गए 2021 के जैव विविधता अध्ययन में कहा गया कि हसदेव में खनन से भू-आकृति विज्ञान (geo-morphological)/हाइड्रोलॉजिकल परिवर्तन और ड्रेनेज प्रणाली पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा. रिपोर्ट कहती थी कि क्षेत्र में 90% से अधिक परिवार कृषि और वन उपज पर निर्भर हैं, इसलिए खनन के परिणामस्वरूप हुआ विस्थापन मनुष्य की आजीविका, अस्मिता और संस्कृति को तबाह कर देगा.

संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) शासन के दौरान पर्यावरण और वन मंत्रालय ने हसदेव क्षेत्र को ‘नो-गो’ क्षेत्र घोषित किया था, लेकिन जल्द ही आधिकारिक नीति विपरीत दिशा में मुड़ गई, जिसके परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर आदिवासियों द्वारा विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए. इन प्रदर्शनों को विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर समर्थन मिला, जिसके चलते अब तक कई ब्लॉकों में खनन शुरू नहीं हो सका है.

अडानी और आयकर नोटिस

इन तथ्यों की रोशनी में जब सीपीआर के खिलाफ आयकर विभाग के आरोपों को देखें, तो तस्वीर अलग रंग ले लेती है.

सीपीआर ने मई 2015 में जेएएसवीएस के साथ पहली बार क़रार किया था, जिसे तब से समय-समय पर बढ़ाया जाता रहा है. दोनों संगठनों ने पर्यावरण-संबंधी कानूनों के अनुपालन पर छह संयुक्त रिपोर्ट प्रकाशित की हैं, जिनमें से पांच छत्तीसगढ़ पर केंद्रित हैं.

आयकर विभाग का नोटिस कहता है कि जेएएसवीएस हसदेव आंदोलन से जुड़े ‘लोगों को एकत्र कर आंदोलन के लिए धन जुटाता है, इसलिए सीपीआर द्वारा जेएएसवीएस को फंड देना इसके स्वीकृत उद्देश्यों के अनुसार नहीं है.’

सीपीआर ने इन आरोपों को ख़ारिज किया है. इसके द्वारा जारी बयान में कहा गया है, ‘हम कानून का पूरा पालन करते हैं और भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) सहित सरकारी संस्थाएं नियमित रूप से हमारा लेखा परीक्षण करती हैं. ऐसी किसी गतिविधि का कोई सवाल नहीं उठता जो हमारे उद्देश्यों से परे हो या कानून का अनुपालन न करती हो.’

आलोक शुक्ला कहते हैं, ‘मैं छत्तीसगढ़ में दो दशकों से अधिक समय से हाशियग्रस्त वर्गों के लिए काम कर रहा हूं. मैं अक्सर हसदेव और अन्य आंदोलनों से प्रभावित लोगों और वकीलों के बीच संपर्क-सेतु का काम भी करता हूं. लेकिन मैं एक शोधकर्ता भी हूं. सीपीआर के साथ जेएएसवीएस का क़रार मेरे शोध कार्य का सूचक है. मेरा यह कार्य शोध प्रकाशनों के रूप में सबके बीच उपलब्ध है. हसदेव आंदोलन में सीपीआर की कोई भूमिका नहीं है.’

वायर  ने अडानी समूह और सीपीआर को सवाल भेजे हैं, जो अब तक अनुत्तरित हैं. इनका जवाब मिलने पर रिपोर्ट में जोड़ा जाएगा.

(आशुतोष भारद्वाज स्वतंत्र पत्रकार और लेखक हैं.) 

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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