गांधी जी के लिए डिग्रियां बेमानी थीं, लेकिन उन्होंने इन्हें ईमानदार तरीके से हासिल किया था

जम्मू कश्मीर के उपराज्यपाल के महात्मा गांधी की शिक्षा के बारे में किए गए दावे के उलट उन्होंने लॉ की डिग्री के साथ-साथ फ्रेंच और लैटिन में डिप्लोमा भी किया था. इसके बाद उन्होंने लंदन के इनर टेंपल के बार में प्रवेश के लिए आवेदन भी किया था.  

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महात्मा गांधी. (फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)

जम्मू कश्मीर के उपराज्यपाल के महात्मा गांधी की शिक्षा के बारे में किए गए दावे के उलट उन्होंने लॉ की डिग्री के साथ-साथ फ्रेंच और लैटिन में डिप्लोमा भी किया था. इसके बाद उन्होंने लंदन के इनर टेंपल के बार में प्रवेश के लिए आवेदन भी किया था.

महात्मा गांधी. (फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)

क्या महात्मा गांधी एक डिग्रीधारी वकील थे? अगर जम्मू कश्मीर के उप राज्यपाल मनोज सिन्हा की बात पर यकीन करें, तो इसका जवाब बड़ा सा न है. आईटीएम यूनिवर्सिटी, ग्वालियर में एक भाषण के दौरान उन्होंने कहा कि बापू की शैक्षणिक योग्यता के बारे में जो आम धारणा है, वह गलत है. उन्होंने कहा कि वे पक्की जानकारी के आधार पर कह रहे हैं कि हाईस्कूल के डिप्लोमा के अलावा बापू के पास कोई भी शैक्षणिक योग्यता नहीं थी.

इस बयान का अर्थ यह है कि मोहनदास करमचंद गांधी एक फर्जी वकील थे. उन्होंने भारत में और दक्षिण अफ्रीका में डिग्री के बिना ही वकालत की और यहां तक कि लंदन के इनर टेंपल के साथ सांठ-गांठ करके बार में दाखिला भी ले लिया. बापू खुद को ‘बिना केस का बैरिस्टर’ (बैरिस्टर विदाउट ब्रीफ) कहा करते थे. अब सिन्हा ने उन्हें बिना डिग्री वाला वकील (बैरिस्टर विदाउट डिग्री) कहा है.

उच्च शिक्षा पर बापू की राय थी कि,

शिक्षा का मतलब अक्षरों का ज्ञान नहीं है, बल्कि इसका मतलब चरित्र निर्माण है. इसका मतलब अपने कर्तव्य का ज्ञान है. [माय चाइल्डहुड विद गांधी जी, पृ. 73]

गांधी का बार एनरोलमेंट सर्टिफिकेट. (साभार: गांधी तीर्थ, जलगांव)

शुरूआती शिक्षा और आगे के कदम

बचपन में मोहन का दाखिला पोरबंदर के एक किंडरगार्टन में कराया गया था. जब उनके पिता करमचंद बप्पा ने राजकोट के ठाकुर के दरबार में दीवान की नौकरी शुरू की, तब उनका परिवार भी वहां चला गया और बालक मोहन (उन्हें मोनियो कहकर पुकारा जाता था) का दाखिला वहां के एक किंडरगार्टन में कराया गया. बाद में 1880 में उनका दाखिला अल्फ्रेड स्कूल में हुआ, जहां उन्होंने प्राथमिक और उच्च स्कूली शिक्षा हासिल की.

मोहन एक मेधावी विद्यार्थी नहीं थे. वे एक औसत छात्र थे,वे पढ़ने-लिखने में पीछे थे, उन्हें खेल और फिजिकल एजुकेशन नापसंद थे और महाविद्यालय में वे दोनों से ही जितना संभव हो सके, बचना चाहते थे.

वे इंडियन मैट्रिक की परीक्षा में बैठे. यह परीक्षा मुंबई में हुई. यह पहली बार था, जब उन्होंने वहां की यात्रा की. वे परीक्षा में बैठे और पास हुए. इस बात के सबूत मौजूद हैं. मोहन का नाम अल्फ्रेड हाईस्कूल के रजिस्टर में है और वहां उन्हें मिले अंकों का रिकॉर्ड है.

गांधी का मैट्रिकुलेशन सर्टिफिकेट. (साभार: गांधी तीर्थ, जलगांव)

युवा मोहन ने इसके बाद भावनगर के श्यामलदास आर्ट्स कॉलेज में दाखिला लिया. वहां की पढ़ाई उनके लिए कष्टकर बन गई और उन्हें पत्नी कस्तूर की याद सताती रहती थी. और इस तरह से पहले टर्म के अंत में वे ड्रॉपआउट होकर वापस घर लौट गए.

इस समय तक करमचंद बप्पा का स्वर्गवास हो चुका था और मोहन के दोनों बड़े भाई स्कूल ड्रॉपआउट होकर छोटी-मोटी सरकारी नौकरी कर रहे थे. उनकी आय इतनी नहीं थी, परिवार आराम का जीवन जी सके. ऐसे में मोहन ही परिवार की एकमात्र उम्मीद थे. काठियावाड़ के किसी राजदरबार में, खासकर पोरबंदर या राजकोट में जहां उनके पिता और दादा ने काम किया था, दीवान की नौकरी पाने के लिए उनका योग्य होना जरूरी था.

उस दौर में इन रजवाड़ों का प्रशान ब्रिटिश रेजिडेंट्स के हाथों में था. वे ही तय करते थे कि वरिष्ठ प्रशासनिक पदों पर किनकी नियुक्ति की जाएगी. करमचंद बप्पा के दोस्त मावजीभाई देसाई ने परिवार के बड़ों को सलाह दी कि अगर मोहन को यह नौकरी हासिल करनी है, तो उन्हें ब्रिटिश शिक्षा, विशेषतः कानून की शिक्षा दिलाई जाए.

मोहन डॉक्टर बनना चाहते थे, लेकिन उनकी मां एक धर्मपरायण वैष्णव थीं और वे अपने बेटे को खून, मांस और मृत शरीर के साथ काम करने को स्वीकार नहीं कर सकती थीं, इसलिए उन्होंने उन्हें मेडिकल की पढ़ाई करने की इजाजत नहीं दी. इस पर मावजीभाई ने लंदन में लीगल स्टडीज की पढ़ाई करने की सलाह दी.

एक बाधा और आई: वैष्णवों में समुद्र पार करना वर्जित था. मोहन की मां पुतलीबाई इसलिए भी चिंतित थीं, क्योंकि उन्होंने सुना था कि विलायत जाने वाले लड़के बिगड़ जाते हैं, वे मांस खाते हैं, शराब पीते हैं और विलायती महिलाओं के संसर्ग में आ जाते हैं. वे नहीं चाहती थीं कि उनका मोनियो ऐसे प्रलोभनों का शिकार हो. मावजीभाई ने इस समस्या का समाधान एक जैन साधु के हस्तक्षेप से किया. साधु ने पुतलीबाई को समझाया और यह फैसला किया गया कि मोहन शपथ लेगा कि वह मीट नहीं खाएगा, एल्कोहल का सेवन नहीं करेगा या किसी विलायती महिला के आकर्षण में नहीं पड़ेगा. मोहन ने साधु की उपस्थिति में यह शपथ ली.

लंदन फिर भी दूर था…

परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी; परिवार के पास मोहन की विलायती शिक्षा का खर्च उठाने लायक पैसा नहीं था. उन्होंने कर्ज लिए, फिर भी पैसे कम पड़ गए. आखिरकार कस्तूर ने अपने धनी पिता से मिले गहने सौंपे, ताकि मोहन लंदन में शिक्षा हासिल कर सकें.

मोहन बॉम्बे के लिए रवाना हुए और वहां रहते हुए उन्हें यह सूचना मिली कि उनकी जाति मोढ़ बनिया के बड़ों ने विलायत जाने को धर्मविरुद्ध करार देते हुए उन्हें विलायत जाने से मना किया है. उन्होंने मोहन के इस आदेश को न मानने की स्थिति में परिवार को बिरादरी से बाहर करने और उन पर भारी जुर्माना लगाने की धमकी दी. मोहन ने आदेश को नहीं माना और 4 सितंबर, 1888 को ‘एसएस क्लाइड’ नामक जहाज से लंदन के लिए रवाना हो गए.

मोहन विलायत जाने की संभावना से काफी डरे हुए था; उन्हें ऐसा लग रहा था कि वे एक देहाती आदमी हैं और इसलिए वे जेंटलमैन होने की सारी कसौटियों पर खरा उतरने की कोशिश की. उन्होंने एक सूट भी सिलवाया, लेकिन इसमें गलती हो गई, जिसने उन्हें हंसी का पात्र बना दिया.

लंदन पहुंचने पर उन्हें डॉ. प्राणजीवन जगजीवनदास मेहता का मार्गदर्शन मिला, जिन्होंने लंदन के यूनिवर्सिटी कॉलेज के लॉ स्कूल में दाखिला लेने में उनकी मदद की. शुरुआत में मोहन एक छोटे-से होटल में रहे, लेकिन फिर एक कमरा किराये पर ले लिया. मोहन ने शुरू में तो जेंटलमैन बनने की अपनी कोशिशों को अपनी पढ़ाई-लिखाई के ऊपर तरजीह दी. लेकिन फिर डॉ. मेहता की डांट के बाद वे यथार्थ की दुनिया में लौटे और अपनी पढ़ाई को पूरी गंभीरता से लेना शुरू किया.

उन्होंने ब्रिटिश मैट्रिकुलेशन की परीक्षा 1890 में पास की. लॉ की फाइनल परीक्षा से कुछ हफ्ते पहले उनकी मां पुतलीबाई का निधन राजकोट में हो गया. परिवार ने यह खबर मोहन को न देने का फैसला किया. उन्हें शक था कि यह खबर पाकर मोहन परीक्षा में बैठे बगैर ही भारत के लिए रवाना हो जाएंगे.

मोहन ने अपनी एलएलबी की परीक्षा यूनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन से उत्तीर्ण की. लॉ की डिग्री के साथ-साथ मोहनदास ने फ्रेंच और लैटिन में डिप्लोमा भी हासिल किया. इसके बाद उन्होंने इनर टेंपल के बार में प्रवेश के लिए आवेदन किया. सभी अर्हताओं को पूरा करने के बाद जून, 1891 में मोहनदास गांधी को बार में प्रवेश दे दिया गया, वे एक डिग्रीधारी रजिस्टर्ड बैरिस्टर बन गए.

इसके बाद वे भारत के लिए रवाना हुए.

महात्मा गांधी का डिक्लेरेशन फॉर बार. (साभार: गांधी तीर्थ, जलगांव)

बापू के शब्दों में, वे जीवन पर्यंत एक विद्यार्थी बने रहे. उन्हें सबसे अच्छी शिक्षा ज़िंदगी के विद्यालय में मिली. अपने जीवन के अंतिम दिन 30 जनवरी, 1948 को मोहनदास गांधी बंगाली पढ़ रहे थे.

जम्मू कश्मीर के ‘विद्वान’ उपराज्यपाल जो भी कहें, बापू बिना डिग्री के वकील नहीं थे. यहां मैं इंडियन मैट्रिकुलेशन और लंदन के इनर टेंपल में बार में प्रवेश लेते वक्त उन्हें दिए गए प्रमाणपत्रों को फिर से साझा कर रहा हूं. सलाह दूंगा कि लोग इन प्रमाणपत्रों को पढ़ें. इनमें बार में प्रवेश के लिए अर्हताओं की सूची दी गई है. मोहनदास ने इन सभी अर्हताओं को पूरा किया.

ऐसा उन लोगों को शिक्षित करने के लिए है, जो हमें यह यकीन दिलाना चाहते हैं कि मोहनदास गांधी के कोई डिग्री नहीं थी. उनके लिए डिग्रियां बेमानी थीं, लेकिन उन्होंने पढ़कर और ईमानदार तरीकों से उन्हें हासिल किया था. सिर्फ एक डिग्री जो मोहनदास गांधी ने कभी हासिल की वह थी, ‘एंटायर लॉ स्टडीज’ की.

मैं बापू के शब्दों के साथ अपनी बात समाप्त करता हूं:

‘जो शिक्षा जो हमें अच्छे और बुरे के बीच अंतर करना, एक को अपनाना और दूसरे को त्याग देना न सिखाए वह सच्ची शिक्षा नहीं है.’ [हरिजन, फरवरी, 1939]

मुझे आशा है कि यह बात जम्मू कश्मीर के माननीय उपराज्यपाल तक पहुंचेगी और उन्हें सच और झूठ के बीच अंतर कर पाने में मदद करेगी.

(तुषार गांधी महात्मा गांधी के प्रपौत्र, सामाजिक कार्यकर्ता और महात्मा गांधी फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं.)

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