कर्नाटक में कांग्रेस की जीत और भाजपा की हार के बीच ये दस बातें याद रखनी चाहिए

कर्नाटक में कांग्रेस की जीत ने 2015 के दिल्ली और 2020 पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव की याद दिलाई है, जहां किसी एक दल ने मोदी-शाह के रुतबे को चुनावी मैदान में पछाड़ दिया था. लेकिन फिर भी ऐसा नहीं है कि ऐसी जीत के साथ भारत के लोकतंत्र में अचानक सब ठीक हो गया हो.

चुनावी रैलियों में नरेंद्र मोदी और अमित शाह, जीत के बाद कांग्रेस के नेता. (बीच में) (फोटो साभार: फेसबुक/भाजपा-कांग्रेस कर्नाटक)

कर्नाटक में कांग्रेस की जीत ने 2015 के दिल्ली और 2020 पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव की याद दिलाई है, जहां किसी एक दल ने मोदी-शाह के रुतबे को चुनावी मैदान में पछाड़ दिया था. लेकिन फिर भी ऐसा नहीं है कि ऐसी जीत के साथ भारत के लोकतंत्र में अचानक सब ठीक हो गया हो.

चुनावी रैलियों में नरेंद्र मोदी और अमित शाह, जीत के बाद कांग्रेस के नेता. (बीच में) (फोटो साभार: फेसबुक/भाजपा-कांग्रेस कर्नाटक)

1. कर्नाटक चुनावों में कांग्रेस की जीत भारतीय लोकतंत्र के अच्छे हाल का ‘सबूत’ नहीं है, ठीक वैसे ही जैसे कि देशभर के अधिकांश राज्यों में विपक्ष का शासन होने से उन अनुचित प्रथाओं को नकार नहीं सकते, जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासन में सरकारी तरीके से संस्थागत बना दिया गया है. कर्नाटक की जीत इसे हासिल करने से पहले की परिस्थितियों को देखते हुए और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है और राज्य के लोगों के भारी गुस्से को दिखाती है.

2. विपक्ष से जुड़े लोगों को निशाना बनाने के लिए प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), केंद्रीय जांच ब्यूरो, आयकर विभाग और अन्य केंद्रीय एजेंसियों का उपयोग चुनाव अभियान के दौरान बेरोकटोक जारी रहा और मतदान से पहले के कुछ दिनों में तो चरम पर पहुंच गया.

अगर जो बताया जा रहा है वह सच है, तो ऐसा लगता है कि अगले सीबीआई निदेशक को जिस तरह से चुना गया है वो पारदर्शी नहीं है और द्विदलीय सिद्धांत को खत्म करता है. यह इस बात की भी बानगी है कि किस तरह इससे पहले भी संवेदनशील पदों के लिए चुने गए व्यक्तियों ने संस्थानों और लोकतंत्र को खत्म किया है. ईडी निदेशक की नियुक्ति और उन्हें मिले अभूतपूर्व एक्सटेंशन इसका उदाहरण हैं.

3. चुनाव आयोग ने नरेंद्र मोदी और अमित शाह के कई बयानों और कामों के खिलाफ कांग्रेस और अन्य लोगों द्वारा की गई शिकायतों को नज़रअंदाज़ कर दिया, जो ऐसे पूर्वाग्रह को दिखाता है जो किसी करीबी मुकाबले में चीजों को पेचीदा बना सकता था. मोदी के मतदाताओं को वोट डालने के दौरान ‘जय बजरंग बली’ का आह्वान करने को लेकर चुनाव आयोग की ओर से अभी तक कोई टिप्पणी या नोटिस नहीं आया है. कांग्रेस का कहना है कि उनका इस तरह का आह्वान चुनाव कानून का उल्लंघन था, लेकिन चुनाव आयोग इस पर चुप रहा, यहां तक कि उसने कांग्रेस को कर्नाटक की ‘संप्रभुता’ के बारे में एक टिप्पणी के लिए नोटिस जारी किया, जो सोनिया गांधी ने कभी की ही नहीं.

4. भाजपा एक बार फिर गुमनाम चुनावी बॉन्ड के माध्यम से एकत्रित धन का उपयोग करने में सक्षम थी- भले ही सर्वोच्च न्यायालय ने इस तरह की अपारदर्शी राजनीतिक फंडिंग की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई स्थगित करना जारी रखा हो. इसका मतलब यह है कि कर्नाटक के चुनाव निश्चित रूप से निष्पक्ष और स्वतंत्र नहीं थे. उनका बहुत खर्चा होता है; अपेक्षाकृत कम समृद्ध उम्मीदवारों की जीत एक अपवाद थी- बेल्लारी के बी. नागेंद्र ने खनन कारोबारी भाजपा के बी. श्रीरामुलु को हराया, जो सराहनीय है.

5. कॉरपोरेट के स्वामित्व वाले राष्ट्रीय मीडिया ने भाजपा की प्रचार शाखा के रूप में काम करना जारी रखा, वहीं मोदी ने आचार संहिता लागू होने से ठीक पहले सरकारी यात्राओं के लिए बड़े पैमाने पर सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल किया. प्रधानमंत्री की उद्घाटन-कम-प्रचार यात्राओं- जिनकी जांच की जानी चाहिए, पर द वायर की रिपोर्ट पढ़ सकते हैं.

6. भाजपा का अभियान और मोदी के भाषण उग्र तरह से सांप्रदायिक और घटिया थे, जहां ‘कांग्रेस पार्टी आतंकवादियों के साथ काम कर रही है’ का दावा करने से लेकर अमित शाह ने यह तक कहा कि ‘कांग्रेस जीती तो दंगे होंगे.’ चुनाव से ठीक पहले मुसलमानों के लिए 4% कोटा खत्म करने के फैसले के साथ भाजपा ने अपना अभियान शुरू किया था, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने स्टे लगा दिया. ईवीएम का बटन दबाने के बाद मतदाताओं से ‘जय बजरंग बली’ के नारे लगाने का कहना ही एकमात्र मामला नहीं था. मोदी ने हिंदू मतदाताओं से अपील करने के लिए एक ध्रुवीकरण करने वाली प्रोपगैंडा फिल्म ‘द केरला स्टोरी’ की मदद भी ली. बसवराज बोम्मई केवल वो पर्दा थे, जो मुख्य रूप से इस हिंदुत्व अभियान के मुखौटे की तरह इस्तेमाल किए गए.

7. मोदी और शाह- जो क्रमशः देश के प्रधानमंत्री और केंद्रीय गृह मंत्री भी हैं-  ने मणिपुर में बड़े पैमाने पर (चल रही) हिंसा को नजरअंदाज कर दिया, जहां आधिकारिक रूप से 70 से अधिक लोगों ने अपनी जान गंवा दी और लगभग 35,000 से अधिक लोग बेघर हो गए क्योंकि वे चुनाव प्रचार में व्यस्त थे. ऐसा तब हुआ जब दोनों नेता कर्नाटक में ‘डबल इंजन सरकार’ के गुण गा रहे थे और ‘कानून और व्यवस्था’ के नाम पर अपनी ही पीठ ठोक रहे थे. इसी तरह, इसी अवधि में भारतीय सेना के विशेष बल के पांच जवानों ने जम्मू और कश्मीर में आतंकवाद के कारण जान गंवा दी, लेकिन उनकी शहादत पर चुनाव प्रचार में व्यस्त मोदी मौन रहे.

8. कांग्रेस नेता राहुल गांधी को गुजरात की एक अदालत द्वारा एक खासे संदिग्ध कानूनी मामले में सजा देने के बाद लोकसभा से बाहर कर दिया गया था. यहां लोकसभा अध्यक्ष की तत्काल कार्रवाई सवाल खड़े करती है. उद्देश्य साफ था कि पार्टी के चुनाव अभियान की शुरुआत में ही उनका मनोबल गिरा दिया जाए, हालांकि यह दांव उल्टा पड़ गया.

9. चुनाव प्रचार के दौरान अडानी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर मोदी की चुप्पी बनी रही, जिसने भाजपा की अगुवाई वाली राज्य सरकार और केंद्र सरकार पर लग रहे ‘40% सरकार’ के आरोपों को जमीन दे दी. बीते महीने पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक द वायर  को दिए साक्षात्कार में कह भी चुके हैं कि मोदी को भ्रष्टाचार से कोई खास नफरत नहीं है.’

10. चुनाव से पहले राज्य और केंद्र की भाजपा सरकार ने कई हल्के मामले दर्ज करके और बदले की कार्रवाई के अन्य तरीकों से सिविल सोसाइटी की आवाज को दबाने की पूरी कोशिश की. अभिनेता चेतन कुमार को हिंदुत्व की आलोचना वाले सोशल मीडिया पोस्ट के लिए गिरफ्तार करना और उनके ओवरसीज सिटीजन ऑफ इंडिया कार्ड को रद्द करने का कदम ऐसा ही मामला था.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)