क्या दिल्ली विश्वविद्यालय, जेएनयू जैसे कैंपस हिंदुत्व के प्रशिक्षण केंद्र में शेष हो जाएंगे

कुछ वक़्त पहले तक कहा जा रहा था कि विश्वविद्यालयों को राष्ट्रवादी भावना का प्रसार करना है. उस दौर में परिसर में राष्ट्रध्वज लगाना और वीरता दीवार बनाना ज़रूरी था. अब राष्ट्रवाद का चोला उतार फेंका गया है और बिना संकोच के हिंदुत्व का प्रचार किया जा रहा है.

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दिल्ली यूनिवर्सिटी. (फोटो साभार: विकीपिडिया)

कुछ वक़्त पहले तक कहा जा रहा था कि विश्वविद्यालयों को राष्ट्रवादी भावना का प्रसार करना है. उस दौर में परिसर में राष्ट्रध्वज लगाना और वीरता दीवार बनाना ज़रूरी था. अब राष्ट्रवाद का चोला उतार फेंका गया है और बिना संकोच के हिंदुत्व का प्रचार किया जा रहा है.

दिल्ली यूनिवर्सिटी. (फोटो साभार: विकीपिडिया)

दिल्ली विश्वविद्यालय नई वजह से खबर में है. बीबीसी डॉक्यूमेंट्री को प्रदर्शित करने के आरोप में अपने छात्रों को दंडित करने और कांग्रेस नेता राहुल गांधी के एक हॉस्टल में आने के बाद उन्हें आइंदा ऐसा न करने की चेतावनी देने की खबरों के बाद अब वह अपने पाठ्यक्रमों से भीमराव आंबेडकर, इक़बाल, जाति, नारीवाद आदि को हटाने की कोशिशों के कारण चर्चा में है.

इसे लेकर जो खबरें छप रही हैं, उनसे उस रस्साकशी का पता नहीं चलता जो इन्हें लेकर विश्वविद्यालय अधिकारियों और संबंधित विषयों के विभागों के अध्यापकों के बीच चल रही है. उन्हें पढ़कर आप उस तनाव का अंदाज़ नहीं कर सकते जो अध्यापकगण अपने अपने विषयों की प्रामाणिकता की रक्षा के संघर्ष के कारण झेल रहे हैं. ख़ासकर विभागाध्यक्ष इसके शिकार हैं, अगर वे अपने विषय के प्रति वफ़ादार हैं, प्रशासन या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा के प्रति नहीं.

कुछ निश्चय ही ऐसे हैं जो दोनों में संतुलन साधने की कोशिश करते हैं. उनका तनाव और ज़्यादा है. पाठ्यक्रमों और पाठ्यसामग्री में परिवर्तन के संदर्भ को समझना हमारे लिए आवश्यक है.

यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि दूसरे कई विश्वविद्यालयों की तरह दिल्ली विश्वविद्यालय के अधिकारी अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को विश्वविद्यालय की आधिकारिक विचारधारा बनाने के लिए संस्थान के संसाधनों का इस्तेमाल कर रहे हैं. हाल में विश्वविद्यालय ने एक पंचांग का प्रकाशन किया है. भारतीय काल गणना का यंत्र बतलाकर वह इसे जायज़ ठहराने की कोशिश कर रहा है. लेकिन इसके हर पृष्ठ पर हिंदुओं के आराध्य देवी-देवताओं के चित्रों के साथ हिंदू तिथियों, पर्व, त्योहारों की भीड़ है.

जहां नानकदेव या बुद्ध की तस्वीर दी गई है, उसके दूसरे कोने पर एक हिंदू देवी-देवता की तस्वीर से उसे संतुलित कर दिया गया है. अभी भी विश्वविद्यालय से पूछा जाना चाहिए कि क्या यह हिंदुओं की संस्था है. काल गणना का क्या यही एक तरीक़ा है? अगर विश्वविद्यालय यही तर्क ले रहा है कि यह वैज्ञानिक भारतीय काल गणना की पद्धति है तो इसी भारत में अन्य धार्मिक समुदाय भी हैं जिनकी अपनी काल गणना की पद्धति है. विश्वविद्यालय क्या उनके कैलेंडर भी तैयार करेगा?

कुछ समय पहले तक आरएसएस के प्रचारकों को बुद्धिजीवी, चिंतक कहकर बुलाया जाता था. अब यह संकोच टूट गया है. खुलेआम आरएसएस के प्रचारकों और संगठनकर्ताओं को खुलेआम उनकी संबद्धता बतलाते हुए आधिकारिक तौर पर बुलाया जा रहा है. कई कॉलेजों के अध्यापक बतलाते हैं कि प्रशासन यह इशारा करता है कि उनके कार्यक्रम में हाज़िरी अनिवार्य है.

अध्यापकों को उनके ज्ञान के क्षेत्र में होने वाले अधुनातन शोध से परिचय करवाने के लिए जो कार्यशालाएं की जाती है, उनमें भी इन प्रचारकों को बुलाया जाता है. हाल में प्रशासन ने स्टेडियम में एक बहुत खर्चीला नाटक ‘चाणक्य’ मंचित करवाया. मेरी एक छात्रा उसे देखकर बहुत विचलित हुई. नाटक के दौरान ‘जय श्रीराम’, ‘भारत माता की जय’ के नारे सुनकर उसे भय का अनुभव हुआ. उसे लगने लगा कि वह किसी अजनबी जगह पर बैठी हुई है. वह ख़ुद हिंदू है लेकिन नाटक देखते हुए वह सोचती रही कि यहां किसी मुसलमान या ईसाई या आदिवासी को कैसा लगेगा.

अधिकारी यह कहकर नहीं बच सकते कि इनमें आना, न आना छात्र और अध्यापक की मर्ज़ी पर है. वे विश्वविद्यालय के सार्वजनिक अवसरों को ऐसा नहीं बना सकते जिसमें विश्वविद्यालय समुदाय के सभी सदस्य सुरक्षित और समान न महसूस कर सकें.

इन कार्यक्रमों, आयोजनों के ज़रिये विश्वविद्यालय का वातावरण हिंदुत्वमय बनाया जा रहा है. इस वातावरण में मुसलमान और ईसाई या अन्य धर्मावलंबियों को ही नहीं, मेरी छात्रा जैसे हिंदुओं को भी अजनबीपन का एहसास होगा.विश्वविद्यालय हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार का माध्यम नहीं बनाया जा सकता.

कुछ वक्त पहले तक कहा जा रहा था कि विश्वविद्यालयों को राष्ट्रवादी भावना का प्रसार करना है. उस दौर में परिसर में राष्ट्रध्वज लगाना और वीरता दीवार बनाना ज़रूरी था. अब राष्ट्रवाद का चोला उतार फेंका गया है और बिना संकोच के हिंदुत्व का प्रचार किया जा रहा है. इस क्रम में कुछ विश्वविद्यालय मंदिर बना रहे हैं, औपचारिक अवसरों को घंटे, घड़ियाल, शंख और मंत्रों से पवित्र कर रहे हैं.

यह बात लेकिन आरएसएस को भी मालूम है कि विश्वविद्यालय वास्तव में उसके पाठ्यक्रमों और कक्षाओं में ही बसता है. जब तक उन्हें न बदल दिया जाए, मात्र भाषणों, नाटकों से उसके चरित्र को बदलना मुश्किल है. यह करना इतना सरल भी नहीं है. लेकिन प्रयास किया ही जाता रहता है.

आरएसएस सत्ता में हो न हो, वह धमकी, अदालत, हिंसा के ज़रिये यह करता रहा है. जैसे कोई 11 साल पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की हिंसा, सर्वोच्च न्यायालय में मुक़दमे के ज़रिये दबाव डालकर एके रामानुजन के लेख ‘तीन सौ रामायण’ को हटवा दिया गया था. बीच-बीच में नंदिनी सुंदर, अर्चना कुमार जैसी विदुषियों की किताबों को हटाने का अभियान यह कहकर चलाया गया कि वे माओवाद समर्थक हैं.

अब हम यह सुन रहे हैं कि दर्शन विभाग पर दबाव डाला गया कि वह स्नातक स्तर पर डॉक्टर आंबेडकर पर केंद्रित पर्चे को हटा दे. वह अनिवार्य नहीं, स्वैच्छिक पर्चा है फिर भी उसे यह कहकर हटाने को कहा गया कि सिर्फ़ एक विचारक पर पर्चा कैसे हो सकता है. आंबेडकर के महत्त्व को इस प्रकार कम करने की कोशिश के अर्थ को समझने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि मानवशास्त्र के पाठ्यक्रम में जाति को हटाने का दबाव डाला गया.

भारतीय समाज को बिना जाति को समझे आप कैसे जान सकते हैं? लेकिन आरएसएस जाति के उल्लेख को ही विभाजनकारी मानता है. समरस भारतीय समाज के मिथ को जाति तोड़ देती है इसलिए उसे छात्रों की नज़र से दूर करना आवश्यक है.

उसी प्रकार नारीवाद को अभारतीय विचार माना जाता है जो परिवार नामक संस्था को तोड़ता है. पितृसत्ता जैसी अवधारणा से भी छात्रों को बचाना ज़रूरी है जो भेद पैदा करती है और पुरुषों के ख़िलाफ़ है!

आंबेडकर के पर्चे में हिंदू सामाजिक व्यवस्था कि आलोचना से हिंदू शब्द को हटाया जाना चाहिए और हिंदू नारी के उत्थान और पतन से भी हिंदू शब्द निकाल दिया जाना चाहिए. क्या इसलिए कि इससे हिंदू धर्म की बदनामी होती है? लेकिन आंबेडकर ने आलोचना तो हिंदू सामाजिक व्यवस्था की ही की थी, फिर उन्हें पढ़ते वक्त हिंदू शब्द से कैसे परहेज़ किया जा सकता है?

इक़बाल को हटाना तो आसान है. वे पाकिस्तान के विचार से जुड़े हैं फिर भारतीय छात्र उन्हें क्यों पढ़ें भले ही जन्म और मृत्यु के समय तक वे भारत के ही रहे हों? उन्हें पाकिस्तान को देखने का सौभाग्य तो नहीं मिला और वे पूरी दुनिया के दार्शनिकों के लिए विचारणीय हैं. लेकिन अब दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रशासकों का मानना है कि उनके विचार या दर्शन को जानना हमारे लिए अप्रासंगिक है.

उसी प्रकार राजनीतिक विचारकों में माओ को पढ़ें या नहीं? चीन के बारे में जानना ज़रूरी है या नहीं? अधिकारियों की चले, तो छात्र इनके नाम भी न जान पाएं. अभी कुछ बरस पहले अध्यापकों की एक कार्यशाला में संघ के एक प्रचारक ने सारे अध्यापकों को खड़े होकर चीन, तलाक़, तलाक़, तलाक़ का जाप करने का आदेश दिया. सबने यह किया भी.

भारत में इक़बाल के वकील न मिलें, आंबेडकर संघ की गले की हड्डी हैं. इसलिए जब उन्हें हटाए जाने का तीव्र विरोध हुआ तो तुरत पांव खींच लिए गए. लेकिन कहा गया कि औरों पर भी पर्चा दीजिए. लेकिन पेरियार का नाम भी असुविधाजनक था. विवेकानंद तो अपने जान पड़ते हैं लेकिन अगर उन्हें भी क़ायदे से पढ़ाया जाए तो संघ उलझ जाएगा क्योंकि वे संघ विरोधी विचारक जान पड़ेंगे.

आरएसएस जिसे असुविधाजनक मानता है, वैसे हर दार्शनिक या प्रसंग को हटा देने से वह छात्र के दिमाग़ को बेकार के फ़ितूर से बचा पाएगा, यह हमारे विश्वविद्यालयों के प्रशासकों का मानना है जो अभी भारतीय करदाता के पैसे पर उत्साहपूर्वक संघ के प्रचारक या संगठनकर्ता का काम कर रहे हैं.

इसके अलावा स्नातक स्तर पर ही आरंभिक सत्र में मूल्य वृद्धि के नाम पर आयुर्वेद और पोषण, पंचकोश, स्वच्छ भारत, प्रसन्न रहने की कला, फिट इंडिया, वैदिक गणित, नीति और संस्कृति, प्राचीन भारत में नीति और मूल्य जैसे पर्चे शामिल किए जा रहे हैं. इनके साथ संवैधानिक मूल्य और मूल कर्तव्य या भावनात्मक प्रतिभा या नेशनल कैडेट कोर या विज्ञान और समाज जैसे पर्चे भी हैं.

अंग्रेज़ी में भारतीय साहित्य है जिसमें बंकिमचंद्र के आंनद मठ को पढ़ना है और ख़ासकर वंदेमातरम कविता नामक गीत भी. लेकिन क्या उसे आलोचनात्मक तरीक़े से पढ़ा जाना संभव होगा? उत्तर हमें मालूम है. आयुर्वेद और पोषण में छात्रों को सात्विक, तामसिक भोजन की पहचान करनी है. जंबू द्वीप, आर्यावर्त, भारत वर्ष की चर्चा करनी है. नैतिकता आदि के लिए उसे पुराणों से शिक्षा लेनी है.

बौद्ध जैन और श्रमण परंपराओं की तो चर्चा है लेकिन जान पड़ता है कि इस्लाम हो या ईसाई या सिख धर्म, किसी के पास नैतिक मूल्य या नैतिक जीवन के बारे में बतलाने को कुछ नहीं. न हमारी आदिवासी परंपराओं में. या शायद उन्हें धर्म जैसा उच्च पद नहीं दिया जा सकता.

यह हमारे प्रशासक नहीं जानते कि इन सबको आलोचनात्मक तरीक़े से पढ़ा और पढ़ाया जा सकता है. इनके साथ आपको आरएसएस के प्रचारकों को अध्यापक के तौर पर लाना होगा ताकि वे छात्रों को इनके माध्यम से संघ की हिंदुत्ववादी विचारधारा में दीक्षित कर सकें. इसलिए अभी तेज़ी से बड़ी संख्या में अध्यापकों की बहाली की जा रही है. बतलाया जाता है कि ज़्यादातर नियुक्तियां संघ की सिफ़ारिश पर की जा रही हैं.

यहां भी दिक़्क़त यह है कि इनमें सब पक्के संघी नहीं हैं. क्या उनमें पढ़ाते समय संघ के प्रचारक की प्रतिबद्धता होगी? या ख़ुद उन्होंने जैसे ज्ञानार्जन किया है, वह ख़ुद ज्ञान के प्रति उनके कर्तव्य की उन्हें याद दिलाते रहेगा? माना जा रहा है कि जब हिंदुत्ववादी अध्यापकों की संख्या पर्याप्त हो जाएगी तो हर कक्षा को शाखा के बौद्धिक की तरह ही संचालित किया जा सकेगा. पुराने अध्यापक सेवानिवृत्त हो चुके होंगे या किनारे कर दिए जाएंगे.

जो भी हो, यह तो तय है कि प्रायः हर जगह, जितना संभव है, विश्वविद्यालय प्रशासन प्रयास कर रहा है कि पाठ्यक्रम को हिंदुत्व के अनुसार ढाला जाए. परेशानी यह है कि उसके लिए उनके पास पर्याप्त सामग्री भी नहीं है. न इतिहासकार हैं, न समाजशास्त्री, न मनोवैज्ञानिक. इसकी भरपाई कैसे की जाए? एक काम यह किया जाता है कि अभी जो स्वीकृत विद्वान हैं, उन्हें बदनाम किया जाए.

मेरी कक्षा में आर्य शब्द पर चर्चा के क्रम में मैंने विद्यार्थियों को रोमिला थापर को पढ़ने को कहा. उन्होंने बतलाया कि एक अध्यापक ने कहा कि रोमिला थापर तो इतिहासकार ही नहीं हैं. वे सिर्फ़ अपने मंतव्य लिखती हैं. मैं इन्हीं छात्रों को रोमिला को पढ़ने को कह रहा था! छात्र इतने सुजान हैं कि जानते हैं, किस पर भरोसा करें लेकिन उनके दिमाग़ में ज्ञान की दुनिया में स्वीकृत ज्ञान के प्रति संदेह या उलझन पैदा तो की ही जा रही है.

यह सब कुछ दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे सार्वजनिक शिक्षा संस्थान में किया जा रहा है. अशोका, जिंदल या क्रिया जैसे विश्वविद्यालय तो इन अहमकपन से बचे हुए हैं. जो विदेशी विश्वविद्यालय यहां आएंगे, वे भी यह पाठ्यक्रम नहीं पढ़ाएंगे. तो दिल्ली विश्वविद्यालय या जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय हिंदुत्व के प्रशिक्षण केंद्र में शेष हो जाएंगे और ये विशिष्ट विश्वविद्यालय ज्ञान की अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में भारत के प्रतिनिधि होंगे. भारत का साधारण जन इनमें से कहां होगा, क्या यह बतलाना इतना मुश्किल है?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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