गुजरात विधानसभा चुनाव: ‘नर्मदा ज़िले में आईसीयू नहीं, लेकिन बन रही दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति’

ग्राउंड रिपोर्ट: आदिवासी ज़िले नर्मदा में ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ के निर्माण का काम ज़ोर-शोर से चल रहा है लेकिन इस पूरे ज़िले ​के किसी भी अस्पताल में आईसीयू की व्यवस्था नहीं है.

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(फोटो साभार: ट्विटर/पीटीआई)

ग्राउंड रिपोर्ट: आदिवासी ज़िले नर्मदा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी परियोजना ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ के निर्माण का काम ज़ोर-शोर से चल रहा है लेकिन इस पूरे ज़िले में किसी भी अस्पताल में आईसीयू की व्यवस्था नहीं है.

(फोटो साभार: ट्विटर/पीटीआई)
(फोटो साभार: ट्विटर/पीटीआई)

राजपीपला/गुजरात: ‘नर्मदा ज़िले में 80 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है. यहां की ज़्यादातर महिलाओं में खून की कमी की समस्या होती है. ऐसे में जब ये महिलाएं गर्भवती होती हैं तो उन्हें दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. यहां ब्लड बैंक है लेकिन कई बार खून उपलब्ध नहीं होता है. कई बार डिलिवरी के वक़्त ज़्यादा खून बहने से माताएं कोमा में चली जाती हैं. ऐसी स्थिति में उन्हें इंटेंसिव केयर यूनिट यानी आईसीयू में भर्ती करना होता है लेकिन पूरे नर्मदा ज़िले में सरकारी ज़िला अस्पताल होने के बावजूद आईसीयू की व्यवस्था नहीं है. ऐसे में मरीज को वडोदरा, भरूच या दूसरे ज़िलों में भेजना पड़ता है. कई बार इस चक्कर में उनकी मौत हो जाती है.’

यह कहना है नर्मदा के ज़िला मुख्यालय राजपीपला में 20 बिस्तरों वाला एक निजी अस्पताल चलाने वाले डॉ. शांतिकर वसावा का. सरदार सरोवर बांध के नज़दीक बन रही सरदार पटेल की विशालकाय प्रतिमा ‘स्टैच्यू आॅफ यूनिटी’ से राजपीपला की दूरी महज़ 30 किलोमीटर होगी.

जब हम इस बांध के किनारे पहुंचे तो स्टैच्यू आॅफ यूनिटी के निर्माण का काम जोर-शोर से चल रहा था लेकिन बिना आईसीयू के सहारे करीब 60 लाख की जनसंख्या वाले नर्मदा ज़िले की स्वास्थ्य व्यवस्था बदहाली के नए मानक का निर्माण कर रही थी.

इस साल जून में एक कार्यक्रम के दौरान गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने सिकल सेल एनीमिया के मरीज़ों के लिए पेशन और थैलेसीमिया व हीमोफीलिया के मरीज़ों को मुफ्त में दवाएं देने की घोषणा की. (फोटो साभार: ट्विटर/सीएमओ गुजरात)
इस साल जून में एक कार्यक्रम के दौरान गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने सिकल सेल एनीमिया के मरीज़ों के लिए पेंशन और थैलेसीमिया व हीमोफीलिया के मरीज़ों को मुफ्त में दवाएं देने की घोषणा की. (फोटो साभार: ट्विटर/सीएमओ गुजरात)

डॉ. शांतिकर वसावा कहते हैं, ‘आदिवासी जंगल, खेती और बारिश के पानी पर निर्भर होते हैं लेकिन अब जंगल कम हो रहा है, बारिश सही से नहीं हो रही है. इस कारण बड़ी संख्या में उनका विस्थापन हो रहा है. यहां ‘सिकल सेल एनीमिया’ की समस्या बहुत ज़्यादा है. यह एक जेनेटिक रोग है. यह पिता से बच्चों में आता है. अभी बड़ी संख्या में बच्चे इसकी चपेट में हैं.’

वे कहते हैं, ‘ज़िले में सिकल सेल एनीमिया के अलग से किसी अस्पताल की कोई व्यवस्था नहीं है. इसके रोकथाम के लिए तमाम तरह का सरकारी अनुदान भी मिलता है, लेकिन वह कहां जाती है इसका हमें पता नहीं है. जब भी हमारे यहां कोई मरीज़ आता है तो हमें सिकल सेल एनीमिया के लिए ज़रूरी जांच करानी पड़ती है. सरकारी अनुदान से हुआ टेस्ट ज़्यादातर लोगों के पास नहीं होता है.’

यह आम तौर पर आदिवासियों को होने वाली बीमारी है. इसमें शरीर में दरांती (हंसुवा) के आकार जैसी अर्थात अर्द्धचंद्राकार लाल रक्त कणिकाएं (रेड ब्‍लड सेल्‍स) विकसित होने लगती है. सामान्य लाल रक्त कणिकाएं डिस्क के आकार की होती हैं और केंद्र में बिना छिद्रों के छल्ले जैसी दिखाई देती हैं. वे रक्त वाहिकाओं में सुगमता से संचार करती हैं.

लाल रक्त कणिकाओं में आयरन और प्रोटीन होता है जिसे हीमोग्लोबिन कहा जाता है. यह प्रोटीन ऑक्सीजन को फेफड़ों से शेष शरीर में पहुंचाता है.

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विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा बनाने का काम प्रगति पर है. (फोटो साभार: अमित सिंह/द वायर)

सिकल सेल होने के बाद लाल रक्‍त कणिकाओं में हीमोग्‍लोबिन वहन करने की क्षमता समाप्‍त हो जाती है. इससे रक्‍त की कमी के लक्षण परिलक्षित होने लगो है और अंतत: व्‍यक्ति की मौत भी हो जाती है. आदिवासी महिलाओं में यह बीमारी ज़्यादा देखने को मिलती है.

गुजरात के आदिवासी ज़िलों- नर्मदा, छोटा उदयपुर, तापी, डांग, बनासकांठा आदि में बड़ी संख्या में आदिवासी इस रोग की चपेट में है.

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के मुताबिक गुजरात के इन इलाकों में करीब 9,00,000 लोगों में सिकल सेल एनीमिया के लक्षण और 70,000 के करीब मरीज़ हैं.

वहीं इंडियन काउंसिल आॅफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के एक सर्वेक्षण के अनुसार आदिवासी जनजाति कोलछा, कोटवाड़िया और कठौड़ी समुदाय के सिकल सेल एनीमिया से प्रभावित 30 प्रतिशत बच्चे 14 साल की उम्र से पहले मर जाते हैं और बाकी 70 प्रतिशत लोग 50 साल की उम्र तक ही जीवित रह पाते हैं.

2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद अपने जापान दौरे में नरेंद्र मोदी ने सिकल सेल एनीमिया बीमारी का उपचार ढूंढने के लिए जापान की मदद भी मांगी थी.

मोदी ने स्टेम सेल अनुंसधान केंद्र के दौरे में इस मुद्दे को उठाया. उन्होंने क्योटो यूनिवर्सिटी के दौरे में इस मुद्दे पर औषधि क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार विजेता (2012) एस. यामानका से चर्चा की.

मोदी ने उस समय कहा था, ‘मैं स्टेम सेल अनुसंधान को समझना चाहता था क्योंकि मेरे लिए सांस्कृतिक विरासत उतनी ही मायने रखती है जितनी की वैज्ञानिक विरासत. मैं भारत को एक विकसित देश बनाने के लिए इन दोनों के बीच समन्वय स्थापित करना चाहता हूं. यह मेरे लिए एक अच्छा अवसर है.’

इस यात्रा के बाद यह ख़बर भी आई थी कि जापान सिकल सेल एनीमिया का उपचार ढूंढने में भारत की मदद को तैयार हो गया था.

भारत में सिकल सेल रोग मुख्य रूप से छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, ओडिशा, झारखंड, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल, कर्नाटक एवं पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में भी पाया जाता है.

इससे पहले 2006 में जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब राज्य के पांच ज़िलों में पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत सिकल सेल एनीमिया कंट्रोल प्रोग्राम (एससीएसीपी) की शुरुआत की गई थी.

(साल 2013 में स्टैच्यू आॅफ यूनिटी के शिलान्यास समारोह को संबोधित करते नरेंद्र मोदी. फोटो साभार: narendramodi.in)
(साल 2013 में स्टैच्यू आॅफ यूनिटी के शिलान्यास समारोह को संबोधित करते नरेंद्र मोदी. फोटो साभार: narendramodi.in)

इसके बाद 2011 में विभिन्न विभागों में बेहतर तालमेल के लिए गुजरात सिकल सेल एनीमिया कंट्रोल सोसाइटी की स्थापना की गई. फिर 2012 में पांच वर्षीय स्क्रीनिंग कैंपेन की शुरुआत की गई थी.

गुजरात सरकार के आंकड़ों के मुताबिक इस कार्यक्रम के तहत 55,10,494 आदिवासियों का परीक्षण किया गया इसमें से 5,20,770 में सिकल सेल एनीमिया के लक्षण पाए गए जबकि 29,584 इस रोग से ग्रस्त थे.

सिकल सेल एनीमिया रोग को लेकर गुजरात के भरूच ज़िले में लंबे समय से काम कर रहे डॉ. डेक्स्टर पटेल ने इस पर द वायर से विस्तार से चर्चा की.

डॉ. पटेल ने 2013 में सिकल सेल अवेयरनेस मिशन की शुरुआत की. उन्होंने बताया इस मिशन से करीब 200 डॉक्टर जुड़े हुए हैं जो आदिवासी इलाकों में कैंप लगाकर इस रोग के बारे में जागरूकता पैदा करते हैं.

डॉ. पटेल ने बताया कि सिकल सेल एनीमिया के लिए आदिवासियों को तीन तरह के कार्ड दिए जाते हैं. सफेद कार्ड उन्हें जिनका टेस्ट नेगेटिव होता है, सफेद और पीला कार्ड जिनमें इस रोग के होने की संभावना होती है और पीला कार्ड उन्हें दिया जाता है जो इस रोग से प्रभावित होते हैं.

लेकिन सरकारी एजेंसियों द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रम में बड़ी संख्या में आदिवासियों को यह कार्ड मुहैया नहीं कराया जा सका है.

वो आगे कहते हैं, ‘इस रोग की पहचान के लिए सॉफ्टवेयर टेस्टिंग लाइफ साइकेल (एसटीएलसी) की ज़रूरत होती है लेकिन नर्मदा और भरूच के सिविल अस्पतालों में कोई एसटीएलसी मशीन नहीं हैं. इसके लिए नवसारी, वलसाड और बारडोली जाना होता है.’

सिकल सेल एनीमिया पर ज़्यादा चर्चा न होने से डॉ. पटेल नाराज़ दिखाई दिए. उन्होंने कहा कि डेंगू, स्वाइन फ्लू जैसे शहरी इलाकों में होने वाले रोगों पर जितनी चर्चा होती है उसकी अगर आधी भी सिकल सेल को लेकर हो जाए तो बड़ी संख्या में आदिवासियों की जान बचाई जा सकती है. इस रोग के चलते ज़्यादातर आदिवासियों की जीवन प्रत्याशा बस 35 से 40 वर्ष है.

डॉ. पटेल कहते हैं कि आप नर्मदा ज़िले के ही डेडियापाड़ा, सबडारा, राजपीपला या सरदार सरोवर बांध के बगल में स्थित केवाड़िया गांव में जाएं और सिकल सेल एनीमिया रोग का परीक्षण करना शुरू करें. आप पाएंगे कि बड़ी संख्या में बच्चे इसकी चपेट में होंगे. आदिवासी समाज में बच्चे पैदा होने के साथ ही इस भयावह रोग के शिकार होते हैं.

वहीं, नर्मदा ज़िले के सिविल अस्पताल में काम करने वाली डॉ. केजी मेनेट का कहना था, ‘अस्पताल में स्टॉफ की बहुत दिक्कत है. हमारे यहां आईसीयू तो छोड़िए एक अच्छा फीजिशियन उपलब्ध नहीं होता है. सर्दियों के मौसम में इसके मरीज़ बढ़ जाते हैं. हम किसी तरह से सभी का उपचार करने की कोशिश करते हैं.’

फिलहाल नर्मदा ज़िले या पूरे आदिवासी बेल्ट में चुनावी मौसम में इस रोग की उतनी चर्चा नहीं हो रही है जितनी होनी चाहिए.

प्रदेश में विपक्षी दल कांग्रेस भी इस रोग को उतना बड़ा मुद्दा नहीं मान रहा है जितना भयावह यहां की तस्वीर दिखती है. जबकि प्रदेश में आदिवासियों के लिए आरक्षित 27 सीटों में 16 में उसे विजय प्राप्त है.