गुजरात विधानसभा चुनाव: आदिवासी ज़िले तापी में मोदी के विकास का साइड इफेक्ट दिखता है

ग्राउंड रिपोर्ट: ज़िले के विभिन्न गांवों में रहने वाले आदिवासियों का कहना है कि उनकी ज़िंदगियों से विकास कोसों दूर है.

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गुजरात के तापी ज़िले के लिम्बी गांव के आदिवासी उकाई बांध की वजह से विस्थापित हुए. आज इनके पास अपनी ज़मीन भी नहीं है. (फोटो: अमित सिंह/द वायर)

ग्राउंड रिपोर्ट: ज़िले के विभिन्न गांवों में रहने वाले आदिवासियों का कहना है कि उनकी ज़िंदगियों से विकास कोसों दूर है.

गुजरात के तापी ज़िले के लिम्बी गांव के आदिवासी उकाई बांध की वजह से विस्थापित हुए. आज इनके पास अपनी ज़मीन भी नहीं है. (फोटो: अमित सिंह/द वायर)
गुजरात के तापी ज़िले के लिम्बी गांव के आदिवासी उकाई बांध की वजह से विस्थापित हुए. आज इनके पास अपनी ज़मीन भी नहीं है. (फोटो: अमित सिंह/द वायर)

व्यारा/तापी: गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियां प्रदेश के विकास का श्रेय ख़ुद को दे रही हैं. भाजपा जहां ‘हो छूं विकास, हो छूं गुजरात’ (मैं हूं विकास, मैं हूं गुजरात) के नारे के सहारे एक बार फिर सत्ता पर बैठना चाहती है. वहीं, कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि गुजरात के विकास की नींव उनकी पार्टी के नेताओं के शासनकाल में रखी गई थी.

लेकिन इन सबसे अलग गुजरात का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो ‘विकास’ की इस परिभाषा से इत्तेफाक नहीं रखता है. उसका मानना है सड़क और बिजली का विकास करके सरकारें बस उनके संसाधनों को लूटना चाहती हैं. गुजरात में यह वर्ग आदिवासियों का है.

प्रदेश के कुल मतदाताओं में आदिवासी लगभग 15 फीसदी हैं. 2011 की जनगणना के मुताबिक, गुजरात में अनुसूचित जनजातियों (एसटी) की जनसंख्या 89,17,174 थी. प्रदेश में कुल 27 अनुसूचित जनजातीय (एसटी) सीटें हैं. वर्तमान में इसमें से 16 सीटों पर कांग्रेस का कब्ज़ा है.

व्यारा में रहने वाले आदिवासी किसान संघर्ष मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रोमिल सुतरिया कहते हैं, ‘आदिवासी बाहुल्य तापी ज़िले की बात करें तो यहां खनन, विस्थापन, वनाधिकार, चिटफंड घोटाला और फ़र्ज़ी जाति प्रमाण पत्र प्रमुख चुनावी मुद्दे हैं. लेकिन इन मुद्दों पर कभी चर्चा नहीं होती है. जिस तरह से आदिवासियों को हाशिये पर धकेल दिया गया है, उसी तरह से उनके मुद्दे कभी भी बड़े स्तर पर चर्चा नहीं होती है.’

सुतरिया के अनुसार, ‘इसकेे लिए जितना यहां पर राज करने वाली भाजपा सरकार ज़िम्मेदार है उतना ही विपक्ष में बैठी कांग्रेस पार्टी. कांग्रेस को आदिवासियों के वोट तो मिले लेकिन कभी उसने इनके मुद्दों को उस ढंग से उठाया नहीं जिस ढंग से उठाना चाहिए.’

वे आगे कहते हैं, ‘जहां तक बात विकास की है तो मैं सबसे पहले इसकी परिभाषा पर जाना चाहूंगा. आपके लिए विकास का मतलब क्या है. क्या आप सिर्फ इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास करना चाहते हैं या फिर यहां रहने वाले लोगों का. अगर आप इंफ्रास्ट्रक्चर की बात करते हैं तो यहां विकास हुआ है लेकिन अगर यहां रहने वाले आदिवासियों के जीवन स्तर, उनके स्वास्थ्य, उनकी शिक्षा पर बात करना चाहते हैं तो अभी विकास कोसों दूर है.’

सुतरिया कहते हैं कि अभी आदिवासियों में फ़र्ज़ी जाति प्रमाण पत्र दिए जाने को लेकर काफी आक्रोश है. दरअसल गुजरात के गिर के जंगलों में रहने वाले रब्बारी व भरवार समुदाय के लोगों को तथाकथित फ़र्ज़ी अनुसूचित जनजाति प्रमाण पत्र दो सरकारी प्रस्तावों के आधार पर बांटे गए हैं. पहला सरकारी प्रस्ताव साल 2007 में पारित हुआ था जबकि दूसरा प्रस्ताव साल 2017 में वजूद में आया.

इससे पहले 1956 में इस इलाके के स्थानीय लोगों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया था लेकिन नए प्रस्ताव से कुछ ऐसे लोग भी अनुसूचित जनजाति का दर्जा पा रहे हैं जिनके वशंज जंगलों में नहीं रहते हैं. ऐसे में फ़र्ज़ी जाति प्रमाण पत्र अहम भूमिका निभा रहे हैं. पढ़े-लिखे आदिवासी इससे बहुत आहत हैं और इसे अपने अधिकारों पर हमला मान रहे हैं.

फिलहाल आदिवासी ज़िले तापी में विकास के हालात और लोगों की समस्याओं को जानने के लिए द वायर ने कई गांवों का दौरा किया. इसमें कुछ अलग तो कुछ एक जैसी समस्याएं दिखीं.

आदिवासियों को चिटफंड कंपनियों ने लूटा

तापी ज़िले में ऐसे कई गांव हैं जिन्हें 1972 में उकाई बांध बनने के दौरान विस्थापन झेलना पड़ा है. इन गांवों में ज़्यादातर आदिवासियों की आबादी रहती है. एक बार विस्थापन का कहर झेलने के बाद अब आदिवासियों को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है. इसमें से एक समस्या चिटफंट कंपनियों की लूट का है.

गुजरात के तापी ज़िले के सेलुड गांव के आदिवासियों के बचत का पैसा एक चिटफंड कंपनी जमाकर फ़रार हो गई. चिटफंड कंपनी की ओर से दिया गया कार्ड दिखाते आदिवासी. (फोटो: अमित सिंह/द वायर)
गुजरात के तापी ज़िले के सेलुड गांव के आदिवासियों के बचत का पैसा एक चिटफंड कंपनी जमाकर फ़रार हो गई. चिटफंड कंपनी की ओर से दिया गया कार्ड दिखाते आदिवासी. (फोटो: अमित सिंह/द वायर)

जिले के सेलुड गांव में जब द वायर की टीम पहुंची तो बड़ी संख्या में लोग चिटफंड कंपनियों द्वारा दिए गए कागज़ात लेकर अपनी व्यथा बताने चले आए.

सेलुड के रहने वाले रमेश भाई गामित कहते हैं, ‘हमारे गांव के लोग कम पढ़े-लिखे हैं. यहां पर चिटफंड कंपनियों के लोग आए और दो से तीन साल तक पैसा जमाकर लूट कर फ़रार हो गए हैं. यह हमारे लिए दोहरा झटका है. इससे पहले हमें विस्थापन का कहर झेलना पड़ा था. अब जो थोड़ा-बहुत गांव के लोग कमाते थे, जो बचा सकते थे. वह भी चिटफंड कंपनी वाले लूट ले गए लेकिन सरकार के तरफ से हमारी कोई सुनवाई नहीं हुई.’

रमेश भाई के पास कोई काम नहीं है. वह मज़दूरी करने के लिए सूरत जाते हैं. हमारी मुलाकात इसी गांव की सपीरा से हुई. करीब 40 वर्षीय सपीरा के दो बच्चे हैं. वह दोनों को स्कूल भेजती हैं लेकिन ख़ुद स्कूल नहीं जा पाई हैं.

सपीरा कहती हैं, ‘ख़ुद तो पढ़ नहीं पाई बस बच्चों की ढंग से पढ़ाई-लिखाई हो जाए इसीलिए पैसा जुटा रहे थे लेकिन चिटफंड कंपनी वाले वह भी लूटकर भाग गए. बैंक में जाने पर लाइन लगानी पड़ती है. किसी पढ़े-लिखे को लेकर जाना होता था. इसलिए साथ नहीं जाते थे. चिटफंड वाले घर आकर पैसा ले जाते थे. कागज़ दे गए थे जिस पर लिख भी जाते थे लेकिन अब कोई नहीं आ रहा है. चुनाव में वोट मांगने नेता जी आए थे हमने कहा पैसा दिलाइए तभी वोट देंगे. वो हां-हां कहकर चले गए.’

आदिवासियों के पास ज़मीन का अधिकार नहीं

कुछ इसी तरह का हाल उकाई बांध के दूसरे छोर पर बसे लिम्बी गांव का है. आदिवासी बाहुल्य इस गांव में जाने के लिए सड़क नहीं है.

इस गांव के सुरेश भाई रेशम भाई वसावा कहते हैं, ‘यह गांव जंगल विभाग और सरकार के बीच फंसा हुआ है. हम विस्थापित लोग हैं. हमारी खेती वाली ज़मीन उकाई बांध में चली गई. अब गांव में किसी के पास ज़मीन नहीं है. अगर कोई बीमार होता है तो सरकारी एंबुलेंस गांव तक नहीं आ पाता है. हमें बीमार व्यक्ति को खाट पर लादकर सड़क तक ले जाना होता है. पूरे गांव में 300-400 परिवार है. ज़्यादातर लोग वन विभाग की ज़मीन पर खेती करते हैं. फॉरेस्ट राइट एक्ट, 2005 बनने के बाद से वन विभाग वाले तो कम परेशान करते हैं लेकिन ज़मीन किसी के पास नहीं है.’

वे आगेे कहते हैं, ‘हमें तकलीफ इसी बात की है कि हम जिस ज़मीन पर रहते हैं, खेती करते हैं, उसी पर हमारा अधिकार नहीं है. सरकार किसी भी दिन हमें यहां से भी उजाड़ सकती है. एक बार हमारा विस्थापन हो चुका है. यह सिर्फ इसी गांव की कहानी नहीं है. ऐसे 40 से 50 गांव और हैं. हम इसकी मांग को लेकर कई बार प्रदर्शन कर चुके हैं लेकिन कहीं सुनवाई नहीं होती है. हमारे यहां विधानसभा चुनाव के दौरान जितने भी नेता आ रहे हैं हम सबसे अपने ज़मीन का अधिकार पत्र दिलाने की मांग कर रहे हैैं अभी सब हामी भर रहे हैं लेकिन बाद में सभी भूल जाएंगे.’

कुछ ऐसा ही कहना इस गांव के अमर सिंह, रेशमा, सुनीता बेन, सरला बेन आदि का था.

हालांकि वहीं जब हम सरकार द्वारा आदिवासियों के लिए गए कार्यों को देखें तो इस साल जनवरी में मुख्यमंत्री विजय रूपानी ने नियम-2017 के तहत 4,503 ग्राम सभाओं में पेसा यानी पंचायत एक्सटेंशन टू शेड्यूल्ड एरियाज़ एक्ट लागू करने का ऐलान किया था.

इसका मकसद आदिवासी ग्राम सभाओं को मज़बूत बनाना था. सरकार का कहना है कि पेसा एक्ट से आदिवासियों की क़र्ज़ और ब्याज संबंधी समस्याओं का हल निकल सकेगा. इससे उन्हें महाजनों के मायाजाल से भी मुक्ति मिलेगी.

इस कानून के बारे में प्रेस कांफ्रेंस करने के दौरान रूपाणी ने आदिवासियों के लिए किए जा रहे अनेक दूसरे कार्यों की भी चर्चा की. उन्होंने कहा कि सिकल सेल एनीमिया के लिए मुफ्त इलाज, दूरस्थ इलाकों केे स्कूलों में शिक्षकोें और खाने-पीने की सही व्यवस्था सरकार की प्राथमिकता में हैं. उन्होंने कहा कि इन आदिवासी इलाकों के लिए 4800 करोड़ रुपये के पीने के पानी और सिंचाई की परियोजना भी चल रही है.

उकाई बांध. (फोटो साभार: india-wris.nrsc.gov.in)
उकाई बांध. (फोटो साभार: india-wris.nrsc.gov.in)

हालांकि बहुत सारे पढ़े-लिखे आदिवासी पेसा एक्ट यानी आदिवासी पंचायतों के अधिकार के दावे को ख़ारिज करते हैं. सामाजिक कार्यकर्ता थॉमस भाई गावित कहतेे हैं कि पेसा एक्ट पर गौर करने पर हम पाते हैं कि इसमें ग्राम सभाओं के लिए किसी भी तरह की वास्तविक शक्ति छोड़ी ही नहीं गई हैं. पेसा कानून साल 1996 में भूरिया कमेटी की सिफारिशों के आधार पर पारित किया गया था. यह एक्ट उन क्षेत्रों की ग्राम सभाओं को शक्ति देने के लिए तैयार किया गया था, जो संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत आते हैं.

दरअसल संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत राज्यपाल के पास संसद और राज्य विधानसभा द्वारा पारित कानूनों को अपनाने और उनके प्रयोग की शक्तियां होती हैं. संविधान की पांचवीं अनुसूची कहती है कि जनजातीय बाहुल्य क्षेत्रों के गांवों और कस्बों का संचालन करने के लिए पंचायती राज एक्ट और नगरपालिका एक्ट के तहत अलग-अलग कानून हैं.

पेसा एक्ट को लागू करने के लिए एक आदिवासी सलाहकार समिति की ज़रूरत है लेकिन गुजरात में बीते छह साल में इस समिति की केवल दो ही बैठकें हुईं हैं. इसके अलावा 2017 के पेसा का स्वरूप 1996 के मूल क़ानून से बिल्कुल अलग है.

यहां के एक बुज़ुर्ग कांता भाई नंददिया से जब इलाके के विकास संबंधी सवाल पूछ रहा था तो उन्होंने कहा, ‘हम आपसे अपनी ज़मीन, अपने जंगल और अपनी नदियां मांग रहे हैं, जीने, रहने और खाने का अधिकार मांग रहे हैं और आप हमें विकास दे रहे हैं. वह विकास जिसमें हम मज़दूर बन जाएंगे और अपने समाज से दूर हो जाएंगे.’

कुछ ऐसा ही कहना व्यारा में मिले आदिवासी कार्यकर्ता सुकमा तड़वी का था, जिनका कहना था कि आदिवासी ज़िलों में आपको मोदी के विकास का साइड इफेक्ट दिखेगा. हमें अच्छी सड़क और भरपूर प्राकृतिक संसाधनों की कीमत चुकानी पड़ रही है. हमें विकास की कीमत चुकानी पड़ रही है.

फिलहाल इस बात की संभावना कम ही है कि कभी राजनीतिक दल के प्रतिनिधि उनकी बातों, उनकी समस्याओं को सुनेंगे और उनके तरीके से विकास की बात करेंगे. अभी फिलहाल चुनाव की बहार में शायद उनकी छोटी-मोटी समस्याएं दूर हो जाएं और इस नाम पर नेता उनके वोट ले जाएं. भाजपा और कांग्रेस दोनों से बेचैन आदिवासियों के सामने अभी कोई मजबूत विकल्प नहीं है.

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