नई दिल्ली: भारत–कनाडा राजनयिक संबंध अपने सबसे बुरे दौर में है. भारत के अनुसार कनाडा अपनी धरती पर चल रही खालिस्तानी गतिविधियों को अनदेखा करता आ रहा है, जबकि कनाडा को लगता है कि भारत उसके आंतरिक मामलों में दखल दे रहा है.
इस विवाद की पृष्ठभूमि में 1940 के दशक में शुरू हुआ एक आंदोलन है, जो 1980 के दशक में चरम पर था. इस खालिस्तान आंदोलन का उद्देश्य धर्म के आधार पर अलग सिख राष्ट्र बनाना है. लेकिन भारत में अपना आधार खो चुका यह आंदोलन विदेशी धरती पर अब भी क्यों सक्रिय है? लेकिन उससे पहले इतिहास.
क्या है खालिस्तान आंदोलन का इतिहास?
खालिस्तान आंदोलन की शुरुआत 1940 के दशक में हुई, जब कुछ सिख नेताओं ने भारत के विभाजन के दौरान एक अलग सिख राष्ट्र की मांग की. उस राष्ट्र को ‘खालिस्तान’ कहा जाता. बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, मुस्लिम लीग के लाहौर घोषणापत्र के जवाब में डॉक्टर वीर सिंह भट्टी ने एक पैम्फ़लेट निकाला था.
हालांकि, उस समय यह मांग उतनी प्रभावशाली नहीं थी और विभाजन के बाद सिख समुदाय भारत में ही रह गया. (2011 की जनगणना के मुताबिक़, भारत में सिखों की संख्या 2.08 करोड़ है, इस तरह वह देश की जनसंख्या का 1.7 प्रतिशत हैं.)
लेकिन पंजाब, भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजित हो गया. महाराजा रणजीत सिंह के महान सिख साम्राज्य की राजधानी लाहौर पाकिस्तान में चली गई, साथ ही सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक की जन्मस्थली ननकाना साहिब सहित कई पवित्र सिख स्थल भी पाकिस्तान के हिस्से में चले गए.
यही वजह है कि खालिस्तान समर्थकों में संप्रभु सिख राष्ट्र की भौगोलिक सीमाओं को लेकर मतभेद रहता है. ऐतिहासिक पंजाब, भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग में स्थित है और इसमें आधुनिक पूर्वी पाकिस्तान और उत्तर–पश्चिमी भारत के क्षेत्र शामिल है. इसमें भारत के लुधियाना, अमृतसर, चंडीगढ़ और जालंधर जैसे शहर शामिल हैं; और पाकिस्तान के लाहौर, फ़ैसलाबाद, ननकाना साहिब, रावलपिंडी और मुल्तान जैसे शहर शामिल हैं.
हालांकि खालिस्तान आंदोलन कभी भी पाकिस्तान वाले इलाकों में सक्रिय नहीं रहा. वहीं भारत एक वक्त पर इस आंदोलन के कारण बहुत अस्थिर रहा. इसी आंदोलन के कारण प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जान तक चली गई.
भारत में खालिस्तान आंदोलन का चरम
विभाजन के वक्त दब गया खालिस्तान आंदोलन 1970 और 1980 के दशक में फिर से तेज़ हुआ. 1980 के दशक में सिख नेता जरनैल सिंह भिंडरावाले ने इस आंदोलन को नेतृत्व दिया. भिंडरावाले का मानना था कि सिखों के साथ भेदभाव किया जा रहा है और उन्हें अपनी धार्मिक और राजनीतिक पहचान बनाए रखने के लिए एक स्वतंत्र राष्ट्र की आवश्यकता है.
हालांकि, द वायर हिंदी से बातचीत में द कारवां पत्रिका के कार्यकारी संपादक हरतोष सिंह बल ने कहा कि ‘खालिस्तान की मांग भिंडरावाले ने नहीं की थी. भिंडरावाले की मौत के बाद पंथक कमेटी ने यह मांग की थी. वह उग्रवाद का दौर था.’
भिंडरावाले की पहचान एक करिश्माई उपदेशक की थी. कुछ लोगों का दावा है कि इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी ने कांग्रेस को राजनीतिक लाभ दिलाने और अकालियों समाने चुनौती खड़ी करने के लिए भिंडरावाले को आगे बढ़ाया था. हालांकि, 1980 के दशक तक भिंडरावाले की लोकप्रियता इतनी बढ़ गई थी कि वह सरकार के लिए ही परेशानी बनने लगा.
और जल्द ही पंजाब में उग्रवाद का दौर शुरू हो गया. तब आए दिन हिंसा होती थी. धार्मिक आधार पर लोगों को निशाना बनाया जा रहा था. इन वजहों से भारत का यह सीमावर्ती इलाका बुरी तरह अस्थिर हो गया था.
फिर हुआ ऑपरेशन ब्लू स्टार?
1984 में भारतीय सेना ने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में प्रवेश किया, जहां भिंडरावाले और उसके समर्थक हथियारों के साथ मौजूद थे. इस सैन्य अभियान को ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ के नाम से जाना गया. भिंडरावाले और उसके समर्थक मारे गए लेकिन टैंक घुसाने से इस पवित्र स्थल को नुकसान भी पहुंचा.
क्योंकि ऑपरेशन ब्लू स्टार प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आदेश पर हुआ था, इसलिए उसका बदला लेने के लिए उनके सिख अंगरक्षकों उनकी हत्या कर दी. इस चलते देशभर में सिख विरोधी दंगे भड़के और हजारों सिख मारे गए.
1990-92 तक भारत में खालिस्तान आंदोलन का सूरज ढल गया. उसके बाद इसकी गूंज विदेशी धरती से ही अधिक सुनाई पड़ी. भारत में छिटपुट समूहों ने सिर उठाने की कोशिश की जिन्हें समय रहते शांत कर दिया गया.
विदेशी धरती पर कैसे पहुंचा खालिस्तान आंदोलन?
भारत में विकराल रूप धारण करने से पहले खालिस्तान आंदोलन विदेश पर ही शुरू हुआ था. दूसरे शब्दों में कहें तो इस आंदोलन के आधुनिक संस्करण का जन्म अमेरिका में हुआ था.
अलग सिख राज्य के लिए पहली घोषणा संयुक्त राज्य अमेरिका में की गई थी. 12 अक्टूबर 1971 को न्यूयॉर्क टाइम्स में खालिस्तान आंदोलन के उदघोष का विज्ञापन दिया गया था, जिसमें लिखा था, ‘आज हम जीत हासिल करने तक अंतिम धर्मयुद्ध शुरू कर रहे हैं… हम अपने आप में एक राष्ट्र हैं.’
अब खालिस्तान आंदोलन की सक्रियता भारत में भले ही बहुत कम हो गई हो, लेकिन यह मुद्दा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अभी भी चर्चा में रहता है. कई सिख प्रवासी, विशेष रूप से कनाडा, यूके, और अमेरिका में बसे लोग, खालिस्तान के समर्थन में रैलियां और आंदोलन करते हैं.
विदेशी धरती पर खालिस्तान आंदोलन के जिंदा रहने का एक बहुत बड़ा कारण सिखों का पलायन है. दरअसल, इस कौम ने 19वीं सदी के अंत से ही विदेशी धरती पर पलायन शुरू कर दिया था. जब भारत पर अंग्रेजों का शासन था तो सिख उनकी सेना में काम करते थे. विस्तारवादी नीति पर चलने वाला ब्रिटिश साम्राज्य जहां–जहां गया, जिन–जिन देशों पर कब्जा किया, वहां सैनिक के तौर पर सिख भी पहुंचते गए.
कनाडा में सिख और खालिस्तान आंदोलन
2021 की कनाडाई जनगणना के अनुसार, देश की आबादी में सिखों की हिस्सेदारी 2.1% है. भारत के बाहर सबसे अधिक सिख कनाडा में ही रहते हैं.
कनाडा में भी सिख ब्रिटिश आर्मी की वजह से ही पहुंचे. इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि कनाडा में बसने वाले सबसे पहले सिख रिसालदार मेजर केसर सिंह थे. यह 1897 की बात है. केसर सिंह हांगकांग रेजिमेंट के हिस्से के रूप में वैंकूवर पहुंचने वाले सिख सैनिकों के पहले समूह में से एक थे. सैनिकों का कई समूह वहां पर महारानी विक्टोरिया की हीरक जयंती के अवसर पर पहुंचा था.
ध्यान दें, हालिया भारत–कनाडा तनाव की जड़ में वैंकूवर की ही एक घटना है. 8 जून, 2023 को वैंकूवर स्थित गुरु नानक सिख गुरुद्वारा की पार्किंग में कनाडाई नागरिक हरदीप सिंह निज्जर (भारत के लिए निज्जर खालिस्तानी आंदोलन का सक्रिय आतंकवादी था) की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. तब कडाना के प्रधानमंत्री को निज्जर की हत्या में भारत सरकार की संलिप्तता का संदेह था. अब कनाडा की सरकार का कहना है कि उनके पास पु्ख्ता सबूत हैं कि भारत उनकी धरती पर हिंसा और हत्या की घटनाओं को अंजाम दे रहा है.
हालांकि कनाडा इस सवाल का जवाब नहीं देता कि वह अपनी धरती पर भारत विरोधी गतिविधियों को क्यों होने देता है? वहां ऐसा आंदोलन को क्यों फल-फूल रहा है, जो भारत की अखंडता के लिए घातक है?
साल 2002 में इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि पर कनाडा की एक साप्ताहिक पत्रिका ने उन्हें ‘पापी’ बताया था. पत्रिका में भारत की प्रधानमंत्री की हत्या के चित्रण के साथ बधाई संदेश दिया गया था. साथ ही लिखा था, ‘पापी को मारने वाले शहीदों का सम्मान करें.’ टोरंटो से प्रकाशित होने वाली इस पंजाबी पत्रिका का नाम– सांझ सवेरा है. इसे तब सरकारी विज्ञापन मिला था और वर्तमान में यह कनाडा के प्रमुख अख़बार है.
साल 2023 में ब्रैम्पटन में सिख फॉर जस्टिस नामक एक खालिस्तान समर्थक संगठन ने खालिस्तान पर तथाकथित ‘जनमत संग्रह’ आयोजित किया था. आयोजकों ने दावा किया कि खालिस्तान के समर्थन में 100,000 से ज़्यादा लोग आए थे. भारत ने इस घटना पर कड़ी आपत्ति जताई थी. भारत में सिख फॉर जस्टिस पर प्रतिबंध है. पिछले साल इस संगठन के सबसे चर्चित चेहरे गुरपतवंत सिंह पन्नू की अमेरिका में हत्या की कोशिश हुई थी. अमेरिका इस प्रयास में भारत का हाथ मानता है.
यह कनाडा में होने वाले खालिस्तान समर्थक और भारत विरोधी गतिविधियों के कुछ उदाहरण मात्र हैं.
विदेशी धरती ख़ासकर कनाडा में खत्म क्यों नहीं हो रहा खालिस्तान आंदोलन?
पिछले दिनों जब कनाडा ने भारतीय उच्चायुक्त और राजनयिकों को देश में हुई हिंसक घटनाओं के मामले में ‘पर्सन ऑफ इंटरेस्ट’ बताकर निष्कासित किया, तब भारतीय विदेश मंत्रालय ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था कि भारत ‘इन बेतुके आरोपों को दृढ़ता से खारिज करता है और उन्हें ट्रूडो सरकार के राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा मानता है जो वोट बैंक की राजनीति पर केंद्रित है.’
विशेषज्ञों के बीच यह आम राय है कि कनाडा की कोई भी सरकार इसलिए खालिस्तान आंदोलन पर नकेल नहीं कसती क्योंकि उन्हें सिखों का वोट लेना होता है. वह देश की सबसे तेजी से बढ़ती धार्मिक आबादी हैं. कनाडा में उनका एक सदी से ज्यादा का इतिहास है. वे देश के विभिन्न क्षेत्रों (व्यापार, सरकारी नौकरी, राजनीति, सत्ता, आदि) में प्रभावशाली पदों पर पहुंच चुके हैं.
हालांकि, हरतोष सिंह बल इस पूरे मामले पर एक नई दृष्टि देते हैं, वह पूछते हैं कि ‘अगर हम भारत में हिंदू राष्ट्र मांगने वालों को गिरफ्तार नहीं कर सकते हैं तो कनाडा से अगर कोई सिख राष्ट्र मांग ले तो उसके खिलाफ कार्रवाई क्यों चाहते हैं? अगर भारत में कुछ लोग हिंदू राष्ट्र मांग रहे हैं तो कहीं और बैठा कोई व्यक्ति सिख राष्ट्र क्यों नहीं मांग सकता है? अगर नरेंद्र मोदी, अमित शाह, मोहन भागवत ऐसी बकवास (हिंदू राष्ट्र की बात) पूरे देश में कर सकते हैं, तो बाहर बैठे लोग भी बोलेंगे. यह एक रिएक्टिव प्रोसेस हैं.’
बल आगे कहते हैं, ‘मान लीजिए कि कनाडा राजनीतिक लाभ के लिए ऐसा कर रहा है. लेकिन अमेरिका में क्या हो रहा है? अमेरिका तो खुद कह रहा है कि कनाडा के जो आरोप हैं, वो उनसे सहमते है. क्या अमेरिका वाले भी झूठ बोल रहे हैं, अगर बोले रहे हैं तो क्यों बोल रहे हैं, और आप उनकी झूठ पर कार्रवाई क्यों कर रहे हैं. एक व्यक्ति को तो गिरफ्तार कर लिया है.’
बल, कनाडा में खालिस्तान के हालिया उदय के लिए मोदी सरकार को जिम्मेदार मानते हैं, वह कहते हैं, ‘वास्तव में भारत में कभी भी खालिस्तान की मांग में ज्यादा किसी की दिलचस्पी रही नहीं. 2014 तक तो विदेशों में भी इसकी मांग उठनी लगभग बंद हो गई थी. खालिस्तान के नाम पर पांच लोगों को इकट्ठा करना मुश्किल था. अब कनाडा में इसका जोर इसलिए देखने को मिल रहा है क्योंकि मोदी सरकार ऐसा चाहती है.’
कनाडा में हुए 2023 के जनमत संग्रह को लेकर बल कहते हैं, ‘पूरी दुनिया में जिनती बड़ी संख्या में सिख रहते हैं, उसमें एक लाख संख्या क्या मायने रखता है? कुछ नहीं. चलिए मान लीजिए की एक लाख लोग आए थे, लेकिन उस जनमत संग्रह की पब्लिसिटी किसने की? भारत के विदेश मंत्रालय और इंटेलिजेंस एजेंसी ने एक छोटी-मोटी चीज, जो हर साल होती है, उसको राष्ट्र के लिए खतरा बताकर, उसकी ग्लोबल पब्लिसिटी करवा दी थी. यह बेवकूफी है.’
अब सवाल उठता है कि मोदी सरकार ऐसा क्यों कर रही है?
बल कहते हैं, ‘यह संघ की सोच है. संघ जब हिंदू शब्द का इस्तेमाल करते हैं तो उन्हें लगता है कि सिख भी हिंदू हैं. सिखों को ये बात बहुत पहले से मंजूर नहीं है. कोई सिख अपने आप को हिंदू नहीं मानता. कुछ गिने-चुने सिख ही मिलेंगे, जो खुद को हिंदू मानते हो. आप हिंदू राष्ट्र की बात करेंगे तो सिख खुद को उससे बाहर मानेगा या उससे खतरा महसूस करेगा. संघ और मोदी को ये बात समझ नहीं आती है. उन्हें लगता है कि सिख हिंदू राष्ट्र, संघ, भाजपा या मोदी के खिलाफ इसलिए हैं क्योंकि बाहर बैठे कुछ खालिस्तानी उनको भड़का रहे हैं. ये सरासर बेवकूफी है. लेकिन वो इसी सोच के साथ ये सब करते हैं.’