किसी इंसान को समझने के लिए जो दो प्रचलित साहित्यिक विधाएं हैं, आत्मकथा और जीवनी. दोनों ही की अपनी महत्ता और सीमाएं हैं. आत्मकथा में जहां लेखक के अपने संदर्भ में वस्तुनिष्ठ न रह पाने का ख़तरा होता है ,तो वहीं सबसे अधिक प्रामाणिक होना उसकी एक बड़ी ख़ासियत भी होती है. जीवनी उस अर्थ में व्यक्ति के जीवन का सम्यक मूल्यांकन होता है, जो किसी और की दृष्टि से देखा और परखा जाता है, पर यहां एक स्वाभाविक चिंता यह भी होती है कि जीवनी लेखक जीवन बयान करने के बदले अपने विषय की स्तुति न करने लगे.
बहरहाल, इन दोनों ही अतिवादों से बचते हुए व्यक्तियों विशेषकर ऐतिहासिक व्यक्तियों की जीवनी लिखना आसान नहीं है. सिर्फ घटनाओं को ब्यौरेवार बतला देने भर से जीवनी का काम नहीं चलता. बल्कि उन घटनाओं, तथ्यों और ब्यौरों की भीड़ से व्यक्ति के आंतरिक और बाह्य जगत का पुनर्निर्माण करना सही मायने में जीवनी का अभीष्ट है.
‘इंडियन लाइव्स सीरीज़’ के रूप में रामचंद्र गुहा द्वारा संपादित और संकलित की जा रही पुस्तकमाला में निको स्लेट द्वारा लिखी गई कमलादेवी चट्टोपाध्याय (1903-1988) की जीवनी इस दृष्टि से ठीक वैसी ही रचना है, जिसे पहली दाद सिर्फ इसीलिए मिलनी चाहिए कि एक बहुआयामी जीवन को उसकी संपूर्ण विविधता में समेट पाना प्रायः आसान नहीं होता. विशेषकर कमलादेवी चट्टोपाध्याय के जीवन की कथा कहना तो और भी अधिक मानीखेज हो जाता है.
कारण कि औपनिवेशिक भारतीय इतिहास की दुहरी पितृसत्तात्मकता में ऐसी कितनी स्त्रियों के जीवन को लिखा जा सका है, जिन्होंने आधुनिक राष्ट्र के निर्माण के साथ ही आधुनिक स्त्रीवादी स्वर को गढ़ने में भी अहम भूमिका निभाई है?
बहरहाल, इस सीरीज़ के तहत अब तक सम्राट अशोक पर (Ashoka: Portrait of a Philosopher King) और शेख़ अब्दुल्ला पर (Sheikh Abdullah : The Caged Lion of Kashmir) पुस्तकें आ गई हैं.
निको स्लेट की यह कृति कमलादेवी चट्टोपाध्याय के जीवन पर कोई पहली रचना नहीं है. स्वयं कमलादेवी ने अपनी आत्मकथा ‘इनर रीसेस एंड आउटर स्पेसेस’ (Inner recesses and outer spaces) साल 1987 में लिखी थी, जिसके कई संस्करण आ चुके हैं. साल 2002 में ही इतिहासकार रीना नंदा ने भी कमलादेवी की जीवनी लिखी थी.
अमेरिकी इतिहासकार स्लेट जिनकी विशेषज्ञता अमेरिका और भारत में लोकतंत्र और सामाजिक आंदोलनों के अध्ययन की है, कमलादेवी के जीवन पर पहले से भी शोध करते आ रहे थे. इस पुस्तकमाला के लिए जब जीवनी लिखने की बात हुई तो वह सहज ही सबसे प्रामाणिक चयन साबित हुए. कमलादेवी चट्टोपाध्याय की यह जीवनी उनके जीवन को और अधिक विस्तार से समेटने की एक गंभीर कवायद है जिसके लिए उन्होंने अब तक अप्राप्य रहे कई स्रोतों को भी उपयोग में लाया है.
कमलादेवी चट्टोपाध्याय का नाम उनके पुरुष समकालीनों के बर-अक्स थोड़ा कम जाना-पहचाना और जीवन उतना ही कम विश्लेषित है. इसके कारण कई हो सकते हैं पर अंततः इन सबने उस अनिवार्यता का निर्माण किया जिससे कि उनके जीवन पर प्रकाश डालना न केवल एक ऐतिहासिक उपेक्षा को ठीक करना हुआ बल्कि इतिहास के उन महत्त्वपूर्ण वर्षों के अध्ययन के लिए भी आवश्यक हो गया.
किसी जन-आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाने वालों और राष्ट्र-राज्य की सांस्कृतिक-राजनीतिक संस्थाओं के निर्माण में निर्णायक रहने वालों का जीवन सिर्फ उनके अपने जीवन की बानगी नहीं होता बल्कि उस पूरे युग की भी कहानी होता है जिसमें वह कार्य कर रहे होते हैं. उस समय की कहानी जो भविष्य की दिशा तय करता है.
कमलादेवी का जीवन भी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के उन निर्णायक वर्षों और स्वातंत्रयोत्तर भारत की प्रारंभिक यात्रा का साक्षी रहा है, जिसमें परिवर्तन एक सतत होने वाली प्रक्रिया के साथ ही एक जल्दी घटने वाली प्रक्रिया भी थी. जैसे सिनेमा के परदे पर जल्दी-जल्दी दृश्य बदलते हैं, भारतीय राष्ट्र के वह कुछ वर्ष भी द्रुत गति से होने वाले परिवर्तनों के साल हैं. एक तरफ़ स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर है, तो वहीं नई-नई संकल्पनाएं मसलन समाजवाद, नारीवादी उभार, यह सब भी अपने संक्रमण में हैं. स्त्रियां न केवल भारतीय स्वाधीनता में अपनी सहभागिता दर्ज करवा रही थीं बल्कि देश की सांस्कृतिक-बौद्धिक पूंजी की प्रतिनिधि बन अब वैश्विक स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही थीं. इस पूरे संदर्भ में कमलादेवी का जीवन ऐसा जीवन था जो अपने समय की हर आवाज़ को दर्ज कर रहा है और आबादी के एक बड़े हिस्से को सिर्फ अपने होने मात्र से प्रतिनिधित्व दे रहा है.
3 अप्रैल 1903 में मंगलौर के एक समृद्ध सारस्वत ब्राह्मण परिवार में जन्मीं कमलादेवी के जीवन को जैसा कि स्लेट बतलाते हैं, उस युग की विशिष्ट परिस्थितियों ने भी स्वरूप दिया था. मसलन, ‘कमलादेवी के लिए यह लगभग निश्चित ही था कि वह विद्यालय जातीं और संभवतः महाविद्यालय में भी शिक्षा प्राप्त करतीं. मूलतः इसलिए क्योंकि यह दौर 19वीं शताब्दी के सामाजिक-धार्मिक सुधारों का था. कोंकण के सारस्वत ब्राह्मणों के लिए स्त्री शिक्षा की स्वीकार्यता भी बढ़ चुकी थी.’
कमलादेवी की मां गिरिजाबाई और उनकी दादी दोनों ही अपने दौर की शिक्षित महिलाएं थीं, विद्यालयी शिक्षा न भी मिली हो पर निस्संदेह वह स्वयं-शिक्षित थीं. गिरिजादेवी अपने कुछ मराठी मित्रों के संपर्क में आने के कारण बहुत पहले ही पंडिता रमाबाई और रमाबाई रानाडे के विचारों और प्रयासों से परिचित हो चुकीं थी. इन समाजसेवियों से वह इतना प्रभावित थीं कि उन्होंने खुद मंगलौर में 1910 में महिला समाज नामक छोटी-सी संस्था खोल ली थी. उन्होंने ही एनी बेसेंट को मंगलौर में अपना घर लड़कियों के विद्यालय खोलने के लिए दिया था.
आगे चलकर कमलादेवी ने जिस प्रकार भारतीय संस्कृति के विविध आयामों को अपनी वैचारिकी में समाहित किया है उसकी मूल प्रेरणा उन्हें कहीं-न-कहीं, एनी बेसेंट के ही सांस्कृतिक पुनुरुत्थानवाद से मिली.
स्लेट भी लिखते हैं कि कैसे ‘भारतीय सांस्कृतिक परंपरा के प्रति एक गंभीर प्रशंसा का भाव रखते हुए राष्ट्र के लिए खुद को समर्पित करने की बलवती भावना कमलादेवी में बेसेंट की प्रेरणा की वजह से था.’
हालांकि, उस युग की रीति के अनुसार, बाल्यावस्था में ही कमलादेवी का विवाह अपने समय के धनाढ्य और प्रभावी हस्ती नैयमपल्ली सुब्बाराव के पोते कृष्णा राव से हुआ, पर शादी के एक साल के भीतर ही कृष्णा राव की मृत्यु हो गई. इस प्रकार कमलादेवी पूर्ण रूप से पत्नी बने बिना ही बाल विधवा हो गईं. पर एक प्रगतिशील मां ने अपनी बेटी के लिए विधवाओं के लिए निर्धारित की गई रूढ़िवादी व्यवस्था को सिरे से नकार दिया. इसीलिए स्त्रियों की स्वतंत्रता की पहली लड़ाई तो उन्होंने अपने ही जीवन में मिसाल के तौर पर जीत ली जब बाल विधवाओं की त्रासद सामाजिक नियति को उन्होंने धता बता दिया.
हालांकि, बाल विधवा होने के अपने अनुभवों को लेकर वह मुखर नहीं रहीं. स्लेट जीवनी में इस ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि कैसे ‘कमलादेवी ने अपने बाल विधवा के रूप में जिए गए जीवन के अनुभवों को अपनी चुप्पी के नीचे दबा दिया था.’
यह अवश्य कहा जा सकता है कि कमलादेवी एक विशेषाधिकार वाली स्थिति से आती थीं. उनका परिवार प्रारंभ से ही राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में वैचारिक और सैद्धांतिक रूप से संलग्न था. इसीलिए यह सांस्कृतिक पूंजी ही उनके जीवन का सबसे पहला विशेषाधिकार बनी. इस सांस्कृतिक पूंजी की पृष्ठभूमि में ही हम उनके क्रांतिकारी विचारों को अवचेतन में गढ़ता हुआ देख सकते हैं.
शिक्षा और अधिकारों की सचेतनता ने उन्हें इतनी सारी भूमिकाएं निभाने में विशेष रूप से सहायता कीं. पर उनके द्वारा किए गए कार्यों को इस एक वजह से कम कर के नहीं देखा जा सकता है. स्त्रियों के लिए चाहे वह किसी भी वर्ग या जाति से क्यों न हो, कुछ भी करना आसान नहीं होता क्योंकि भारतीय समाज की पितृसत्तात्मकता, हर दौर में कहीं-न-कहीं स्त्रियों को सीमित कर देने की पृष्ठभूमि निर्मित करती रहती है. ऐसे में कमलादेवी की यह यात्रा भी आसान नहीं रही. एक स्त्री के रूप में लिए गए उनके निर्णयों पर उदारवादी-से-उदारवादी सोच रखने वालों की भी अपनी आपत्तियां रहीं जिसे झेलकर ही उन्होंने वह सब किया जो किसी भी दृष्टिकोण से आम न था.
निको स्लेट के इस अध्ययन की यह ख़ासियत और कई अर्थों में एक कमी भी यह है कि वह अपने विषय के निजी जीवन पर बहुत विस्तार से न जाते हुए उसकी जनछवि, बाह्य जीवन में किए गए कार्यों तक अपनी दृष्टि सीमित रखते हैं. हालांकि, ऐसा करते हुए वह प्रायः इसके कारणों को भी बतलाते हैं कि किस प्रकार कमलादेवी अपने निजी जीवन के निर्णयों और व्यक्तियों के संदर्भ में स्वयं मौन थीं.
अपनी आत्मकथा में भी उन्होंने अपने लोकजीवन को ही केंद्र में रखा है. पर स्लेट की जीवनी यह दिखला पाने में अवश्य सफल रही है कि अगर उन्हें आधुनिक राष्ट्र का निर्माता माना जाता है तो वह मान्यता कितनी वाज़िब और ज़रूरी है. नौ अध्यायों में विभाजित इस जीवनी ने कमलादेवी के लोकजीवन के सभी पक्षों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है. अपने वैचारिक और सक्रिय सहयोगों से वह न केवल भारतीय राजनीति में स्त्रियों, किसानों, मिल वर्करों इत्यादि के अधिकारों को समाहित कर पाने में उत्प्रेरक बनीं बल्कि एक ऐसे समय में जब नारीवादी आंदोलनों की अनुगूंज भी भारतीय संदर्भों में सुनाई नहीं पड़ती थी, उन्होंने स्त्रियों को भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में लाने का कार्य किया.
स्वाधीनता आंदोलन का नेतृत्व कर रही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को समाजवाद से जोड़ने में केवल जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस जैसे पुरुष नेताओं का नहीं बल्कि कमलादेवी का भी अमूल्य योगदान था- यह कुछ एक ऐसे तथ्य हैं जो अमूमन हमें इतिहास की पुस्तकों में नहीं मिलते, पर स्लेट की जीवनी इन सबका ख़ुलासा करती है.
कमलादेवी के जीवन को जानने की प्रक्रिया में उनके समकालीनों पर भी स्लेट बात करते चलते हैं और कमलादेवी के संदर्भ में ही उनके जीवन को भी विश्लेषित करते हैं. मसलन, आगे चलकर कमलादेवी चेन्नई में सरोजिनी नायडू के प्रभुत्वशाली परिवार के संपर्क में आती हैं. उनका परिचय नायडू के छोटे भाई हारीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय से होता है. दोनों ही की अभिरुचि कला, रंगमंच, संगीत इत्यादि में थी जिसके कारण आकर्षण होना स्वाभाविक था जिसकी ही परिणति 1919 में कमलादेवी के दूसरे विवाह में हुई.
हालांकि हारीन के साथ उनका यह विवाह एक सुखद अनुभव नहीं कहा जा सकता. इसकी कई वजहें स्लेट ने अपनी जीवनी में बतलाई है. पति हारीन अपने नाट्य प्रदर्शनों और विदेश यात्राओं के कारण प्रायः दूर रहा करते थे और पत्नी के अलावा अनेकानेक स्त्रियों से भी उनके संबंध जगजाहिर थे.
युवा कमला के जीवन की अर्थवत्ता समाज-सुधार और स्वतंत्रता आंदोलन में स्वयं की आहुति दे देने में थी, ऐसे में पति के रूप में हारीन उनके आदर्शों पर कहीं नहीं उतरते थे. अंततः एक समय आता है जब कमलादेवी पारिवारिक-सामाजिक अपेक्षाओं की परवाह न करते हुए अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए हारीन से अलग हो जाती हैं. आज से नब्बे साल पहले तलाक़ जैसा निर्णय एक सामाजिक अपवाद था और कमलादेवी के संदर्भ में तो राष्ट्रीय भी. स्वयं गांधी जी ने उन्हें अपने हृदय की बात सुनने की सलाह दी थी, जब सरोजिनी नायडू अपने भाई के पक्ष में खड़ी थीं.
बहरहाल, आगे चलकर जब कमलादेवी शिक्षा के लिए लंदन गईं तो उन्होंने प्रचलित विषय जिनसे रोज़गार मिलने में आसानी होती है, वह न पढ़ कर औपचारिक रूप से समाज सेवा के लिए उपयोगी कोर्सों में दाखिला लिया. इस प्रसंग से भी यह बात ही पुष्ट होती है कि तर्क और रवायतों की लीक पकड़कर चलना उन्हें कभी भी स्वीकार नहीं था.
भारत आने पर कमलादेवी के सामाजिक जीवन की शुरुआत जिस प्रमुख संस्था से होती है वह थी- ऑल इंडिया विमेंस कॉन्फ्रेंस. यह कॉन्फ्रेंस की ही नई पहलों का असर था, जिसने भारतीय संदर्भों में स्त्री शिक्षा के विषय को प्रबलता से उठाया. राष्ट्रीय स्तर की संस्था होने के बावजूद इसका प्रभाव दूरदराज के क्षेत्रों में भी था. इस संस्था से जुड़ कर कमलादेवी ने महिलाओं और बच्चों के अधिकारों और जीवन-स्तर को समृद्ध करने की रणनीतिक कारवाई में बड़ी प्रमुख भूमिका निभाई.
आगे चलकर देश-विदेश की अपनी यात्राओं में उन्होंने स्त्रियों और बच्चों से जुड़े इन सभी संदर्भों को बड़े-बड़े मंचों पर ध्वनि दी और इन मुद्दों को गहरी अर्थवत्ता से युक्त किया. यह कमलादेवी के अनथक प्रयासों का सुपरिणाम था कि गांधी जी को स्त्रियों को भी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अधिक सक्रिय भूमिका निभाने की दिशा में विचार करना पड़ा. उन्होंने ही गांधीजी से स्त्रियों की स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय और प्रत्यक्ष भागीदारी की बात की थी.
कमलादेवी उस दौर की नारीवादी समाजसुधारक हैं, जहां भारतीय संदर्भों में नारीवाद ने अभी दस्तक मात्र ही दी थी. इसीलिए कमलादेवी जैसी प्रारंभिक नारीवादी सुधारकों ने स्त्री की पुरुष के साथ अधिकारों की समानता में कहीं भी उनसे स्त्रीत्व और सौम्य पक्ष के साथ समझौता नहीं किया.
उनके नारीवाद पर गांधीवाद का प्रभाव समझा जा सकता है. स्त्रियां उनके लिए समाज और परिवार का अभिन्न हिस्सा थीं, इसीलिए उसे गृहस्थ की कुशल संचालिका और मातृत्व की भूमिका से अलग करके नहीं देखा जा सकता था. आज ज़रूर इस पर प्रश्न उठाए जा चुके हैं पर कमलादेवी को उनके संदर्भों में जीवनीकार ने भी समझा है और हमें भी उसी तरह से ग्रहण करने की ज़रूरत है.
आगे चलकर, स्वतंत्रता के साथ हुए विभाजन की त्रासद हिंसा और दंगों के क्षणों में भी कमलादेवी अपने लिए एक भूमिका देख पाती हैं. वह सारे शरणार्थी जो विभाजन की विभीषिका में उखड़ कर आए थे, उन्हें नए सिरे से बसाने के लिए बड़े स्तर पर संसाधनों की आवश्यकता थी और ऐसे काम केवल एकल प्रयासों से संभव भी नहीं थे. कमलादेवी ने इसके लिए एक समर्पित संस्था बना कर बड़े फलक पर यह काम करने की पूरी योजना बनायी थी. एक ऐसा सहकारी संगठन जो शरणार्थी पुनर्वास की योजना बना कर उसका क्रियान्वयन भी कर सके.
स्वतंत्रता के बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें ऑल इंडिया हैंडीक्राफ्ट बोर्ड के गठन और संचालन का कार्य भार सौंपना चाहा और इस प्रकार कमलादेवी को स्वातंत्रयोत्तर भारत में अपने जीवन की नई दिशा मिली. एक ऐसा उद्देश्य जिसके लिए वह अपना अनुभव और कौशल दोनों ही भारत के हस्तशिल्प और हथकरघा की विरासत का संवर्धन और संरक्षण में लगा सकती थीं.
भारतीय हथकरघा और हस्तशिल्प उद्योग की स्थापना और विकास के प्रति जो श्रमसाध्य योगदान कमलादेवी ने दिया वह अपने आप में एक अद्भुत बात है, विशेषकर आज के संदर्भ में जब हम भारतीय शिल्प को देश-विदेश में इतना सुविख्यात देखते हैं. जिस प्रकार गांधी जी ने स्वदेशी और खादी को एक आंदोलन के रूप में शुरू किया था उसकी ही अगली कड़ी कमलादेवी के इन प्रयासों में दिखलाई पड़ती है.
स्लेट की जीवनी की एक विशेषता यह रही है कि वह अपने पात्र की कमियों में भी कुछ बेहतर और सार्थक छान लेते हैं. पर वहीं वह कमलादेवी की दृष्टि की सीमाएं भी रेखांकित करते हैं.
वह कमलादेवी के जीवन को लिखते हुए उनके वर्गीय विशेषाधिकारों और इस कारण उनकी दृष्टि में आई सीमितता की अनदेखी नहीं करते. वह लिखते हैं कि कैसे कमलादेवी भारत की विविधता और उसके लोक नाट्य की विविधता को पूर्ण रूप से स्वीकार करते हुए भी हमेशा ही उन कमियों को नहीं पाट पाती थीं जो उनकी स्वयं की उच्च वर्गीय-उच्च जातीय पृष्ठभूमि के कारण उत्पन्न होती थीं.
बहरहाल, कमलादेवी का जीवन एक व्यापक अर्थ में कला और समाजसेवा का ऐसा संगम था जो न केवल उनके जीवन को परिभाषित करता था बल्कि उसके उद्देश्य को भी गढ़ता था. जीवन के अंत-अंत तक वह अपने जीवन के इन दो महत उद्देश्यों से प्रेरित रहीं.
एक सवाल जो उठता है वह यह कि इस तरह की जीवनियों को प्रकाश में लाने का क्या उद्देश्य है या इस तरह की जीवनियां क्यों लिखी जानी चाहिए? तो संभवतः इसीलिए कि समय की धूल इतिहास को कुछ प्रमुख व्यक्तियों के नामों और उनके द्वारा किए गए कार्यों तक सीमित कर देती है.
ऐसे में कई ऐसे नाम, कई ऐसे चेहरे इतिहास में होते हैं जिनके मौन योगदान को प्रायः भुला दिया जाता है. उसमें भी जब हम कमलादेवी चट्टोपाध्याय की बात करते हैं तो उनके स्त्री होने का पक्ष भी इस ऐतिहासिक-सामाजिक विस्मृति में आकर जुड़ जाता है. इसीलिए कमलादेवी के जीवन को, उस जीवन की बहुआयामिता और विस्तार को एक स्थान पर समेटने की आवश्यकता है ताकि उनके लंबे जिए गए जीवन के मूल्य को आज की पीढ़ी समझ सके. वह यह समझ सके कि उनसे पहले आने वाली पीढ़ियों ने उनकी राह को आसान बनाने के लिए कितने अनथक प्रयास किए थे, जोखिम उठाए थे.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)