नई दिल्ली: उत्तराखंड में गंगा और उसकी सहायक नदियों पर नए हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट यानी जलविद्युत परियोजनाओं को लगाया जाना चाहिए या नहीं, इसका फैसला एक दशक बाद भी नहीं हो पा रहा है. केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाए गए पैनल की इस विषय पर अलग-अलग राय है.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक़, सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त पैनल गंगा और उसकी सहायक नदियों पर पांच जलविद्युत परियोजनाओं (एचईपी) को स्थापित करने का समर्थन किया है, क्योंकि पैनल को लगता है कि इससे होना वाला लाभ, संभावित नुक़सान से कहीं ज्यादा है.
वहीं केंद्र सरकार के अंतर्गत आने वाले पर्यावरण और वन मंत्रालय और जल शक्ति मंत्रालय ने इन परियोजनाओं का विरोध किया है. मंत्रालयों का मानना है कि इन परियोजनाओं से नदियों पर पड़ने वाले प्रभावों का सही तरीके से विचार नहीं किया गया है.
साथ ही मंत्रालय का कहना है कि जिन इलाकों में परियोजना लगाने की बात चल रही है, वहां भूस्खलन या भूकंप का खतरा अधिक हो सकता है, इस पर भी सही ध्यान नहीं दिया गया है.
क्या है पूरा मामला?
शीर्ष अदालत 2013 से गंगा पर नई जलविद्युत परियोजनाएं शुरू करने के सवाल पर विचार कर रही है. दरअसल, केदारनाथ में बाढ़ आने और 5,000 से अधिक लोगों के मारे जाने के बाद कोर्ट ने इस स्वतः संज्ञान लेते हुए किसी भी नई जलविद्युत परियोजनाओं को मंज़ूरी देने पर रोक लगा दी थी.
तब कोर्ट ने पर्यावरण एवं वन मंत्रालय से कहा था कि वह पहले ऐसी परियोजनाओं के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए एक समिति बनाए. तब से मंत्रालय ने तीन समितियां बनाई हैं:
पर्यावरणविद रवि चोपड़ा की अगुआई में पहली समिति ने 2014 में निष्कर्ष निकाला था कि जलविद्युत परियोजनाओं ने आपदा को और बढ़ा दिया है. इसने 24 प्रस्तावित परियोजनाओं पर आगे न बढ़ने की भी सिफ़ारिश की थी.
जब छह जलविद्युत परियोजनाओं के प्रस्तावक अपनी परियोजनाओं को फिर से शुरू करने की अनुमति के लिए सुप्रीम कोर्ट चले गए, तो मंत्रालय ने 2015 में आईआईटी-कानपुर के विनोद तारे की अध्यक्षता में एक दूसरी समिति बनाई. इस पैनल ने पाया कि छह परियोजनाओं को पहले से मंज़ूरी मिल चुकी थी, लेकिन इनसे गंभीर पर्यावरणीय प्रभाव पड़ेंगे.
फिर, इंजीनियर बीपी दास के नेतृत्व में गठित तीसरी समिति ने 2020 में सिफारिश की कि 28 परियोजनाओं को मंजूरी दी जाए.
केंद्र का रुख़
केंद्र ने 2021 में फैसला किया कि इन 28 परियोजनाओं में से सिर्फ सात को ही मंजूरी दी जाए, जिन पर काम पहले ही शुरू हो चुका है. यह फैसला प्रधानमंत्री कार्यालय में प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव की अध्यक्षता में हुई बैठक के बाद लिया गया.
इस साल 8 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से पूछा कि उसने सिर्फ़ सात परियोजनाओं को ही अनुमति क्यों दी. साथ ही, उसने कैबिनेट सचिव टीवी सोमनाथन की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया, जिसे बीपी दास समिति की रिपोर्ट पर फिर से विचार करना था और बाकी 21 जलविद्युत परियोजनाओं का फ़ैसला करना था.
इस पैनल ने 8 नवंबर को अदालत को सौंपी अपनी रिपोर्ट में पांच परियोजनाओं को मंजूरी दी. वो परियोजनाएं हैं- बोवाला नंदप्रयाग (अलकनंदा नदी पर 300 मेगावाट), देवश्री (पिंडर नदी पर 252 मेगावाट), भ्यूंदर गंगा (24.3 मेगावाट), झालाकोटी (12.5 मेगावाट) और उर्गम-II (7.5 मेगावाट).
क्या है रिपोर्ट में?
पैनल ने पर्यावरण और जल शक्ति मंत्रालयों द्वारा उठाई गई चिंताओं को ध्यान में रखा, लेकिन निष्कर्ष निकाला कि जलविद्युत परियोजनाओं और भूस्खलन के बीच संबंध स्थापित करने के लिए कोई स्पष्ट सबूत नहीं है.
इसने नोट किया कि सिफारिश के लिए प्रस्तावित पांच परियोजनाओं के कुछ प्रतिकूल प्रभाव हो सकते हैं, लेकिन यह भी कहा कि उनके लाभ नुकसान से अधिक हैं और उन्हें मंजूरी देना राष्ट्रीय हित में है.
जल शक्ति मंत्रालय की मुख्य आलोचना यह थी कि बीपी दास समिति ने अलकनंदा, भिलंगना और धौलीगंगा नदियों पर परियोजना लगाने से क्या-क्या और कितना प्रभाव पड़ेगा, यह नहीं बताया.
पर्यावरण मंत्रालय का मानना था कि भूस्खलन, अचानक आने वाले बाढ़, हिमनद झील के फटने से आने वाले बाढ़ और भूकंप जैसे मुद्दों पर समिति ने विचार नहीं किया है, जबकि इनका क्षेत्र की नाजुक पारिस्थितिकी पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है.