महाकुंभ: जुलाहे की बुनी फाड़ने की कोशिशें हो सकती हैं, पर रेशों को अलग नहीं किया जा सकता

कुंभों और महाकुंभों की लंबी परंपरा में कभी इलाहाबादी कुंभ यात्रियों या कुंभयात्री इलाहाबादियों की किसी भी तरह की असुविधा के हेतु नहीं बने. उन्होंने हमेशा, और इस बार विशेषकर मुस्लिम समुदाय ने परस्पर सत्कार व सहकार की भावना बनाए रखी.

(बाएं से) इलाहाबाद के नूरुल्लाह रोड पर एक कॉम्प्लेक्स में मुस्लिम दुकानदारों के सामने महाकुंभ के श्रद्धालु, चौक इलाके की मस्जिद और झूंसी के अनवर मार्केट में श्रद्धालुओं के रहने की व्यवस्था. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

बुरी खबरों के मौसम बन जाने और समूचे परिदृश्य पर छा जाने के इस ख़तरनाक दौर में देश को बहुत दिनों बाद एक बहुत अच्छी खबर मिली है. यह कि हाल के वर्षों में लगातार हिंदुत्ववादियों के निशाने पर रहते आ रहे मुसलमानों ने इलाहाबाद महाकुंभ में आए और उन्हें दिखाए गए सरकारी सब्जबाग के शिकार होकर भूखे-प्यासे रहने को मजबूर व सिर छुपाने की जगह से महरूम श्रद्धालुओं के लिए अपनी मस्जिदों व दिलों के दरवाजे खोल दिए हैं और भंडारे चला रहे हैं. इतना ही नहीं, वे उनको अपना मेहमान बता और कह रहे हैं कि अपने सामर्थ्य भर उन्हें कतई कोई तकलीफ़ नहीं उठाने देंगे. बन पड़ेगा तो उनकी वापसी में भी मदद करेंगे.

याद कीजिए, ये वही मुसलमान हैं, महाकुंभ आरंभ होने से पहले से ही रोजी-रोटी से जुड़े छोटे-मोटे काम-धंधों के सिलसिले में जिनके उसमें आने तक को लेकर नाना प्रकार के अंदेशे पैदा किए जा रहे थे. कई स्वनामधन्य महानुभाव तो यह तक कह रहे थे कि जब महाकुंभ में उनकी आस्था ही नहीं है, तो उन्हें उससे दूर ही रहना चाहिए. उनकी यह कुटिलता खासे निरादर के साथ यह पूछने तक पहुंच गई थी कि महाकुंभ में भला उनका क्या काम है?

और तो और, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उनकी ओर इशारा करते हुए चेतावनी भरे लहजे में यह तक कह डाला था कि ‘सनातन पर उंगली उठाने’ और ‘कलुषित मानसिकता रखने’ वाले महाकुंभ में न आएं, तभी अच्‍छा रहेगा.

उन्होंने कहा था कि महाकुंभ ऐसा स्‍थल है जहां जाति और पंथ की दीवारें समाप्‍त हो जाती हैं. यहां किसी भी तरह के भेदभाव के लिए जगह नहीं है, लेकिन कोई बुरी मानसिकता के साथ यहां आएगा तो उसे खुद को भी अच्‍छा नहीं लगेगा.

साफ है कि उन्होंने एकतरफा तौर पर मान लिया था कि जिन्हें वे ‘वे’ कहते हैं, उनकी मानसिकता सनातन व महाकुंभ के प्रति तो बुरी है ही, उनके प्रति भी बुरी है, जो हिंदुत्ववादियों के ‘हम’ में शामिल हैं. इसलिए मुसलमानों के महाकुंभ में आने को लेकर ‘शर्तें’ लगाते हुए वे भूल गए थे कि जिस संविधान की शपथ लेकर वे मुख्यमंत्री बने हैं, उसके मुताबिक उन पर किसी भी प्रदेशवासी का निर्विघ्न व बेरोकटोक कहीं भी आ जा सकना सुनिश्चित करने का दायित्व है.

यह मानने के कारण हैं कि जब ऊंचे सिंहासन पर विराजमान योगी यह सब कह रहे थे तो उन्होंने कल्पना तक नहीं कर रखी थी कि उनके द्वारा नियंत्रित सत्ता तंत्र की काहिली जल्दी ही इन ‘कलुषित मानसिकता वालों’ को अपनी मानसिकता का वास्तविक परिचय देने का अवसर उपलब्ध करा देगी. जब उनका सत्ता तंत्र उनके द्वारा आग्रहपूर्वक बुलाए गए महाकुंभ के श्रद्धालुओं के प्राणों की सुरक्षा भी सुनिश्चित नहीं कर पाएगा, साथ ही उन्हें इधर-उधर भटकने को मजबूर कर देगा तो ये ‘कलुषित’ आगे आकर उन्हें अपना मेहमान बनाने लग जाएंगे.

और हां, इन मेहमानों को भी (जिन्हें कई स्तरों पर इन ‘कलुषितों’ के जानें क्या-क्या पकाने-खाने और नमाज वगैरह पढ़ने को लेकर निरंतर भड़काया जाता रहता है) उनकी मेजबानी पर कोई ऐतराज़ नहीं होगा. उल्टे वे उसके बारे में कृतज्ञ भाव से लोगों को बताने लगेंगे – हां, प्रायः ‘हिंदू-मुसलमान’ करते रहने वाले मुख्यधारा मीडिया को भी.

कम से कह ये पंक्तियां लिखने तक तो कहीं से ऐसी कोई सूचना नहीं मिली है कि किसी श्रद्धालु ने इस आधार पर मेहमान बनने से इनकार किया हो कि मेजबान मुसलमान है या मेजबान ने मेजबानी करने से पहले मेहमान से पूछा हो कि कहीं वह हिंदुत्ववादी तो नहीं? निस्संदेह, यह हमारी गंगा-जमुनी तहजीब (हिंदुत्ववादी जिसे कोसने और नष्ट करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते) के आम लोगों के दिल व दिमाग में अभी भी गहराई से जड़ें जमाए होने का प्रमाण है. उसके जाए बंधुत्व की विजय का भी.

इस प्रमाण को महाकुंभ अंचल के निवासियों की इस मान्यता से मिलाकर देखें तो उन पर गर्व का भाव बहुत प्रबल हो जाता है कि जुलाहे की बुनी को फाड़ने की कोशिशें तो कितनी भी की जा सकती हैं, लेकिन किसी भी तरह उसे उधेड़ा या उसके रेशों को एक दूजे से अलग नहीं किया जा सकता. अलग करने की कोशिश में रेशों को कितना भी क्षतिग्रस्त क्यों न कर दिया जाए.

बंधुत्व की इस सांस्कृतिक बुनावट को महात्मा गांधी के शब्दों में समझें तो यह ऐसी नहीं है कि जो बंधुत्व का बर्ताव करे, उसी से बंधुत्व बरता जाए. महात्मा कह गए हैं कि जो आपसे बंधुत्व का व्यवहार करेगा, आप उसी से बंधुत्व रखेंगे तो वह बंधुत्व नहीं सौदा होगा और बंधुत्व की दुनिया में ऐसे किसी सौदे की कोई जगह नहीं है.

हां, यह बंधुत्व इस लाचारगी से जरूर जुड़ा हुआ है कि जुलाहे ने उसकी बुनावट का ताना-बाना कुछ ऐसा बना रखा है कि सारे बंधु-बांधवों को जीना भी साथ-साथ हैं और मरना भी. कोई कितना भी लड़ झगड़ ले, उसके पास ठीक से गुजर-बसर का इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है.

अभी ज्यादा दिन नहीं हुए, जब और कोई रास्ता निकालने के लिए सत्ता की शक्ति से इलाहाबाद जिले का नाम बदलकर प्रयागराज कर दिया गया था, जबकि अपवादस्वरूप ही किसी ने इसकी मांग की होगी. इलाहाबाद जंक्शन समेत उसके तीन रेलवे स्टेशनों के नामों को भी बदलकर उनमें ‘प्रयाग’ शब्द इस तरह घुसेड़ दिया गया था कि बाहर से आए अनजान यात्री आज तक उनके बीच चक्करघिन्नी होते रहते हैं और अपने गंतव्य को लेकर सुनिश्चित नहीं हो पाते.

इसके बावजूद इलाहाबाद विश्वविद्यालय और इलाहाबाद हाईकोर्ट तो बचे ही रह गए, पुरानी इलाहाबादी तहजीब की तासीर भी बदलने से रह गई. तभी तो महाकुंभ में आने वाले श्रद्धालुओं और इलाहाबादियों के संबंधों की मधुरता अभी भी जस की तस है और बस्तर निवासी हिंदी कवि निधीश त्यागी की अरसा पहले लिखी इन काव्य पंक्तियों ने अभी भी अपनी प्रासंगिकता नहीं कोई है: महाकुंभ के लिए आने वाले पांव/ रास्ता देते चलते हैं/ इलाहाबाद को/ रास्ता काटने का/ बुरा नहीं मानते.

इतिहास गवाह है, कुंभों और महाकुंभों की लंबी परंपरा में कभी कुंभयात्री इलाहाबादियों की या इलाहाबादी कुंभ यात्रियों की किसी भी तरह की असुविधा के हेतु नहीं बने. परस्पर सत्कार व सहकार की भावना हमेशा बनाए रखी उन्होंने और आज भी बनाए रखी है. कुछ इस तरह कि उनके प्रसंग में हिंदी के वरिष्ठ कवि स्मृतिशेष कुंवर नारायण की ये काव्य पंक्तियां याद की जा सकें:

एक अजीब-सी मुश्किल में हूं इन दिनों—/मेरी भरपूर नफ़रत कर सकने की ताक़त/दिनोंदिन क्षीण पड़ती जा रही/अंग्रेज़ों से नफ़रत करना चाहता/जिन्होंने दो सदी हम पर राज किया/तो शेक्सपीयर आड़े आ जाते/जिनके मुझ पर न जाने कितने एहसान हैं/मुसलमानों से नफ़रत करने चलता/तो सामने ग़ालिब आकर खड़े हो जाते/अब आप ही बताइए किसी की कुछ चलती है/उनके सामने?/सिखों से नफ़रत करना चाहता/तो गुरु नानक आंखों में छा जाते/और सिर अपने आप झुक जाता/और ये कंबन,/त्यागराज, मुत्तुस्वामी…/लाख समझाता अपने को/कि वे मेरे नहीं/दूर कहीं दक्षिण के हैं/पर मन है कि मानता ही नहीं/बिना उन्हें अपनाए!

आइए, प्रार्थना करें कि वास्तव में नफ़रत करना और उसे बढ़ावा देकर अपनी सत्ता की उम्र लंबी करना चाहने वालों की यह बेचारगी, कम से कम अपने देश में कभी खत्म न हो.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)