क्यों गन्ने की खेती पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चुनावी मुद्दा नहीं है?

गन्ने की खेती का मसला राजनीतिक दलों के लिए ही नहीं आश्चर्यजनक रूप से खुद किसानों के लिए भी चुनावी मुद्दा नहीं है.

गन्ने की खेती का मसला राजनीतिक दलों के लिए ही नहीं आश्चर्यजनक रूप से खुद किसानों के लिए भी चुनावी मुद्दा नहीं है.

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‘गन्ने की खेती किसानों का मुद्दा है, चुनावी मुद्दा नहीं. अगर कोई पार्टी चुनावों में सिर्फ किसानों के मुद्दे पर जाएगी तो पक्का उसे हार का सामना करना पड़ेगा. दसअसल हमारे राजनीतिक दल किसानों को जाति-धर्म में बांटने में सफल हो गए हैं. इसलिए खेती अब चुनावी मुद्दा नहीं है.’ ये बातें हमसे भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता चौधरी राकेश टिकैत ने कही.

अगर हम थोड़ा-सा पीछे जाएं तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ना बेल्ट के किसान सड़कों पर ही नजर आए थे. पिछले पूरे साल गन्ना किसानों ने समय से भुगतान किए जाने समेत कई मसलों पर राष्ट्रीय राजमार्गों को जाम किया था, लेकिन जब चुनाव सिर पर है तो यह मुद्दा गायब क्यों हो गया? हमने यह सवाल शामली के किसान नेता कुलदीप पंवार से पूछा.

पंवार ने बताया, ‘पहली बात तो हमारा भारतीय किसान यूनियन इस विधानसभा चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल को समर्थन नहीं कर रहा है. अब आपके सवाल का जवाब यह है कि हमारे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के चुनाव में वोट बिरादरी और धर्म के आधार पर पड़ता है. इसके अलावा प्रत्याशी से व्यक्तिगत संपर्क भी मायने रखता है. अब किसान तो हर बिरादरी के हैं. सिर्फ किसानी के नाम पर वे चुनाव के वक्त एकजुट नहीं होते हैं. एक लाइन में कहें तो वोट देने जाते समय किसानों के मन में खेती सबसे आखिरी मुद्दा होता है.’

सुनने में यह बड़ा अजीब लगता है कि आखिर सालभर खेती करने वाले किसान जब पांच साल में प्रदेश में सरकार बना रहे होते हैं तो खेती उनके लिए मायने क्यों नहीं रखती है? क्या गन्ने समेत दूसरी फसलों की खेती में कोई समस्या नहीं है जो सरकार दूर कर सके?

इस सवाल का जवाब हापुड़ के महमूदपुर गांव के गन्ना किसान अमरपाल और रणबीर ने हमें दिया. अमरपाल सिंह ने बताया, ‘किसानों के पास मुद्दों की कमी नहीं है. हम सड़क पर उतरे तो सरकार ने गन्ना किसानों के भुगतान के मसले को थोड़ा ठीक किया है. हालांकि अब भी कुछ मिलें देरी से भुगतान कर रही हैं. दूसरी तरफ किसानों को कर्ज का मर्ज देकर सरकार उनकी क्षमता कम कर रही है. नोटबंदी ने भी हमारी खेती चौपट की है.’

अमरपाल बस इतना बोल पाए थे कि रणबीर ने उन्हें बीच में टोक दिया और बोले, ‘देखिए भैया किसानों के मुद्दे बेशुमार हैं. इस पर कई बार हम वोट भी देते हैं लेकिन सब ठग लेते हैं. हमारे प्रधानमंत्री ने किसानों के फील गुड की बात कही थी लेकिन एक बार फिर फील गुड का नारा शीरा बनकर बह गया. अच्छे दिन चुनावी जुमला साबित हुआ. इसके बदले में हमें फसल बीमा मिला है जो हमारे किसी काम का नहीं है.’

फसल बीमा के मसले पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बहुत सारे किसान नाराज नजर आए. हमने भारतीय किसान यूनियन के मीडिया प्रभारी धमेंद्र मलिक से इस बारे में पूछा तो उन्होंने बताया, ‘गन्ना की खेती में फसल या तो पूरी तरह से बर्बाद होती है या फिर पूरी तरह सुरक्षित रहती है, लेकिन बीमा में आंशिक सुरक्षा का प्रावधान है. तो गन्ना किसानों के लिए बीमे का कोई मतलब नहीं है. इसके अलावा बीमा के नाम पर सबके खातों से पैसा कट गया है. यह बात किसानों को परेशान कर रही है.’

जब हमने उनसे यह पूछा कि क्या फसल बीमा के मसले पर चुनाव में गन्ना किसान एकजुट होकर वोट देंगे तो मलिक ने जवाब दिया नहीं. उन्होंने कहा, ‘खेती-किसानी चुनाव में मुद्दा नहीं है. चुनाव के बाद हम किसानों के मसले को लेकर सड़क पर उतरेंगे. प्रदेश में जो भी सरकार बनेगी हम उसे किसानों के हित में काम करने के लिए मजबूर करेंगे.’

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जब हमने उनसे पूछा कि आप अभी एक किसान हितैषी सरकार क्यों नहीं चुन रहे हैं तो उन्होंने कहा, ‘पिछले कुछ दशकों में राजनीतिक दल किसानों को बांटने के अपने एजेंडे में सफल हो गए हैं. यह किसान और उनसे जुड़े संगठनों की हार है कि हम किसानों को पूरी तरह से एकजुट नहीं कर पाए हैं. ऐसे में चुनाव से पहले हम किसानों को एकजुट करने जाएंगे तो वो बंट जाएंगे लेकिन चुनाव के बाद वह हमारे साथ एकजुट होते हैं. तब उन्हें पता होता है कि हमारा ही संगठन उनके हितों के लिए सरकार से लड़ाई करेगा.’

मुजफ्फरनगर के रोहिणी खुर्द गांव के गन्ना किसान सोना त्यागी भी मलिक की बात का समर्थन करते नजर आए. उन्होंने कहा, ‘देखिए हम किसान हैं. हम घर में कम खेत और सड़क पर ज्यादा रहते हैं. अभी चुनाव बीत जाने दीजिए अभी सब जातियों में बंटे हुए हैं जैसे ही यह खत्म होगा किसान एकजुट हो जाएंगे. हालांकि हमें खेतों में ही रहना पसंद है पर जब सरकारें नहीं मानतीं तो मजबूरी में सड़क पर भी उतरना पड़ता है.’

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में करीब साठ से सत्तर विधानसभा सीटें ऐसी हैं जिन पर गन्ना किसान हार-जीत तय करते हैं. चुनाव से पहले भाजपा, कांग्रेस, सपा और बसपा जैसे सभी दलों ने गन्ना किसानों के भुगतान को लेकर एक-दूसरे पर खूब आरोप भी लगाए.

शामली की गुड़मंडी के व्यापारी और किसान ओमवीर कहते हैं, ‘किस पार्टी के किस नेता का नाम हम बताएं. सारी राजनीतिक पार्टियों के नेता जब इस इलाके में आते हैं तो दूसरे पर गन्ना किसानों और व्यापारियों की परवाह न करने का आरोप लगाते हैं लेकिन बड़ी चालाकी से चुनाव के ठीक पहले यह मसला रह ही नहीं जाता है. किसी भी पार्टी ने प्रत्याशियों को टिकट देते समय खेती-किसानी की परवाह नहीं की है. सब को जाति-धर्म के आधार पर टिकट दिया गया है.’

फिलहाल इस मामले की पड़ताल करते हुए कुछ स्वाभाविक से सवाल उठे कि इस विधानसभा चुनाव में किसी भी पार्टी की जीत से गन्ना किसानों का कितना भला होगा? क्या आत्महत्या का सिलसिला रुकेगा? क्या फिर गन्ना किसानों को सड़क पर उतरना नहीं पड़ेगा? क्या वह राष्ट्रीय राजमार्ग जाम करने के बजाय खेतों में काम करके हरियाली की चमक बिखरेंगे? इन सवालों का जवाब भविष्य के गर्त में छिपा है.

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