बनारस की छवि को बार-बार बेचा गया है

ग्राउंड रिपोर्ट: मीडिया द्वारा बनारस की मूल समस्याओं से ध्यान हटाकर उसे लंका से काशी विश्वनाथ और बीएचयू पर केंद्रित कर दिया गया. इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पक्ष या विपक्ष में कर दिया गया. यह न तो जनतंत्र के लिए ठीक बात है और न ही पत्रकारिता के लिए.

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ग्राउंड रिपोर्ट: मीडिया द्वारा बनारस की मूल समस्याओं से ध्यान हटाकर उसे लंका से काशी विश्वनाथ और बीएचयू पर केंद्रित कर दिया गया. इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पक्ष या विपक्ष में कर दिया गया. यह न तो जनतंत्र के लिए ठीक बात है और न ही पत्रकारिता के लिए.

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बनारस में चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी को काफिला. (फाइल फोटो: पीटीआई)

चीज़ें बनाई जाती हैं, उनकी छवि बनाई जाती है. फिर उसे बेचा जाता है. बनारस की एक छवि औपनिवेशिक प्रशासकों ने बनाई, फिर मानवशास्त्रियों ने बनाई और बेच दिया. इसके बाद भारतीय जनों ने इस छवि को बेचा.

जब से नरेंद्र मोदी वाराणसी से सांसद बने हैं, तब से इस शहर की एक छवि फिर से निर्मित की गई और उसे छह मार्च की शाम तक फिर बेचा गया, जब तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनका क़ाफ़िला वहां से कूच नहीं कर गया. इसे 11 मार्च को फिर बेचा जाएगा.

मीडिया द्वारा बनारस ज़िले की मूल समस्याओं से ध्यान हटाकर उसे लंका से काशी विश्वनाथ और बीएचयू पर केंद्रित कर दिया गया और इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पक्ष या विपक्ष में कर दिया गया.

शहर के ग्रामीण इलाक़ों और इसकी चौहद्दी पर बसे लोगों को दरकिनार किया गया. बहुजन समाज पार्टी सहित कई छोटे दलों का कोई नामलेवा भी न बचा.

चुनाव आयोग के जो नियम हैं वे परंपरागत बिल्ला पोस्टर से प्रचार करने वाले वामपंथी दलों के विपरीत जाते हैं. यह जानते हुए भी वे कोई सीट न जीतेंगे, उन्हें मीडिया ने बाहर कर दिया.

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सपा और कांग्रेस के रोड शो के दौरान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के साथ उनकी पत्नी डिंपल यादव और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी बनारस में नज़र आए. (फाइल फोटो: पीटीआई)

टेलीविज़न पर वही नेता और दल बिका जिसकी एक फेस वैल्यू थी. इसी प्रकार जौनपुर या चंदौली से भी रिपोर्टिंग या परिचर्चा का अभाव दिखा. लोग, प्रत्याशी और जगहें जानबूझकर ग़ायब कर दी गईं.

बनारस का चुनाव और बनारस में चुनाव ख़ूब बिका. जिनके पास इस साल की तस्वीरें नहीं थीं, उन्होंने 2014 की तस्वीरें बेच दीं. ख़बर नई तस्वीर पुरानी!

इसकी मदद से उत्तर प्रदेश के चुनाव का ध्रुवीकरण केवल दो पार्टियों के बीच किया गया. यह न तो जनतंत्र के लिए और न ही पत्रकारिता के लिए ठीक बात है. ठीक बात है कि नरेंद्र मोदी पिछले 72 घंटे से बनारस में अपने मतदाताओं को छेक कर बैठे थे लेकिन पत्रकारों ने भी तो यही किया.

उन्होंने बनारस शहर के बाहर या दूसरे पड़ोसी ज़िलों में जाने की ज़हमत नहीं उठाई. इसे लेकर हमने एक ज़हीन नौजवान शेखर से बात की. वे कक्षा 12 के छात्र हैं और अभी मतदाता नहीं हैं.

उन्होंने कहा कि बनारस के बारे में एक बनी बनाई राय यहां के लोगों पर लादी जा रही है. लंका गेट पर चाय की दुकान वाले पटेल जी कहते हैं यह अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री जी यहां आए और लोगों की बात सुनी.

एक अन्य व्यक्ति ने कहा कि उनके आने से लोगों को अपनी पर्ची पकड़ाने में आसानी हुई. अब उनकी समस्या का कुछ हल निकल आएगा. यह दोनों लोग भारतीय जनता पार्टी की जीत पर आश्वस्त थे तो बगल में खड़े श्री कुमार भड़क गए.

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बनारस में चुनाव प्रचार के दौरान बसपा सुप्रीमो मायावती. (फाइल फोटो: पीटीआई)

उन्होंने कहा कि अगर सब कुछ ठीक है तो वे और उनके मंत्रिमंडल के लोग यहां तीन दिन से कर क्या रहे थे? वास्तव में यह ख़बर फेसबुक, अख़बारों और टीवी पर थी कि भारतीय जनता पार्टी डरी हुई है.

इस ख़बर को देश की पूरी जनता के साथ बनारस की जनता ने भी पढ़ा-सुना और यदि कोई बनारस के बारे में अब कुछ जानना चाहता है तो वह उसे जस का तस वापस कर रही है. वह अपना विचार 8 मार्च को पोलिंग बूथ पर बताएगी. यही बात तो एक सब्ज़ी वाली महिला ने मुझसे कही थी.

लेकिन कहानी यही नहीं है. कहानी इसके बाद यह भी है कि मीडिया द्वारा रचे गए नैरेटिव ने बनारस के पड़ोसी जिलों जैसे चंदौली के मतदाताओं को प्रभावित करने का प्रयास किया है. जब वे नहीं प्रभावित होते दिखे तो उनमें से एक बड़े हिस्से के मतदाताओं को पैसा दिया गया कि वे वोट न दें.

यह सब सैयद राजा विधानसभा में हुआ, जिसके बारे में तब जानकारी मिली है जब मुस्लिम नाइयों और कुछ दलितों को लुभाने का प्रयास किया गया. उन्हें पैसा दिया गया कि वे वोट न डालें.

कहा जाता है कि भारतीय मतदाता अपना विचार वोट डालने से ठीक पहले निर्धारित करता है. अगर पैसा लेकर भी वह पलट गया तो! इसलिए उन्हें वोट न डालने के लिए मनाने का प्रयास किया गया. यह एक प्रकार से वित्तीय बूथ कैप्चरिंग ही हुई. आप चाहें तो इसे कुछ दूसरा नाम दे सकते हैं.

बनारस शहर से थोड़ा बाहर आइए और इलाहाबाद की तरफ़ चलिए. यहां रोहनिया और जगतपुर के बीच दो पार्टियों के लोगों ने कुछ दलित महिलाओं को पैसे का लालच दिया. मैंने पूछ ही लिया कि क्या आपको पैसे मिले हैं?

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आख़िरी चरण के चुनाव की तैयारियां प्रशासनिक स्तर पर भी जोर-शोर पर हैं. बनारस में मतदान केंद्रों के लिए ईवीएम लेने के लिए लाइन में लगे मतदान अधिकारी. (फाइल फोटो: पीटीआई)

उन्होंने कहा कि पैसे नहीं मिले हैं लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया कि दवाब है कि पैसे लेकर वोट दीजिए. यह दो कहानियां जनतंत्र की गिरावट की ओर साफ़ इशारा कर रही हैं.

बनारस ज़िले में कई मुस्लिम प्रत्याशी भी हैं. वे शहर में भी हैं. सिगरा के पास एक नौजवान ने पलटकर मुझसे पूछ लिया कि अमुक मुस्लिम प्रत्याशी के बारे में कोई क्यों बात नहीं करता? आप ही बताइए? अब मैं उसे क्या बताता!

सबसे रोचक और बेधक सवाल उस महिला का था जिससे मैंने पूछा कि क्या आप किसी महिला प्रत्याशी का नाम बता सकती हैं? उसने कहा कि वह इसे नहीं बताएगी. पिछले एक हफ़्ते से कई लोग उससे किसिम-किसिम के सवाल पूछ चुके हैं.

जवाब लिखकर वे उसे दिल्ली में जाकर बेच देते होंगे और पैसा बनाते होंगे. मैंने कहा कि मैं दिल्ली का नहीं इलाहाबाद का हूं. उसने फिर मुझसे पूछा, ‘क्या इलाहाबाद में इसे नहीं बेच पाओगे जो अपनी डायरी में लिखा है?

बनारस के आम नागरिक नेताओं के साथ पत्रकारों का भी काफ़ी मज़ा ले रहे हैं. वे उन्हें कुछ का कुछ बताते हैं और हलके से हंस देते हैं.

हां, एक बात और 8 मार्च को कुछ लोग जानबूझकर वोट देने शायद न जाएं. उनका वोट देने के लिए न जाना भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना मतदान स्थल पर उनका जाना जो वोट देने वाले हैं. हमारा जनतंत्र ऐसे ही बन रहा है.

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