हबीबगंज स्टेशन का अनुभव बताता है कि रेलवे का निजीकरण करोड़ों यात्रियों के लिए घातक साबित होगा

बेस्ट ऑफ 2018: आधुनिकीकरण के नाम पर रेलवे स्टेशनों को निजी कंपनियों को सौंपने की पूरी तैयारी है, लेकिन देश के पहले तथाकथित मॉडल स्टेशन के शुरुआती अनुभव आम रेल यात्रियों के लिए डराने वाले हैं.

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बेस्ट ऑफ 2018: आधुनिकीकरण के नाम पर रेलवे स्टेशनों को निजी कंपनियों को सौंपने की पूरी तैयारी है, लेकिन देश के पहले तथाकथित मॉडल स्टेशन के शुरुआती अनुभव आम रेल यात्रियों के लिए डराने वाले हैं.

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हबीबगंज जंक्शन (फोटो साभार: indiarailinfo.com)

कल्पना कीजिए कि आप ने अपनी मोटरसाइकिल रेलवे स्टेशन पर पार्किंग की है और जब वापस आते हैं तो दो दिनों के पार्किंग चार्ज के रूप में आपको 60 रुपये की जगह 480 रुपये का बिल थमा दिया जाता है.

पिछले दिनों भोपाल स्थित हबीबगंज रेलवे स्टेशन पर यात्रियों ने अपने आपको इसी स्थिति में पाया जिसके बाद पांव के नीचे से जमीन खिसकनी ही थी.

दरअसल बंसल पाथवे हबीबगंज प्राइवेट लिमिटेड ने हबीबगंज स्टेशन पर पार्किंग शुल्क कई गुना बढ़ा दिया था. जिसके बाद अचानक इस तरह से रेट बढ़ने से काफी विवाद हुआ और नागरिकों की तरफ से इसका कड़ा विरोध किया गया.

इस पूरे मामले में देश का सबसे बड़ा सार्वजनिक उपक्रम भारतीय रेलवे बहुत बेचारा नजर आया. उसके अधिकारी बस यही कह पा रहे थे कि प्राइवेट कॉन्ट्रैक्टर पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के जरिए मिली ताकतों का दुरुपयोग कर रहा है.

पहले तो रेलवे के अधिकारियों के हस्तक्षेप के बावजूद कंपनी ने पार्किंग चार्ज घटाने से साफ इनकार कर दिया हालांकि बाद में इसमें थोड़ी कमी कर दी गयी लेकिन पार्किंग फीस अभी भी पहले के मुकाबले 10 गुना ज्यादा है.

ऊपर से कंपनी के अधिकारियों की तरफ से यह साफ कर दिया गया है कि बढ़े हुए पार्किंग शुल्क में जितनी कमी हो सकती थी कर दी गई है अब और कोई बदलाव नहीं किया जाएगा.

दरअसल 1 फरवरी से कंपनी ने जिस तरह से पार्किंग शुल्क बढ़ाया था वो आम आदमी के लिए रूह कंपा देने वाला है. बढ़ोतरी के तहत दोपहिया वाहनों के लिए मासिक पास शुल्क 5,000 रुपये और चार पहिया गाड़ियों के लिए 16,000 रुपये कर दिया गया था.

इसी तरह से दो घंटे के लिए दो पहिया वाहन खड़ा करने पर 5 रुपये की जगह 15 रुपये व चार पहिया वाहन के 10 की जगह 40 रुपये कर दिया गया था. यही नहीं हर दो घंटे बाद चार्ज बढ़ता जाएगा और इस तरह से 24 घंटे के लिए दोपहिया वाहन का चार्ज 235 रुपये और चार पहिया का चार्ज 590 रुपये कर दिया गया था.

इसी के साथ ही पार्किंग में यह सूचना भी लगा दी गयी कि पार्किंग में खड़े वाहनों की सुरक्षा के लिए कंपनी जिम्मेदार नहीं है और पार्किंग के दौरान गाड़ी में कोई डेंट आने पर, कोई सामान चोरी होने पर कंपनी जवाबदार नहीं होगी.

विरोध के बाद इसमें कमी की गई है लेकिन अभी भी रेट सिरर चकरा देने वाला है, अब दोपहिया वाहनों के लिए मासिक पास शुल्क 4,000 रुपये महीना और चार पहिया गाड़ियों के लिए 12,000 रुपये महीना कर दिया गया है.

इसी तरह से हबीबगंज स्टेशन पर अब दोपहिया वाहन के लिए एक दिन का पार्किंग चार्ज 175 रुपये और चार पहिया वाहनों के लिए 460 रुपये चुकाने होंगे.

हबीबगंज पहले से ही आईएसओ प्रमाणित रेलवे स्टेशन है लेकिन पिछले साल मार्च में सरकार द्वारा इसके पुनर्विकास व आधुनिकीकरण का फैसला किया गया. रेलवे स्टेशन को आधुनिक बनाने के लिए बंसल ग्रुप को ठेका दिया गया और इस तरह से भारतीय रेल स्टेशन विकास निगम लिमिटेड (आईआरएसडीसी) और बंसल ग्रुप के बीच समझौते पर हस्ताक्षर के बाद से यह देश का पहला प्राइवेट रेलवे स्टेशन बन गया है.

समझौते के तहत रेलवे ने अपने आपको केवल गाड़ियों के संचालन तक ही सीमित कर लिया है जबकि कंपनी स्टेशन का संचालन करेगी जिसमें स्टेशन पर पॉर्किंग, खानपान आदि का एकाधिकार तो कंपनी के पास रहेगा ही इसके अलावा कंपनी स्टेशन पर एस्केलेटर, शॉपिंग के लिए दुकानें, फूड कोर्ट और अन्य सुविधाओं का विस्तार भी करेगी.

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(फोटो साभार: indiarailinfo.com)

इससे पहले भी कंपनी का एक और कारनामा सामने आ चुका है. पिछले साल मई में भोपाल से प्रकाशित समाचार पत्रों में एक खबर प्रकाशित हुई थी जिसके अनुसार बंसल पाथवे हबीबगंज लिमिटेड द्वारा हबीबगंज स्टेशन परिसर में कमर्शियल कॉम्प्लेक्स के बेसमेंट निर्माण के लिए मंजूरी से अधिक खुदाई की जा रही थी.

इस मामले में जब शिकायत पर खनिज विभाग द्वारा जांच किया गया तो पाया कि कंपनी के पास 2 हजार घनफीट के खुदाई की मंजूरी की तुलना में 10 गुना अधिक खुदाई की गई थी. यही नहीं इस खुदाई से निकले खनिज को बाद में रेलवे के निर्माण कार्य में इस्तेमाल करना था लेकिन इसे बाजार में बेचा जा रहा है.

पिछली डेढ़ सदी के दौरान रेलवे ने भारतीयों के मोबिलिटी में क्रांतिकारी रूप से बदलाव लाने का काम किया है. एक तरह से यह हमारे राष्ट्रीय अखंडता की सबसे बड़ी प्रतीक है.

रेलवे ने इस महादेश के विभिन्न प्रान्तों, लोगों, स्थानों को जोड़ने का काम किया है. रेल आम भारतीयों की सवारी है. साथ ही सबसे बड़ा सार्वजनिक उपक्रम भी. यह अन्य परिवहन साधनों की तुलना में किफायती भी है. आज करीब ढाई करोड़ लोग प्रतिदिन ट्रेनों से यात्रा करते हैं जो कि रेलवे के बिना संभव नहीं है.

यह पर्यावरण की रक्षा करती है. साथ ही लाखों लोगों को नौकरी देने का काम भी करती है. रेल हमारे लिए यातायात का मुख्य साधन तो है. साथ ही इसका जुड़ाव हमारे जज़्बातों से भी रहा है.

पीढ़ियों से यह हमारे जीवन का एक जरूरी हिस्सा बन चुकी है. हम सब की रेलवे से जुड़ी कोई न कोई कहानी जरूर है लेकिन हबीबगंज के शुरुआती अनुभव बताते हैं कि रेलवे के निजीकरण के कितने व्यापक प्रभाव पड़ने वाले हैं.

इसे देख सुन कर छत्तीसगढ़ के शिवनाथ नदी की कहानी याद आ गई. 1998 में इसका निजीकरण कर दिया गया जिसके बाद नदी पर सदियों से चला आ रहा सामुदायिक अधिकार भी खत्म हो गया था.

हबीबगंज जंक्शन के साथ भी यही हुआ है. स्टेशन का संचालन एक निजी कंपनी के हाथ में चले जाने के बाद इस पर से भी सामुदायिक अधिकार खत्म हो गया है. लेकिन यह कहानी महज हबीबगंज तक सीमित नहीं रहने वाली है.

मोदी सरकार भारतीय रेलवे के इतिहास में अब तक का सबसे बड़ा निजी हस्तक्षेप करने के प्रति प्रतिबद्ध नजर आ रही है. रेलवे स्टेशन के आधुनिकीकरण और वहां पर विश्वस्तरीय सुविधाओं के नाम पर 23 अन्य स्टेशनों को निजी कंपनियों को सौंपने की पूरी तैयारी है.

इसके अगले चरण की योजना देश के 400 रेलवे स्टेशनों को सार्वजनिक-निजी भागीदारी के तहत अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाने की है. देश का यह पहला तथाकथित मॉडल स्टेशन के शुरुआती अनुभव आम रेल यात्रियों के लिए डराने वाले हैं. हबीबगंज रेलवे स्टेशन को वर्ल्ड क्लास बनने में अभी समय है.

काम भी शुरुआती दौर में ही है लेकिन कंपनी द्वारा पार्किंग रेट को कई गुना बढ़ा दिया जाना ही जाहिर करता है कि उनका पूरा फोकस मुनाफे पर है, उन्हें यात्रियों की सुविधा या सहूलियत से कोई सरोकार नहीं है.

हबीबगंज का अनुभव बताता है कि रेलवे का किसी भी तरह का निजीकरण करोड़ों यात्रियों के लिए घातक साबित हो सकता है. आम आदमी के लिए रेलवे जैसा सुलभ साधन उनके हाथ से बाहर निकल जाएगा.

हबीबगंज जंक्शन के प्राइवेट लिमिटेड बनने का फायदा सिर्फ एक कंपनी को होगा लेकिन इसका खामियाजा लाखों यात्रियों को उठाना पड़ेगा.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

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