फाइव स्टार शैली में बने मुख्यालय की कहीं कोई चर्चा ही नहीं है

आप अपने राजनीतिक पत्रकारों और संपादकों से यह भी नहीं जान पाएंगे कि दीनदयाल उपाध्याय के अंत्योदय पर चलने वाली पार्टी ने कई सौ करोड़ का मुख्यालय बनाया है, वो भीतर से कितना भव्य है.

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(फोटो: पीटीआई)

आप अपने राजनीतिक पत्रकारों और संपादकों से यह भी नहीं जान पाएंगे कि दीनदयाल उपाध्याय के अंत्योदय पर चलने वाली पार्टी ने कई सौ करोड़ का मुख्यालय बनाया है, वो भीतर से कितना भव्य है.

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नई दिल्ली स्थित भाजपा का नया मुख्यालय. (फाइल फोटो: पीटीआई)

राजनीतिक पत्रकारों को कभी ठीक से समझ नहीं पाया. गोरखपुर में योगी की हार बड़ी घटना तो है लेकिन इस घटना में क्या इतना कुछ है कि चार-चार दिनों तक सैकड़ों पत्रकार लिखने में लगे हैं.

राजनीतिक पत्रकारों को ही सिस्टम को करीब से देखने का मौका मिलता है. मगर, भीतर की बातों को कम ही पत्रकार लिख पाते हैं या लिखते हैं. उसकी वजह ये भी हो सकती है कि किसी से बना बनाया समीकरण न बिगड़ जाए.

इसलिए वे हमेशा चुनावी नतीजों और चुनाव के इंतज़ार में रहते हैं ताकि केवल हारने और जीतने की संभावना के गहन विश्लेषण से अपना टाइम काट लिया जाए. कई बार खुद पर ही शंका होने लगती है कि शायद वही दुनिया का दस्तूर होगा और लोग भी यही जानना चाहते होंगे.

राजनीतिक पत्रकारों और राजनीतिक संपादकों को हवा वाले टॉपिक ही क्यों पसंद आते हैं. पहले की हवा और बाद की हवा मापने के लिए बैरोमीटर लिए घूमते रहते हैं. जिन चिरकुट प्रवक्ताओं का यही ठिकाना नहीं कि एक इनकम टैक्स के फोन पर वे किस पार्टी में होंगे, उनके साथ बैठकर एंकर लोग 2019 का समीकरण बना रहे हैं.

फिर से कागज़ पर हिसाब जोड़ा जाने लगा है कि माया और अखिलेश मिल गए तो यूपी में भाजपा 50 सीट पर आ जाएगी.

कोई यह नहीं बता रहा है कि जब माया-अखिलेश और कांग्रेस अलग-अलग लड़ते थे, तब भी यूपी में बीजेपी क्यों हार जाती थी? फिर इन तीनों के अलग लड़ने से बीजेपी दो बार ऐतिहासिक रूप से जीती भी. वो कैसे हुआ?

इन्हीं सब पर लिखकर आपको भरमाया जाता रहता है कि बड़ा भारी राजनीतिक विश्लेषण हो रहा है. कौन कितने में ख़रीदा गया, कौन कितने में बिठाया गया. ये तो आप उनके ज़रिए कभी नहीं जान पाएंगे.

आप अपने राजनीतिक पत्रकारों और संपादकों से यह भी नहीं जान पाएंगे कि दीनदयाल उपाध्याय के अंत्योदय पर चलने वाली पार्टी ने कई सौ करोड़ का मुख्यालय बनाया है, वो भीतर से कितना भव्य है.

फाइव स्टार है या सेवन स्टार है? स्वीमिंग पुल छोड़ कर क्या-क्या बना है वहां? उसकी भव्यता क्या कहती है? क्या उसकी भव्यता में यह भाव भी स्थायी है कि हम ही इस देश के अब शासक दल हैं. किला बना नहीं सकते तो चलो मुख्यालय बना कर ही किला और राजमहल का सपना पूरा कर लेते हैं.

पहले भाजपा के दफ्तर में कुछ भी बनता था, टीवी का रिपोर्टर घूम-घूम कर दिखाता था. मगर, फाइव स्टार शैली में बने इस मुख्यालय की कहीं कोई चर्चा ही नहीं है.

जब देश में भीषण ग़रीबी हो, बेरोज़गारी हो, ढंग के स्कूल-कॉलेज न हों, तब उसी समय में एक पार्टी आलीशान मुख्यालय बनाती है और भीतर जाकर देखकर गश खा जाने वाले राजनीतिक पत्रकार लिखने से डर जाते हैं. तब यह समझा जा सकता है कि वे क्यों दिन रात और बार-बार गोरखपुर में योगी की हार पर लिख रहे हैं.

जानते हुए कि न तो योगी ख़त्म होने वाले नेता हैं, न मोदी. ख़त्म अगर कोई हो रहा है तो वह इस देश की भोली और ग़रीब जनता और उन तक सूचना पहुंचाने वाले ताकतवर राजनीतिक पत्रकार.

क्या आपने भाजपा के नए फाइव स्टार मुख्यालय की भीतर से कोई तस्वीर देखी है? किसी ने ट्वीट किया है या भीतर जाने वालों को तस्वीर लेने से ही रोक दिया गया या अपनी श्रद्धा के प्रदर्शन में वे ऐसा नहीं कर पाए?

हो सकता है कि ऐसी तस्वीरें लोगों ने ट्वीट की हों और मैं न देख पाया. मैंने तो अपनी टाइम लाइन पर नए मुख्यालय के बारे में कुछ भी नहीं देखा. आपने देखा हो तो बताइयेगा.

पूछिएगा किसी राजनीतिक पत्रकार से. आपने भाजपा का फाइव स्टार मुख्यालय देखा है, कैसा है, ताज होटल से अच्छा है या मैरियट से? क्या आपने अध्यक्ष जी का कमरा देखा है? नए मुख्यालय में अध्यक्ष जी का कमरा, उनके बैठने की पोज़िशन इन सबका भी तो सत्ता समीकरण और शक्ति संतुलन से संबंध होता है, उसका कहीं विश्लेषण क्यों नहीं हो रहा है.

मैं नहीं कहता कि आप आलोचना ही करें, जी भर के गीत गाइये मगर तस्वीर तो दिखाइये साहब. जनता की सेवा करने वाली पार्टी के फाइव स्टार होटल की भीतर से कोई तस्वीर नहीं है, आप गोरखपुर के नतीजे से 2019 का रिज़ल्ट निकाल दे रहे हैं. हद है.

(रवीश कुमार के ब्लॉग कस्बा से साभार)

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