सत्यजीत रे: जिन्होंने परदे पर हीरो नहीं, बल्कि आम आदमी को रचा 

सत्यजीत रे ने देश की वास्तविक तस्वीर और कड़वे सच को बिना किसी लाग-लपेट के ज्यों का त्यों अपनी फिल्मों में दर्शाया. 1943 में बंगाल में पड़े अकाल को उन्होंने ‘पाथेर पांचाली’ दिखाया तो वहीं ‘अशनि संकेत’ में अकाल की राजनीति और ‘घरे बाइरे’ में हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद पर चोट की.

सत्यजीत रे. (फोटो साभार: क्रियेटिव कॉमन्स)

जयंती विशेष: सत्यजीत रे ने देश की वास्तविक तस्वीर और कड़वे सच को बिना किसी लाग-लपेट के ज्यों का त्यों अपनी फिल्मों में दर्शाया. 1943 में बंगाल में पड़े अकाल को उन्होंने ‘पाथेर पांचाली’ दिखाया तो वहीं ‘अशनि संकेत’ में अकाल की राजनीति और ‘घरे बाइरे’ में हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद पर चोट की.

सत्यजीत रे. (फोटो साभार: क्रियेटिव कॉमन्स)
सत्यजीत रे. (जन्म: 02 मई 1921 – अवसान: 23 अप्रैल 1992). (फोटो साभार: क्रियेटिव कॉमन्स)

ब्रिटिश इंडिया में बंगाल प्रेसीडेंसी के कलकत्ता शहर के उस घर के आधे हिस्से में प्रिंटिंग ब्लॉक्स की ध्वनि और काग़ज़ की फड़फड़ाहट गूंजती थी. कच्ची गीली स्याही की गंध ने कोई कोना अछूता न छोड़ा था.

जब वो बालक जन्मा, उसने इसी ठक-ठक, फड़-फड़ की सुरलहरी और महक को पहचाना. वो इकलौता बच्चा था, पर अकेला नहीं था. उसके खिलौने थे… ब्लॉक्स तथा साथी थे… प्रेस में काम करने वाले कंपोज़िटर्स.

उसने ब्लॉक्स पर उभरे अक्षरों को छूकर, आखर पहचानना सीखा. किसे मालूम था कि ये अक्षर उसके दिल में इस तरह छपेंगे कि वर्षों बाद ये बच्चा ख़ुद के ‘टाइप-फेस’ ईजाद करेगा, जिसे दुनिया आज भी ‘रे-रोमन’ के नाम से जानती है.

इस शख़्स ने किसी रोज़ कहा था कि बचपन में घर में अकेला बच्चा होने पर भी वो कभी अकेला नहीं रहा, उसके पास उसके साथी थे. तब भी एक रोज़ उसने ‘सॉन्ग ऑफ अ लोनली रोड’ (पाथेर पांचाली) की रचना की. पहचाने आप?

जी हां, सब पहचानते हैं इन्हें, ये हैं… मशहूर फिल्मकार सत्यजीत रे.

उनके इस पहलू से हम सब वाक़िफ़ है, मगर यह शख़्स जितना आला दर्ज़े का फिल्मकार था, उतना ही बेहतरीन विज्ञापन निर्माता, ग्राफिक डिज़ाइनर, चित्रकार, लेखक, फिल्म समीक्षक और अलहदा इंसान था.

तभी तो उनकी रचना पाथेर पांचाली को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेस्ट ह्यूमन डॉक्यूमेंट्री का दर्ज़ा दिया गया. यही नहीं, अपनी हर फिल्म में उन्होंने इंसान और समाज के रिश्ते को लेकर ही कथानक गढ़ा.

इस पर फिल्म क्रिटिक्स ने उन्हें ह्यूमैनिस्ट कह दिया. जवाब में सत्यजीत रे ने हर बार यही कहा कि वो मानवीय संवेदनाओं तथा रिश्तों से हमेशा से प्रभावित रहे हैं. वो हीरो नहीं रचते, बल्कि उस आदमी को दर्शाते हैं, जो सामान्य ज़िंदगी जी रहा है, आस-पास के राजनीतिक बदलाव से प्रभावित हो रहा है.

इंसान को समस्याओं से अलग करना बेहद मुश्किल है. रे ने मध्यमवर्गीय किरदार ही सिल्वर स्क्रीन पर प्रदर्शित किए, जिन्होंने दर्शकों के मन के हर हिस्से की टोह ली है. कदाचित यही वजह थी कि पाथेर पांचाली के निर्माण के लगभग 35 साल बाद उसे गहन मानवीय संवदेनाओं से युक्त रचना माना तथा 1991 में ऑस्कर पुरस्कार से नवाज़ा गया.

36 वर्षों में पाथेर पांचाली (1955) से लेकर आगंतुक (1991) तक सत्यजीत रे ने 36 फिल्में बनाई हैं. इनमें कुछ वृत्तचित्र हैं, फीचर फिल्में और लघु फिल्में हैं. ये दास्तां बहुत लंबी है.

अपू त्रयी का पोस्टर. (फोटो साभार: sergioleoneifr.blogspot.com)
अपू त्रयी का पोस्टर. (फोटो साभार: sergioleoneifr.blogspot.com)

गोया बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी. आज ज़िक्र छिड़ा है तो दिल के तार भी जाने किस फ्रीक्वेंसी से कंपित होते हैं…

साल 1921, तारीख़ 2 मई, सत्यजीत रे जन्मे. जिस देश में जन्मे उस पर ब्रिटिश हुकूमत थी, जिस प्रांत में पनपे वहां सिनेमा कब्ज़ा कर चुका था.

सिनेमैटोग्राफ ने जलवा दिखाया तो छह महीने बाद ही कलकत्ता के मिनर्वा थियेटर में एनिमेटोग्राफ मशीन से फिल्म की पहली स्क्रीनिंग हुई. इस मशीन को लेकर शोमैन पूर्वी बर्मा (म्यांमार), सीलोन (श्रीलंका) तथा भारत में जगह-जगह घूमने लगे, तभी से इस घूमते हुए सिनेमा को सामान्यत: बाइस्कोप कहा जाने लगा.

फिर हीरालाल सेन आए, जिन्होंने बंगाली सिनेमा की नींव डाली. जिसके पश्चात 1930 में बनी ‘जमाई सष्ठी’. इसके ठीक एक साल बाद बीएन सरकार ने पहली बांग्ला टॉकी बनाई. फिल्म का नाम था ‘देना पाउना’.

उनके प्रोडक्शन हाउस का नाम था ‘न्यू थियेटर’, जिसका ध्येय वाक्य था… ‘जीवतंग ज्योतिरेतु छायम’ यानी सारे सायों को रौशनी ने जीवन से भर दिया… यही हुआ भी….

बंगाल में सब छाया चित्र… चलचित्र बन गए. बंगाल पर सिनेमा यूं छाया रहा, उधर सत्यजीत रे के दिल में बाइस्कोप की छोटी-सी खिड़की ने सिनेमा के लिए दयार खोल दिए थे.

छह वर्ष की उम्र में सत्यजीत को अपना पैतृक गांव छोड़कर मामा के घर बालगंज जाना पड़ा. दरअसल, पिता के इंतक़ाल के बाद दादाजी की प्रिंटिंग प्रेस बंद हो चुकी थी. इसी के साथ इनकी पत्रिका ‘संदेश’ भी गुमनामी की दराज़ों में दफ़न हो गई.

इसी पत्रिका को आधी सदी बाद 1960 में फिर शुरू किया सत्यजीत रे ने. इसने सफलता के नए आयाम रचे. कवि सुभाष मुखर्जी को इसका संयुक्त एडिटर नियुक्त किया गया. रे ने इसमें ख़ूब लिखा, ख़ासकर बच्चों के लिए लिखा. जासूसी कहानियां, साइंस फिक्शन, लघु कथाओं ने इतनी प्रसिद्धी पाई कि यह पत्रिका हर घर में पढ़ी जाने लगी.

कॉलेज पूरा होने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए रे शांति निकेतन गए, वहां उन्हें नंदलाल बोरा (कलाभवन के प्रिंसिपल) और विनोद बिहारी मुखर्जी (बेहतरीन चित्रकार) का सानिध्य मिला, साथ ही मिले ज्यूइश जर्मन प्रोफसर डॉ. एडमसन.

पाथेर पांचाली फिल्म का एक दृश्य. (फोटो साभार: ट्विटर)
पाथेर पांचाली फिल्म का एक दृश्य. (फोटो साभार: ट्विटर)

इनके ज़रिये संगीत ने उनको छुआ. वे लोग हर शाम या तो सत्यजीत के घर बैठते, ग्रामोफोन पर गीत सुनते या फिर टैगोर के निवास स्थल उत्तरायण के भवन ‘उदीचि’ में पियानो पर नई धुनें रचते, सरगम छेड़ा करते.

डॉ. एडमसन पियानो बजाते और रे उनकी नोटबुक के पन्ने पलटते हुए गाते, भारतीय और पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत ने उनकी रूह के तारों को झंकृत कर दिया. इस गूंज को उनकी हर फिल्म में महसूस किया जा सकता है.

उन्होंने फिल्म तीन कन्या, गोपी ज्ञान, चारूलता, शतरंज के खिलाड़ी में संगीत दिया. उनकी संगीत की समझ इतनी थी कि उन्होंने फिल्मों में भारतीय संगीत के उस्तादों का सहयोग लिया. उदाहरण के तौर पर अपू त्रयी (पाथेर पांचाली, अपराजितो और फिल्म अपूर संसार की शृंखला) और फिल्म पारस पत्थर में पंडित रविशंकर, जलसाघर में उस्ताद विलायत खां, देवी में उस्ताद अक़बर अली खां.

बहरहाल, वक़्त गुज़रा, उन्होंने ब्रिटिश एडवरटाइज़िंग कंपनी डीजे कीमर में काम करना शुरू किया. फिर सिग्नेट प्रेस जॉइन किया. वहां वे विज्ञापन तथा पुस्तकों के कवर डिज़ाइन करते थे. उन्हें जिस तरह के मेटैलिक फॉन्ट की ज़रूरत थी, वो नहीं था.

तब उन्होंने ब्रश पकड़ा. वे पेन की बजाय उसी से लिखते, विज्ञापन बनाते. उन्होंने कैलीग्राफी का विज्ञापन बनाने के लिए प्रयोग शुरू किया. इस तरह प्रकाशन में भी भारतीय तत्व समाहित कर लिया. उन्हीं दिनों रे-रोमन के साथ तीन और टाइप फेस, रे-बिजारे, डैफिस तथा हॉलिडे स्क्रिप्ट भी बनाए.

जवाहर लाल नेहरू की किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया का कवर डिजाइन किया, यही नहीं विल्स सिगरेट के नेवीकट पैकेट का कवर भी उन्होंने ही बनाया.

ये व्यक्ति वाक़ई बिरला ही था, जादू की छड़ी भले ही न थी पास, पर जादू चला देता था. उसके पास पेन था, ब्रश था, टाइप फेस थे, ग्रामोफोन और पियानो थे. हां… बस कैमरे की कमी थी.

देखो, वक़्त ने कैसा षड्यंत्र रचा, कंपनी ने इन्हें अपने काम से लंदन भेजा, जहां से लौटे तो कैमरे का शिकार होकर लौटे. वहां इन्होंने 99 फिल्में देख डाली. फिल्म बनाने का अंखुआ फूट पड़ा और वो तेज़ी से बड़ा होने लगा.

सत्यजीत रे की फिल्म शतरंज के खिलाड़ी के दृश्य में सईद जाफ़री और संजीव कुमार. (फोटो साभार: ट्विटर)
सत्यजीत रे की फिल्म शतरंज के खिलाड़ी के दृश्य में सईद जाफ़री और संजीव कुमार. (फोटो साभार: ट्विटर)

यह 1946 की बात है, देश आज़ाद होने वाला था. रे का मन कैमरे में क़ैद हो रहा था. आख़िरकार 1955 में पहली बार पाथेर पांचाली के ज़रिये उन्होंने फिल्म संसार में क़दम रखा.

इस फिल्म ने 11 अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते, राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल किए, ऑस्कर भी मिला. फिल्म के निर्माण के बाद रे ने कहा कि तीन चीज़ें थीं जिन्होंने फिल्म को बचाया, अपू की आवाज़ नहीं टूटी, दुर्गा बड़ी नहीं हुई और इंदिर ठकुरन (वृद्धा बुआ) मरी नहीं.

हालांकि फिल्म बनाने के लिए रे ने बहुत ही आर्थिक परेशानी का दौर झेला, पत्नी विजया ने अपने गहने गिरवी रख दिए और इंश्योरेंस कंपनी से मिले रुपये भी फिल्म में लगा दिए. विज्ञापन कंपनी से मिलती बंधी-बंधाई आय भी छूट गई, मगर रे फिल्में बनाते रहे.

अपने बेटे संदीप के कहने पर फिल्में बनाने के साथ उन्होंने बच्चों के लिए कहानियां लिखीं और उन पर फिल्में भी बनाई. उन्होंने ‘गोपी गायेन’, अपने दादाजी की कहानी पर रची. इसने इतनी सफलता पाई कि इसका सीक्वल भी बनाया, जिसका नाम है ‘हीरेक राजर देश’ (किंगडम ऑफ डायमंड्स).

उन्होंने अपने जासूसी उपन्यासों पर फिल्में बनाईं, इनमें से ‘द गोल्डन फोर्ट्रेस’ की शूटिंग राजस्थान में की. सत्यजीत रे पर टैगोर का बेहद प्रभाव था, साथ ही नेहरू का भी. नेहरू के कहने पर उन्होंने टैगोर का एक वृत्तचित्र भी बनाया.

सत्यजीत रे ने देश की बदलती तस्वीर, राजनीतिक हलचलों को फिल्मों में पेश किया. 1943 में बंगाल में पड़े अकाल को उन्होंने पाथेर पांचाली में भी दिखाया. साथ ही ‘अशनि संकेत’ में अकाल की राजनीति को दर्शाया. ‘घरे बाइरे’ में हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद पर चोट की.

रे ने आरोप झेले, आलोचकों ने कहा कि उन्होंने अपने सिनेमाई फायदे के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने देश की ग़रीबी का ढिंढोरा पीटा, लेकिन उन्होंने कहा कि राष्ट्रवाद का मतलब ये नहीं कि गलीचे में सब कुछ ढांप दिया जाए, जो सच है उसे सामने लाना ही चाहिए.

हक़ीक़त तो ये है कि जितना भी जानो सत्यजीत रे को… लगता है कुछ छूट गया है. वो बीच की एक सीढ़ी पर खड़े हैं, जहां एक तरफ़ दुनिया सीढ़ी से नीचे उतर रही है, दूसरी तरफ लिफ्ट से मंज़िलें चढ़ रही है. सत्यजीत रे हर लम्हे की धड़कन को महसूस कर रहे हैं… कह रहे हैं… आउट विद द ओल्ड, इन विद द न्यू… दैट्स लाइफ!

(माधुरी आकाशवाणी जयपुर में न्यूज़ रीडर हैं.)