अपने-अपने जिन्ना

भारतीय राजनीति में जिन्ना के बरक्स अगर किसी दूसरे व्यक्तित्व को खड़ा किया जा सकता है तो वो हैं वीर सावरकर. संयोग नहीं है कि अपनी ज़िंदगी के पहले हिस्से की उपलब्धियों को अपनी बाद की ज़िंदगी में धो डालने वाले यह दोनों नेता विभाजन के द्विराष्ट्र सिद्धांत के पैरोकार थे.

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भारतीय राजनीति में जिन्ना के बरक्स अगर किसी दूसरे व्यक्तित्व को खड़ा किया जा सकता है तो वो हैं वीर सावरकर. संयोग नहीं है कि अपनी ज़िंदगी के पहले हिस्से की उपलब्धियों को अपनी बाद की ज़िंदगी में धो डालने वाले यह दोनों नेता विभाजन के द्विराष्ट्र सिद्धांत के पैरोकार थे.

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मुहम्मद अली जिन्ना. फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स

पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी मोदी सरकार की आंख में शुरुआत से खटकते रहे हैं. देश के उच्च संवैधानिक पदों पर आरएसएस के कब्जे के लिए हामिद अंसारी को विवादित करना जरूरी था. दरअसल उन पर हमला करके देश के सभी मुसलमानों को आसानी से बदनाम किया जा सकता है.

हिंसा और अराजकता के सहारे भाजपा में उच्च पदों पर आसीन हुआ जा सकता है, यह अब भाजपा कैडर को समझ आ चुका है. इसीलिए स्थानीय भाजपा सांसद ने आगामी चुनावों के लिए अपनी दावेदारी पक्की करने के लिए पूर्व उपराष्ट्रपति को निशाना बनाया.

इस हमले के तीन दिन पहले एएमयू के यूनियन हॉल में लगी जिन्ना की तस्वीर पर विवाद पैदा करने की कोशिश हुई थी. इसके भी पहले आरएसएस से जुड़े एक मुस्लिम सदस्य ने यूनिवर्सिटी के भीतर आरएसएस शाखा लगाने की इजाजत मांगकर माहौल बनाने की कोशिश की थी.

याद रखिये एएमयू यूनियन हॉल में जिन्ना की यह तस्वीर हामिद अंसारी ने नहीं लगाई थी. न ही आज की पीढ़ी के तालिब-ए-इल्म या स्टूडेंट यूनियन का जिन्ना की तस्वीर लगाने के पीछे कोई हाथ था.

इसमें कोई संदेह नहीं कि जिन्ना भारत विभाजन के सबसे बड़े गुनहगार हैं. यह भी स्थापित सत्य है कि आजादी के पहले एएमयू ने जिन्ना और पाकिस्तान आंदोलन के लिए सबसे ज्यादा पढ़ा-लिखा मध्यवर्गीय कैडर मुहैया कराया था.

यह भी सच है कि जिन्ना 1920 में बनी पहली यूनिवर्सिटी कोर्ट के संस्थापक सदस्य बने थे. यह भी इतिहास से कौन मिटा सकता है कि यूनिवर्सिटी ने अपनी परंपरा के अनुरूप 1938 में जिन्ना को आजीवन सदस्य बनाया था.

लेकिन इस अधूरे तथ्य के साथ यह भी जानना जरूरी है कि ऐसे सम्मान पाने वाले जिन्ना अकेले राजनीतिज्ञ नहीं थे. जिन्ना को जो आजीवन सदस्यता 1938 में मिली, गांधीजी को वो उनसे 18 साल पहले 1920 में ही नवाजी जा चुकी थी.

यह जानना भी जरूरी है कि जिस एएमयू में आज जिन्ना की कोई जयंती सेलिब्रेट नहीं होती, वहां गांधी जयंती और उनका शहादत दिवस दोनों धूमधाम से मनाये जाते हैं. 30 जनवरी को तो उनकी हत्या के समय ठीक पांच बजकर सत्रह मिनट पर यूनिवर्सिटी में हूटर बजता है और जो जहां है वहीं खड़ा होकर दो मिनट का मौन रखता है.

एएमयू से जिन्ना को जोड़कर यूनिवर्सिटी को पाकिस्तान परस्त सिद्ध करने की कोशिशें भले की जा रही हों लेकिन एएमयू ने आजादी की लड़ाई को एक से बढ़कर एक दीवाने दिए हैं. इनमें भारत के तीसरे राष्ट्रपति और जामिया मिलिया इस्लामिया जैसे राष्ट्रवादी इदारे के सहसंस्थापक डॉ० जाकिर हुसैन शामिल हैं.

सीमांत गांधी और बादशाह खान के नाम से मशहूर खान अब्दुल गफ्फार खान जैसे लालकुर्ती वाले भी यहीं से पढ़कर आजादी की लड़ाई में कूदे और न सिर्फ अंग्रेजों बल्कि खुद मुस्लिम लीग की आंख की भी किरकिरी बने रहे.

बिहार के कद्दावर राष्ट्रवादी नेता सैय्यद महमूद भी यहीं के तालिब-ए-इल्म थे जो मुस्लिम सांप्रदायिकता के सामने हमेशा ढाल बनकर खड़े रहे. कांग्रेस मुस्लिम मास कांटेक्ट कार्यक्रम के सूत्रधार कुंवर मोहम्मद अशरफ भी यहीं पढ़े थे.

यह कार्यक्रम अगर मुस्लिम लीग की गुंडागर्दी की वजह से नाकाम न कर दिया गया होता तो शायद भारतीय उपमहाद्वीप का नक्शा आज कुछ और होता. अशरफ के अलावा नेहरू जी के दाहिने हाथ माने जाने वाले महान स्वाधीनता सेनानी रफी अहमद किदवई भी और कहीं नहीं एएमयू के रास्ते ही सार्वजनिक जीवन में गए थे.

अब सवाल उठता है कि हम मुहम्मद अली जिन्ना को कैसे समझते हैं? जिन्ना की जिंदगी को साफ तौर पर दो हिस्सों में बांटा जा सकता है. एक 1937 के पहले के जिन्ना जिन्हें गोखले से लेकर सरोजिनी नायडू तक हिंदू- मुस्लिम एकता का दूत मानते थे.

एक जिन्ना वो हैं जो गांधी के आगमन के पहले तक स्वाधीनता सेनानियों की अगली पीढ़ी के तेजतर्रार नुमाइंदे माने जाते थे. जिन्ना की जिंदगी का एक शुरुआती पन्ना है कि वे भारत के पितामह कहे जाने वाले दादाभाई नौरोजी के पर्सनल सेक्रेटरी थे और फिर एनी बेसेंट की होम रूल लीग के एक महत्वपूर्ण स्तम्भ भी.

मुस्लिम लीग के शुरुआती दौर में उन्होंने उसे कांग्रेस के करीब लाने की कोशिश की और 1916 का कांग्रेस- मुस्लिम लीग का लखनऊ समझौता लोकमान्य तिलक और जिन्ना के साझे प्रयासों का परिणाम था.

गांधी के आने के बाद जिन्ना सहित बिपन चंद्र पाल, एनी बेसेंट और जीएस खपर्डे जैसे अन्य बड़े नेता कांग्रेस से अलग हो गए. उसकी वजह थी कि वो लोग आंदोलन के उसी पुराने ढर्रे पर चलना पसंद करते थे जहां कानून का रत्ती भर भी उल्लंघन गलत माना जाता था.

इस तरह जिन्ना ने राजनीतिक तौर-तरीकों के मामले में खुद को पिछली पीढ़ी के स्वाधीनता सेनानियों के ज्यादा करीब पाया. गांधी के तौर-तरीके जिन्ना के हिसाब से राजनीतिक अराजकता की ओर ले जाने वाले थे. उसके बाद जिन्ना राजनीतिक नेपथ्य में चले गए और जब भी राजनीतिक परिदृश्य पर चमके, भारत के मुस्लिमों का प्रवक्ता बनकर ही चमके.

1930 के दशक के मध्य से उन्होंने मुस्लिम लीग को एक नई राजनीतिक ऊर्जा प्रदान करने का निश्चय किया. तकरीबन डेढ़ दशक बाद जब वो भारतीय राजनीति में सक्रिय होकर आये तो यह पहले के जिन्ना नहीं थे. इनके पास राजनीति का एक वैकल्पिक नक्शा था जो आक्रामक मुस्लिम सांप्रदायिकता की पैरवी करता था.

जिन्ना ने इस बार आकर कांग्रेस को हिंदुओं का संगठन सिद्ध करने की कोशिशें कीं. गांधी को हर तरह से हिंदुओं का नेता कहकर उनकी खिल्ली उड़ाई. मौलाना आजाद सरीखे कांग्रेस के मुसलमान नेताओं को गद्दार बताने की मुहिम का नेतृत्व किया.

Aligarh: Aligarh Muslim University's Women's College joined in a protest with university students during a protest at the gate of their campus in Aligarh on Thursday. PTI Photo (PTI5_3_2018_000172B)
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय. (फोटो: पीटीआई)

इस तरह जिन्ना अब एक उदार सांप्रदायिक की तरह मुस्लिम हितों की पैरवी करने वाले नेता बनने को तैयार नहीं थे. इस दफा वो मुस्लिम सांप्रदायिकता को नए नाखून और नए दांत लगाकर निकले थे.

इसीलिए जब 1937 के चुनावों में मुस्लिम लीग बुरी तरह हार गई तो वो कांग्रेस पर दबाव बनाने लगे कि वो यूनाइटेड प्रोविंस (आज के उत्तर प्रदेश) में मुस्लिम लीग को मुसलमानों के प्रतिनिधि के तौर पर सरकार में शामिल करे. इससे यह साबित हो जाता कि कांग्रेस सिर्फ हिंदुओं की नुमाइंदगी करती है जबकि मुस्लिम लीग ही मुसलमानों की इकलौती प्रतिनिधि है.

दरअसल जिन्ना की मुख्य चिंता कांग्रेस का मुस्लिम मास कांटेक्ट प्रोग्राम था. 1936 से मुसलमानों को कांग्रेस से जोड़ने के लिए चलाये जा रहे इस अभियान को कई राज्यों में उल्लेखनीय सफलता मिल रही थी.

सिर्फ यूनाइटेड प्रोविंस में ही 1937 के अंत तक तकरीबन 30,000 मुस्लिम कार्यकर्ता कांग्रेस में शामिल हुए थे. यही हाल पंजाब और पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत जैसे राज्यों का भी था.

कांग्रेस और मुस्लिम लीग अलग-अलग चुनाव लड़ी थीं और दोनों दलों के बीच किसी तरह का कोई औपचारिक गठबंधन नहीं हुआ था. कांग्रेस के सामने जिन्ना के इस प्रस्ताव को मानने की कोई प्रत्यक्ष वजह नहीं थी इसलिए नेहरू और कांग्रेस ने जिन्ना का प्रस्ताव अंततः ठुकरा दिया.

यही वो मोड़ है जिस पर आकर जिन्ना ने पहली बार सांप्रदायिकता को एक उग्र हिंसक राजनीति में तब्दील कर दिया. सिर्फ यूनाइटेड प्रोविंसेज में ही 1938 के साल में बड़े और छोटे सांप्रदायिक दंगों की बाढ़ सी आ गई. इन दंगों में जहां मुस्लिम लीग सबसे प्रभावी कारक थी तो छोटे-छोटे हिंदू सांप्रदायिक दल इसमें जूनियर पार्टनर की भूमिका अदा कर रहे थे.

एक तरफ तो पूरे राज्य का सांप्रदायिक तानाबाना छिन्न-भिन्न कर दिया गया तो दूसरी और इन्हीं दंगों के आधार पर मुस्लिम लीग की पीरपुर कमिटी ने प्रोपेगंडा किया कि कांग्रेस की ‘हिंदू’ सरकार में मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं.

1938-39 के इन दो सालों में जिन्ना ने वो बुनियाद डाली जिस पर 1940 के बाद मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र की इमारत तामीर की गई. अगस्त 1946 से कलकत्ता से शुरू हुए भीषण सांप्रदायिक दंगे दरअसल 1938-39 में हुए इन प्रयोगों का बड़े स्तर पर क्रियान्वयन मात्र था. फिर तो रावलपिंडी, गढ़मुक्तेश्वर, नोआखाली सहित देश की तमाम जगहों पर लाखों जानें सांप्रदायिक पागलपन की भेंट चढ़ गईं.

नव-साम्राज्यवादी इतिहास लेखन ने शरारतन भारत के बंटवारे जिन्ना की भूमिका को कम करके आंकने का दृष्टिकोण प्रचलित किया है. उनका कहना है कि जिन्ना इसलिए कांग्रेस से अलग हो गये थे क्योंकि गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस बहुसंख्यक हिंदू हितों की पैरवी करती थी. विभाजन पर उनका कहना है कि जिन्ना तो बंटवारा चाहते ही नहीं थे वो तो उनके लिए एक सौदेबाजी का हथियार था.

अब अगर जिन्ना इतने ही सेक्युलर थे और उन्हें गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की ‘सांप्रदायिकता’ से इतनी ही दिक्कत थी तो फिर एक खालिस सेक्युलर पार्टी बनाकर देश को कांग्रेस की सांप्रदायिकता से बचा लेते. वो एक कद्दावर शख्सियत थे और चाहते तो ऐसा कर सकते थे. लेकिन इसके उलट उन्होंने खुद घोर नास्तिक होने के बावजूद धर्म के नाम पर सांप्रदायिकता के ऐसे जिन्न को खोल दिया जिसने इस उपमहाद्वीप में लाखों प्राणों को लील लिया.

जिन्ना को सेक्युलर सिद्ध करने के लिए उनका पाकिस्तान असेंबली में दिया गया ऐतिहासिक भाषण बहुत उद्धृत किया जाता है जिसमें वो पाकिस्तान को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने की बात करते हैं. अगर जिन्ना के पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों को कोई भय नहीं था तो फिर गांधी-नेहरू-पटेल-मौलाना आजाद के भारत में अल्पसंख्यक कैसे असुरक्षित थे?

या फिर कहा जा सकता है कि अगर जिन्ना की यही हसरत थी तो पिछले दस साल इस्लामिक राष्ट्र का सपना दिखाकर वो ठगों की तरह लोगों को क्यों बरगला रहे थे? यह भाषण ये जरूर सिद्ध करता है कि जिन्ना पिछले दस साल से जो कुछ कर रहे थे उनको पता था कि वो सरासर गलत है.

भारतीय राजनीति में जिन्ना के बरक्स अगर किसी दूसरे व्यक्तित्व को खड़ा किया जा सकता है तो वो हैं विनायक दामोदर सावरकर. सावरकर ने भी अपने शुरुआती दिनों में क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लिया लेकिन उसके बाद माफीनामों की झड़ी लगाकर अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का औजार बन गए.

संयोग नहीं है कि अपनी जिंदगी के पहले हिस्से की उपलब्धियों को अपनी बाद की जिंदगी में धो डालने वाले यह दोनों राजनीतिज्ञ भारत विभाजन के द्विराष्ट्र सिद्धांत के गजब पैरोकार थे. और यह तो बिलकुल ही संयोग नहीं है कि अंग्रेजों के सामने गिड़गिड़ाने वाले सावरकर को ‘वीर’ कहकर उनकी तस्वीर को संसद के सेंट्रल हॉल में लगाने वाले एएमयू के यूनियन हॉल में जिन्ना की तस्वीर पर अपनी सांप्रदायिक राजनीति चमका रहे हैं.

(लेखक राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट नामक संगठन के राष्ट्रीय संयोजक हैं.)

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