सुनील दत्त: एक फिल्मी सितारे से कहीं बड़ी थी उनकी शख़्सियत

जब मुंबई में दंगे भड़के, तब सुनील दत्त ने अपनी ही सरकार के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलते हुए संसद से इस्तीफ़ा दे दिया. उनका मानना था कि कांग्रेस ने हालात को सही से नहीं संभाला है और एक सांसद की हैसियत से वे कुछ नहीं कर पा रहे हैं.

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जब मुंबई में दंगे भड़के, तब सुनील दत्त ने अपनी ही सरकार के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलते हुए संसद से इस्तीफ़ा दे दिया. उनका मानना था कि कांग्रेस ने हालात को सही से नहीं संभाला है और एक सांसद की हैसियत से वे कुछ नहीं कर पा रहे हैं.

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सुनील दत्त (जन्म: 6 जून 1929 – अवसान: 25 मई 2005) (फोटो साभार: shemaroo/You Tube)

मुंबई की फिल्मी दुनिया से राजनीति और समाज सेवा के क्षेत्र में आए सुनील दत्त अकेले ऐसे अभिनेता थे जिन्होंने एक राजनेता के तौर पर भी आदर्श कायम किया था. वो राजनीति में जिन मूल्यों और सिद्धांतों पर कायम रहे उससे फिल्मी दुनिया से राजनीति में कदम रखने वाले अभिनेता तो क्या, आज के राजनेताओं तक को भी सीखने की जरूरत है.

उन्हें पहचान भले ही एक अभिनेता के तौर पर मिली हो लेकिन उन्हें सिर्फ एक अभिनेता के तौर पर देखना, उनके शख्सियत के इस दूसरे सबसे बड़े आयाम को नज़रअंदाज़ करना होगा. खासकर तब जब मूल्यों और आदर्शों की राजनीति को तिलांजलि देने की एक होड़ सी लगी हुई है, फिल्म और ग्लैमर की चकाचौंध भरी दुनिया से आए इस शख़्स की ज़िंदगी में बहुत कुछ ऐसा था जो उसे इस भीड़ में अलग करता था.

अब के पाकिस्तान स्थित पंजाब के झेलम ज़िले के खुर्द गांव में 6 जून 1929 को सुनील दत्त का जन्म हुआ था. वो वहां के एक जमींदार परिवार से थे. लेकिन बंटवारे के बाद अपनी ज़मीन-जायदाद छोड़ भारत आना पड़ा था. पिता का साया तो बचपन में ही उठ गया था.

हिंदुस्तान की सरजमीं पर एक रिफ़्यूजी की पहचान के साथ मुफलिसी में उनके जीवन का संघर्ष शुरू हुआ. पाकिस्तान से आकर उन्होंने अबके हरियाणा और तब के पंजाब के यमुनानगर के मंडोली गांव में शरण ली थी. इसके बाद उनका परिवार लखनऊ गया और सुनील दत्त लखनऊ से बंबई चले गए.

बंबई के काला घोड़ा में नौसेना की एक इमारत में उन्होंने रहने के लिए एक कमरे का जुगाड़ किया था. उस छोटे से कमरे में उनके साथ आठ लोग रहते थे, जिसमें दर्जी से लेकर नाई का काम करने वाले लोग थे. सुनील दत्त ने यहीं जय हिंद कॉलेज में दाखिला लिया और एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में छोटी-सी नौकरी पकड़ ली.

इसके बाद वे  रेडियो सीलोन में उद्घोषक बने और यहीं से फिल्मी कलाकारों के इंटरव्यू लेते हुए फिल्मी दुनिया के दरवाजे तक पहुंच गए.

पहली बार नर्गिस यहीं एक इंटरव्यू के सिलसिले में उन्हें मिली थीं लेकिन नर्गिस को देखकर सुनील दत्त इतने नर्वस हो गए थे कि वो उनसे कोई सवाल नहीं कर सके थे. नतीजतन ये शो रद्द करना पड़ा था.

बाद में यही नर्गिस उनकी जीवनसाथी बनीं. मदर इंडिया के सेट पर आग से नर्गिस को बचाने के बाद कैसे वे दोनों एक-दूसरे के नज़दीक आए और ज़िंदगी भर के लिए एक-दूजे के हो गए, ये किस्सा तो शायद सब को पता हो. लेकिन कम लोग ही जानते हैं कि शादी की बात एक साल तक दोनों ने दुनिया से छिपाकर रखी थी. शादी करने के बाद दोनों एक साल तक अपने-अपने घरवालों के साथ रहे. एक साल बाद उन्होंने ये बात दुनिया के सामने मानी कि दोनों ने शादी कर ली है.

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(बाएं) पत्नी नर्गिस के साथ, (बीच में) दोस्त राजेंद्र कुमार के साथ (दाएं) बेटे संजय दत्त, बेटी नम्रता और प्रिया के साथ सुनील दत्त (फोटो साभार: ट्विटर/hamaraphotos.com/magnamags.com)

आज भले ही फिल्मी दुनिया में दर्जनों अंतर-धार्मिक जोड़ियां दिख रही हैं लेकिन यह उस वक्त फिल्मी दुनिया के लिए भी बहुत बड़ी बात थी. फिल्मी दुनिया की यह पहली हाई-प्रोफ़ाइल अंतर-धार्मिक शादी थी. नहीं तो इससे पहले तो देव आनंद और सुरैया तक को अलग-अलग मजहबों का होने की वजह से अपने प्यार की कुर्बानी देनी पड़ी थी. फिल्मी दुनिया के लिए नर्गिस और सुनील दत्त की शादी एक मिसाल बन गई.

दो घटनाओं ने सुनील दत्त की शख्सियत को बनाने में अहम भूमिका निभाई थी. एक थी नर्गिस से शादी और दूसरी थी भारत-पाकिस्तान बंटवारे के समय पाकिस्तान में भड़के दंगे में याकूब नाम के एक मुसलमान का उनके परिवार की हिफाजत करना.

वे ताउम्र हिंदू-मुस्लिम भाईचारे के पैरोकार बने रहे. धर्मनिरपेक्षता, शांति और सद्भाव जैसे जीवन मूल्यों के प्रति जीवन भर समर्पित रहने वाले सुनील दत्त राजीव गांधी के कहने पर राजनीति में आए थे. उन्हें लगा कि राजनीति के माध्यम से वो अपना संदेश लोगों तक बखूबी पहुंचा सकते हैं.

इन सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने अपनी राजनीतिक संसाधनों का खूब इस्तेमाल भी किया. इस देश में अभिनेता से राजनेता बने किसी दूसरे शख़्स में यह खासियत शायद ही हो. उनका मानना था, ‘धर्मनिरपेक्षता का मतलब अच्छा इंसान बनने से है जो सभी मजहबों की इज्जत करता हो.’

सुनील दत्त ने अपना पहला चुनाव 1984 में मशहूर वकील राम जेठमलानी के खिलाफ लड़ा था. उन्होंने जब अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत की तो पहले मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ी, फिर मंदिर गए और फिर चर्च में जाकर प्रार्थना की.

राम जेठमलानी सुनील दत्त का उस दौरान खूब मज़ाक उड़ाया करते थे और कहते थे कि सुनील दत्त का कोई मुकाबला नहीं है मुझसे. मैंने एचआर गोखले और रामराव अदिक जैसे राजनीति के महारथियों को धूल चटाई है. जब चुनाव के नतीजे आए तो राम जेठमलानी की अपमानजनक हार हुई.

1991 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद जब मुंबई में दंगे भड़के, तब सुनील दत्त ने अपनी ही सरकार के ख़िलाफ़ मोर्चा लेते हुए संसद से इस्तीफा दे दिया. उनका मानना था कि कांग्रेस ने हालात को सही से नहीं संभाला है और एक सांसद की हैसियत से वो कुछ नहीं कर पा रहे हैं.

इससे पहले 1985 में भी उन्होंने झुग्गीवासियों के मुद्दों पर गंभीर नहीं होने की वजह से अपनी ही कांग्रेस की सरकार का विरोध कर दिया था.

सुनील दत्त शांति और सामाजिक सद्भाव को लेकर लंबी पदयात्राएं किया करते थे. इन सभी यात्राओं में उनकी बेटी प्रिया दत्त जरूर उनके साथ होती थी. 1987 में उन्होंने पंजाब में उग्रवाद की समस्या के समाधान के लिए बॉम्बे से अमृतसर के स्वर्ण मंदिर तक 2,000 किलोमीटर की पैदल यात्रा की थी.

इस यात्रा के दौरान का एक दिलचस्प बयान है. रमेश डावर की लिखी हुई एक किताब है बॉलीवुड: यस्टर्डे, टुडे एंड टुमॉरो. इस किताब में इस बयान का जिक्र है. एक ईसाई लड़के के हवाले से इसमें कहा गया है, ‘मैंने ईसा मसीह के बारे में सुना था. मुझे खुशी है कि मैं ईसा मसीह के साथ आज पैदल यात्रा कर रहा हूं.’

इसके अगले साल 1988 में उन्होंने जापान के नागासाकी से हिरोशिमा तक विश्व शांति और परमाणु हथियारों को नष्ट करने को लेकर 500 किलोमीटर की पैदल यात्रा की. सुनील दत्त कहा करते थे कि जो पैसा हम हथियारों पर खर्च करते हैं, वो लोगों को पानी मुहैया कराने, सब को शिक्षा, मेडिकल सुविधाएं और नौजवानों को रोजगार देने पर खर्च कर सकते हैं.

1990 में उन्होंने भागलपुर दंगे के बाद सांप्रदायिक शांति कायम करने के लिए भागलपुर का दौरा किया. इसके बाद उन्होंने धार्मिक सद्भाव बनाने के लिए फैज़ाबाद से अयोध्या तक की पदयात्रा की. सामाजिक स्तर पर सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए सुनील दत्त के नेतृत्व में कांग्रेस के अंदर सद्भावना के सिपाही नाम से एक विंग तैयार किया गया था. उनके जाने के बाद उनकी इस मुहिम का कोई नामलेवा नहीं रहा.

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इंदिरा गांधी के साथ सुनील और नर्गिस दत्त (फोटो साभार: facebook/INCindia)

उनके इन प्रयासों से ऐसा लगता है कि सिनेमाई पृष्ठभूमि से आए सुनील दत्त किसी भी परंपरागत राजनेता से कहीं अधिक गांधी-नेहरू की विरासत को संभाल रहे थे. वो उन लोगों में से थे जिनके लिए ये मानना हमेशा मुश्किल रहा कि भारत-पाकिस्तान अब दो देश है.

वो कहते थे कि मैं पाकिस्तान के लोगों से उतना ही प्यार और स्नेह महसूस करता हूं जितना कि अपने हिंदुस्तान के लोगों से. पचास साल के बाद एक बार पाकिस्तान यात्रा के दौरान उनका अपने गांव खुर्द जाना हुआ. जब उन्होंने प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के सामने अपने पैतृक गांव जाने की इच्छा जताई तो शरीफ ने उनके गांव जाने के सारे इंतज़ाम कर दिए.

एक बार एक इंटरव्यू में उन्होंने उस समय का एक किस्सा सुनाया था. वो वाकया उनकी ही जुबानी कुछ यूं था-

‘जब मैं अपने गांव खुर्द गया तो हैरान रह गया. पूरा गांव मेरे स्वागत के लिए इकट्ठा हो रखा था. पहले मुझे लगा कि वो लोग शायद इसलिए आए हैं क्योंकि मैं एक अभिनेता हूं. लेकिन वो इसलिए आए थे क्योंकि मैं वहां का बाशिंदा था और वापस अपने गांव को देखने आया था. गांव के नौजवानों ने हाथ में बड़ा सा बैनर लिया हुआ था जिसपर लिखा हुआ था सुनील दत्त, वेलकम टू खुर्द! मेरे साथ स्कूल में पढ़ने वाले लोग भी आए थे.

मैं एक ऐसी महिला से मिला जो तब दस साल की थी और अब 60-65 के आसपास की हो गई थीं. उन्होंने मेरे घर के हर सदस्य के बारे में उनका नाम लेकर खैरियत पूछी. क्या आपको भरोसा होता है कि पचास साल के बाद भी उन्हें सब कुछ याद था.

मैंने उन्हें बताया कि मां अब नहीं रहीं. पंजाब में जब कोई मर जाता है तो औरतें छाती पीटकर रोती हैं. उन्होंने जब मेरी मां के बारे में सुना तो वो वैसे ही छाती पीटकर रोने लगीं. वो लोग मुझे खेतों में ले गए और खेत दिखाते हुए कहा कि ये ज़मीन तेरी है बल्ला. मुझे बचपन में सब बल्ला कह कर बुलाते थे क्योंकि मेरा नाम असल नाम बलराज है. मैंने उनसे कहा कि नहीं ये अब तुम्हारी ज़मीनें हैं. जानते है उन्होंने मुझे जवाब में क्या कहा? तुम यहां आ जाओ, तुम्हें दे देंगे.’

दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं. एक जो अपनी मुफलिसी से निकलने के बाद एक अलग ही इंसान हो जाते हैं. वो अपने जैसे किसी के भी दर्द और मजबूरी से राब्ता नहीं रखना चाहते.

फिर एक दूसरी तरह के, जो ताउम्र इस एहसास के साथ रहते हैं कि उन्होंने भी कभी फाकापरस्ती के दिन देखे हैं. उनमें दूसरों के लिए सहानुभूति, दया और परोपकार की भावना जीवन भर बनी रहती है. सुनील दत्त दूसरे दर्जे वाले आदमी थे. उनकी कोशिश रहती थी कि ज़िंदगी ने जो उन्हें दिया है, वो किसी न किसी रूप में लौटाया जाए.

नर्गिस की मृत्यु कैंसर से होने के बाद उन्होंने नर्गिस दत्त मेमोरियल फाउंडेशन की शुरुआत की. कैंसर पर एक फिल्म बनाई ‘दर्द का रिश्ता’ और इससे हुई कमाई टाटा मेमोरियल कैंसर अस्पताल को दान में दे दी. टाटा मेमोरियल कैंसर अस्पताल में होने वाले भारत के पहले बोनमैरो ट्रांसप्लांट के लिए अमेरिका से दवा मंगवाई. अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, जर्मनी और हॉलैंड से नर्गिस दत्त मेमोरियल फाउंडेशन के जरिए पचास लाख अमेरिकी डॉलर इकट्ठा किए, जो उन्होंने भारत के तमाम अस्पतालों को कैंसर के इलाज के लिए दिए.

एक वक्त ऐसा भी आया जब सुनील दत्त के राजनीतिक सिद्धांत और मूल्यों के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी हो गई थी. बेटे संजय दत्त बंबई बम धमाकों के दौरान अवैध तरीके से हथियार रखने के मामले में अभियुक्त थे. संजय दत्त ने खुद को निर्दोष बतलाया था और सुनील दत्त को अपने बेटे की बेगुनाही पर यकीन था.

इस मामले में सुनील दत्त को अपनी पार्टी कांग्रेस की ओर से कोई मदद नहीं मिल पा रही थी. तब उनके समधी और बीते जमाने के मशहूर अभिनेता राजेंद्र कुमार उन्हें बाल ठाकरे के पास जाने की बात कही. सुनील दत्त ने तो पहले बाल ठाकरे से मिलने से इनकार कर दिया था और राजेंद्र कुमार पर चिल्ला पड़े.

सुनील दत्त बाल ठाकरे और शिवसेना की राजनीति को पसंद नहीं करते थे, लेकिन कोई और चारा न देख आख़िरकार उन्हें बेटे के लिए बाल ठाकरे के पास मदद मांगने जाना पड़ा. इसके बाद जब तक बाल ठाकरे ज़िंदा रहे उनकी पार्टी शिवसेना ने संजय दत्त का विरोध नहीं किया लेकिन बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद शिवसेना ने संजय दत्त की दया याचिका का विरोध किया था.

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पिता को याद करते हुए संजय और प्रिया दत्त ने पिता के साथ यह तस्वीरें सोशल मीडिया पर साझा की हैं. (फोटो साभार: फेसबुक/ट्विटर)

सुनील दत्त को अंतरराष्ट्रीय शांति और सांप्रदायिक सद्भाव के लिए ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान, राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सौहार्द के लिए मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और हिंसा और आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए राजीव गांधी राष्ट्रीय सद्भावना अवॉर्ड जैसे पुरस्कारों से नवाज़ा गया.

इससे पहले 1968 में ही सुनील दत्त को पदमश्री मिल चुका था, जब वे सार्वजनिक जीवन में बहुत सक्रिय न रहकर अपने फिल्मी करियर तक ही महदूद थे.

राजनीतिक जीवन और सामाजिक जीवन में सक्रिय होने के बाद भारत का कोई भी नागरिक सम्मान उन्हें नहीं मिला. ऐसा लगता है कि हर हाल में सिद्धांतों की राजनीति पर अडिग रहना और इसके लिए अपनी ही सरकार से जरूरत पड़ने पर बगावत कर जाना, कांग्रेस के नेताओं को भी रास नहीं आया.

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मिस्टर एंड मिसेज दत्त: मेमॉयर्स ऑफ अवर पैरेंट्स (फोटो साभार: amazon.com)

पांच बार सांसद रहने के बाद आख़िरकार 2004 में उन्हें खेल और युवा मामलों का मंत्री बनाया गया. इसके एक साल बाद ही 25 मई 2005 को उनकी मृत्यु हो गई. उस वक्त शिवसेना के संजय निरुपम को पार्टी में लिए जाने से वो पार्टी से काफी दुखी थे. इससे एक साल पहले ही उन्होंने संजय निरुपम के ख़िलाफ़ मानहानि का मुकदमा दायर किया था.

उनकी मौत के बाद मंडोली गांव के लोग उनकी याद में गांव में एक स्मारक बनवाना चाहते थे लेकिन उनकी बेटी प्रिया दत्त ने उन्हें मना करते हुए कहा कि पिताजी इसके बजाए लोगों के दिल में रहना ज्यादा पसंद करेंगे. सुनील दत्त अपनी आत्मकथा लिखना चाहते थे इसके लिए उन्होंने बहुत सारी यादें और दस्तावेज़ इकट्ठा कर रखे थे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका.

उनके जाने के बाद उनकी दोनों बेटियों नम्रता दत्त और प्रिया दत्त ने इसे एक किताब की शक्ल में ‘मिस्टर एंड मिसेज दत्त: मेमॉयर्स ऑफ अवर पैरेंट्स’ के नाम से निकाला.

वे अपने बेटे संजय दत्त को रिहा होते हुए देखना चाहते थे. अब संजय दत्त सज़ा काटकर बाहर आ चुके हैं. उनकी ज़िंदगी पर बनी फिल्म ‘संजू’ जून में रिलीज़ होनी है. इस फिल्म में सुनील दत्त का किरदार परेश रावल निभा रहे हैं. इसमें संजय के पिता के बतौर सुनील दत्त की ज़िंदगी का भी एक हिस्सा दिखेगा लेकिन क्या कभी बॉलीवुड सुनील दत्त पर भी कोई बायोपिक बना पाएगा, जिनकी शख़्सियत महज एक फिल्मी सितारे की नहीं थी?

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)