झारखंड सामूहिक बलात्कार: अख़बारी सच गले नहीं उतर रहा

ख़बरों के मुताबिक झारखंड पुलिस ने खूंटी ज़िले में पांच महिलाओं के साथ गैैंगरेप मामले में प्राथमिकी दर्ज होने की जो प्रक्रिया बताई वो थोड़ी उलझी हुई है.

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झारखंड के खूंटी ज़िले के कोचांग गांव में स्थित मिशन स्कूल जहां युवतियां नुक्कड़ नाटक करने गई थीं.

ख़बरों के मुताबिक झारखंड पुलिस ने खूंटी ज़िले में पांच महिलाओं के साथ गैैंगरेप मामले में प्राथमिकी दर्ज होने की जो प्रक्रिया बताई वो थोड़ी उलझी हुई है.

झारखंड के खूंटी ज़िले के कोचांग गांव में स्थित मिशन स्कूल जहां युवतियां नुक्कड़ नाटक करने गई थीं.
झारखंड के खूंटी ज़िले के कोचांग गांव में स्थित मिशन स्कूल जहां युवतियां नुक्कड़ नाटक करने गई थीं.

झारखंड के खूंटी में कथित तौर पर पांच महिलाओं के साथ बंदूक की नोंक पर की गई बलात्कार की घटना सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा तक हर जगह सुर्खियों में है. पुलिस के हवाले से बताया गया कि इस घटना को अंजाम देने वाले गुनाहगार पत्थलगढ़ी आंदोलन से जुड़े हो सकते हैं. तमाम अखबारों ने इसे प्रमुखता से स्थान दिया है. प्रादेशिक संस्करणों में तो तफसील से इनके ब्यौरे दिए गए हैं हालांकि इनके बीच एक ही खबर को लेकर जानकारियों और सूचनाओं में कतिपय असंगति दिखाई देती है.

अस्सी के दशक में जब देश में आपातकाल थोपा गया था तब हिंदी के एक लोकप्रिय जनकवि दुष्यंत कुमार ने अपनी एक कविता में कहा था कि-‘अखबारी सत्य मेरे गले नहीं उतरता’. वो दौर मीडिया के सेंसरशिप का था, आज का दौर मीडिया द्वारा स्वत: स्वीकार की गयी खुशामदी का है. हालांकि जनकवि की कही बात आज भी मौजूं है और एक नागरिक के तौर पर मुझ जैसे और भी बहुत हैं जिनके गले में यह अखबारी सत्य उतर नहीं रहा है.

सामूहिक बलात्कार की इस घटना की जितनी भर्त्सना की जाए कम है. विशेष रूप से तब जब यह भी कहा गया कि पूरी घटना का वीडियो बनाया गया और वीडियो बनाने का काम उत्पीड़ितों के सहकर्मियों से ही कराया गया.

बताया गया कि पीड़ित लड़कियां एक स्वयं सेवी संस्थान से जुड़ी हैं और अपने कुछ पुरुष सहकर्मियों के साथ इस इलाके में मानव तस्करी जैसे मुद्दे पर लोगों की जागरूकता बढ़ाने हेतु एक नाटक करने गईं थीं. जहां यह नुक्कड़ नाटक चल रहा था वहां करीब तीन सौ लोग थे जिनमें बच्चों की संख्या ज्यादा थी.

बीच नाटक में ही कोई छह लोग मोटर साइकिलों पर आते हैं जिनके हाथों में कुछ देशी कट्टे थे. इन्हीं हथियारों के बल पर वह इन पांच लड़कियों को पूरी टीम सहित घने जंगल में ले गए और इस घटना को अंजाम दिया गया.

अब तक जो खबरें अखबारों में आईं (विशेष संदर्भ दैनिक भास्कर, प्रभात खबर आदि) उनके मुताबिक झारखंड पुलिस ने पीड़ितों की पहचान कर ली है. इस घटना की प्राथमिकी दर्ज होने की जो प्रक्रिया बताई गई वो भी थोड़ी उलझी हुई है.

बताया गया कि इस घटना के बारे में पीड़ितों ने एक समाजकर्मी को बताया जहां से यह खबर शायद पुलिस के मुखबिर को हुई और उसके बाद पुलिस ने इस घटना पर स्वत: संज्ञान लिया बाद में सारे ब्यौरे आये जो अब इस समय हम सबके सामने हैं.

पीड़ितों की पहचान और गुनाहगारों की पहचान एक ही वक्त शुरू हुई और पुलिस इस निष्कर्ष पर पहुंच गई कि इस घटना को अंजाम देने में पत्थलगढ़ी आंदोलन से जुड़े लोगों का हाथ है और यह कहने के पीछे सबसे ठोस तर्क यह है कि चूंकि उस इलाके में किसी और को जाने की इजाजत ही नहीं है तो कोई और कैसे हो सकता है?

दैनिक भास्कर ने तो घटना पर अपना हस्तक्षेप भी किया, इस शीर्षक के साथ कि- ‘पत्थलगड़ी के नाम पर हर कृत्य का समर्थन करने वाले क्या इस कुकृत्य की जिम्मेदारी लेंगे?’ यानी दैनिक भास्कर ने खुशामदी पत्रकारिता को धार देते हुए यह सवाल इस तरह फ्रेम किया है जैसे यह कथित घटना इसलिए हुई क्योंकि इस इलाके में पत्थलगड़ी की गई और उसे लोगों ने समर्थन दिया.

हालांकि यह अस्पष्ट ही है कि दैनिक भास्कर की इस चुनौती का जवाब क्या भारत के संविधान और भारत की संसद को भी देना होगा क्योंकि यही दो ऐसी महान संस्थाएं हैं जो पत्थलगड़ी का समर्थन करती हैं और पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों में निवासरत आदिवासियों की इस कार्यवाही को ‘विधि का बल’ प्रदान करती हैं. दैनिक भास्कर को इस पर थोड़ा स्पष्ट सवाल फ्रेम करना चाहिए.

हालांकि आज का दौर तर्कविहीन आस्था और खुशामदी का दौर है फिर भी कुछ बाजिब तर्क दिमाग में आते हैं कि जब पुलिस के हवाले से दिए गए बयान यह स्थापित करने का प्रयास करते हैं कि चूंकि इस इलाके में कोई भी घुस नहीं सकता तो इस घटना को अंजाम भी उन्हीं लोगों ने दिया है जो इस इलाके में पत्थलगड़ी से जुड़े है.

तो क्या फिर इसका मतलब यह भी है कि जब भारत की संसद पर आतंकवादी हमला हुआ था तो उसमें भी किसी बाहरी का हाथ नहीं था क्योंकि संसद परिसर के अंदर किसी को भी जाने की इजाजत नहीं है? हर सवाल अपने साथ और भी सवाल लेकर आता है.

दरअसल इस पूरे आंदोलन को लेकर ‘संघ सत्ता’ के इतने पूर्वाग्रह हैं कि इसे येन केन प्रकरेण लांछित ही करना है जिसके लिए पूरी मशीनरी मुस्तैद है. यह बताई गई घटना अपने आप में निंदनीय है और जो भी आरोपी हैं उन्हें कानून सम्मत सजा मिलना ही चाहिए और पीड़ितों को त्वरित न्याय भी सुनिश्चित होना चाहिए इस दिशा में राज्य की पुलिस की सक्रियता सराहनीय है और देश के हर नागरिक का सहयोग व समर्थन उसके साथ है क्योंकि देश में महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों को लेकर कोई समझौता नहीं किया जा सकता.

इसी प्रकरण में अगर हम आदिवासियों की सामाजिक श्रेणी की भी बात करें तो उन्हें उत्पीड़ित श्रेणी में ही देखा जाता रहा है. इस बात को देश की सर्वोच्च संस्था-संसद ने भी स्वीकार किया है कि आदिवासियों के साथ सदियों से अन्याय होता आया है. ऐसे में न्याय की कार्यवाही को विवेकपूर्ण ढंग से ही लागू किया जाना चाहिए.

किसी भी घटना को उसके देशकाल से अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए. इससे उस घटना की तीव्रता को पूरी तरह समझा नहीं जा सकता. तो जबसे झारखंड में भाजपा नीत सरकार बनी है और पहला गैर आदिवासी मुख्यमंत्री बना है तबसे झारखंड आंदोलित है.

पहले संथाल परगना टेनेंसी एक्ट (एसपीटीए), छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट (सीएनटीए) में आदिवासी समुदायों को मिले कानूनी संरक्षणों को हल्का करने के एकतरफा प्रयास हुए, भूमि बैंक बनाने के लिए उनकी जमीनों को बलात हड़पने की कोशिशें तेज हुईं जिनका व्यापक विरोध हुआ और सरकार को पीछे हटना पड़ा.

लेकिन अब एक पुख्ता भूमि अधिग्रहण कानून राज्य सरकार ले आयी है. इसके अलावा सामाजिक/ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के हथकंडों में पारंगत संघ पोषित भाजपा, राज्य में क्रिश्चियन व गैर क्रिश्चियन आदिवासियों के बीच आपसी तनाव पैदा करने और उनके बीच फूट डालने के उद्देश्य से यह सिफारिश भी ले आई है कि जिन आदिवासियों ने ईसाइयत अपनाया है उन्हें आरक्षण नहीं मिलना चाहिए.

क्योंकि सरकार और संघ के गले की हड्डी बन चुका पत्थलगड़ी आंदोलन और इस जैसे अन्य नामों मसलन गांव गणराज्य सरकार, शिलालेख आंदोलन आदिवासी बाहुल्य राज्यों जिनमें झारखंड, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात और अब ओडिशा में भी मजबूत हुए हैं जिनमें क्रिश्चियन और गैर क्रिश्चियन आदिवासी समुदाय एकताबद्ध हैं. इस परेशानी का जिक्र घटना वाले दिन ही संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत ने छत्तीसगढ़ में एक चिंतन शिविर में किया.

तो अब देखना यह है कि झारखंड के खूंटी जिले में राज्य सरकार को इस घटना के बहाने कितना भीषण दमन करने का अवसर मिलता है. कितने निर्दोषों को वाकई दमन का शिकार होना है, कितनों को जेल जाना है और कितनों को राजद्रोह झेलना है. और इस देश में आदिवासी हैं ही क्या? महज आंकड़ा…

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)