क्यों यूपी विधानसभा में उर्दू में शपथ लेना अवैध है और संस्कृत में वैध?

संस्कृत हिंदू धर्म ग्रंथों की भाषा है, इसीलिए भाजपा का उससे कुछ अधिक ही लगाव है. यह अलग बात है कि इस भाषा की समृद्ध साहित्यिक-दार्शनिक विरासत से उसका कोई ख़ास परिचय नहीं है.

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संस्कृत हिंदू धर्म ग्रंथों की भाषा है, इसीलिए भाजपा का उससे कुछ अधिक ही लगाव है. यह अलग बात है कि इस भाषा की समृद्ध साहित्यिक-दार्शनिक विरासत से उसका कोई ख़ास परिचय नहीं है.

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नाथूराम गोडसे (बाएं) और वीडी सावरकर (साभार: यूट्यूब).

 

शायद बहुत अधिक लोगों को यह न मालूम हो कि नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या सिर्फ़ इसलिए नहीं की थी कि वे पाकिस्तान को उसके हिस्से का कोष देने की वकालत कर रहे थे. हत्या के पीछे के कारणों में एक प्रमुख कारण यह भी था कि गोडसे महात्मा गांधी की हिंदुस्तानी की अवधारणा से नफ़रत करता था, उर्दू को विदेशी भाषा समझता था और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के पक्ष में था.

अदालत के सामने बयान देते हुए उसने स्पष्ट शब्दों में कहा: “राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर भी गांधी जी ने मुसलमानों का जिस प्रकार अनुचित पक्ष लिया उसका कोई और उदाहरण नहीं मिलता… हिंदुस्तान का प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि हिंदुस्तानी नाम की कोई भाषा कहीं नहीं है, न उस भाषा का कोई व्याकरण है और न शब्दावली. यह केवल हिन्दी और उर्दू की खिचड़ी है. पूरे प्रयत्न करके भी गांधी जी इस खिचड़ी को लोकप्रिय न बना सके. मुसलमानों को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने इस बात पर बल दिया कि हिंदुस्तानी को ही राष्ट्रभाषा बनाया जाए…मुसलमानों को प्रसन्न करने के लिए ही हिन्दी के सौन्दर्य और मधुरता को नष्ट कर दिया गया. गांधी जी अपनी हिंदुस्तानी की ज़िद पर जमे रहे परंतु हिन्दू अपनी संस्कृति और मातृभाषा के भक्त रहे….कितनी प्रसन्नता की बात है कि अब करोड़ों देशवासी हिन्दी और देवनागरी के पक्षपाती हैं…..अब यह देखना है कि कांग्रेस लेजिस्लेचर में हिन्दी को स्वीकारती है या गांधी के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करने के लिए एक विदेशी भाषा को भारत जैसे विशाल देश पर थोपती है.”

भारत की राष्ट्रीयता के विकास में भाषा की बहुत बड़ी भूमिका रही है. जिस तरह स्वाधीनता आंदोलन के दौरान राष्ट्रीयता की अलग-अलग अवधारणाएं बनती रहीं और बनने के क्रम में एक-दूसरे से टकराती रहीं, उसी तरह भाषा के सवाल पर भी अलग-अलग दृष्टियां बनीं और उनके बीच तीखा संघर्ष रहा. यह संघर्ष अब और भी अधिक तेज़ होता नज़र आ रहा है क्योंकि इस समय केंद्र और अनेक राज्यों में एक ऐसी विचारधारा से प्रेरित और संचालित राजनीतिक दल सत्ता में है जिसका ब्रिटिशविरोधी स्वाधीनता आंदोलन में कोई कोई योगदान नहीं था और जिसकी विश्वदृष्टि हिन्दुत्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की जुड़वां अवधारणाओं पर आधारित है. कुछ ही दिन पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा में भाषा के सवाल पर हिन्दू सांप्रदायिक पूर्वाग्रह का खुलकर प्रदर्शन हुआ, और इसके कारण यह विषय एक बार फिर सार्वजनिक चर्चा के केंद्र में आ गया.

हुआ यूं कि समाजवादी पार्टी के दो नव-निर्वाचित सदस्यों-नफीस अहमद और आलम बादी ने विधानसभा की सदस्यता की शपथ उर्दू में ली लेकिन सदन के अस्थायी अध्यक्ष फतेह बहादुर ने इसे अवैध करार देते हुए उनसे हिन्दी में दुबारा शपथ लेने को कहा. उन्होंने इस आदेश का विरोध तो किया पर फिर कोई चलती न देखकर हिन्दी में शपथ ले ली. अध्यक्ष का तर्क था कि विधानसभा की कार्यवाही के संचालन के लिए बनी नियमावली के नियम 282 के अनुसार सदन की कार्यवाही केवल देवनागरी लिपि में लिखी हुई हिन्दी भाषा में ही हो सकती है, इसलिए भले ही उर्दू को राज्य में दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा मिला हुआ हो, लेकिन सदन का कामकाज तो नियमानुसार ही होगा. तर्क अपनी जगह ठीक था यदि इस निष्पक्षतापूर्वक लागू किया गया होता. नफीस अहमद और आलम बादी का विरोध इस बात पर था कि भारतीय जनता पार्टी के 13 सदस्यों ने संस्कृत भाषा में शपथ ली है और इसे अध्यक्ष ने मान लिया है. विधानसभा के अधिकारियों की ओर से यह तर्क दिया जा रहा है कि क्योंकि हिन्दी और संस्कृत दोनों देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं, इसलिए अध्यक्ष ने संस्कृत में शपथ होने दी है.

विधायक आलम बदी और नफीस अहमद.
विधायक आलम बदी और नफीस अहमद.

लेकिन प्रश्न यह है कि क्या लिपि से भाषा का निर्धारण होता है? क्या देवनागरी लिपि में लिखी होने के कारण संस्कृत और हिन्दी एक ही भाषा हैं? अगर हैं, तो फिर संविधान के आठवें अध्याय में संस्कृत का एक पृथक भाषा के रूप में उल्लेख क्यों किया गया है? और अगर संस्कृत एक अलग भाषा है, तो फिर उत्तर प्रदेश विधानसभा का सारा कामकाज केवल हिन्दी में होने की अनिवार्यता वाले नियम का क्या होगा?

आज़ादी मिलने से पहले कांग्रेस मुख्यतः एक राजनीतिक मंच थी जिसमें अनेक प्रकार की विचारधाराओं और मान्यताओं वाले लोग शामिल थे. इनमें बहुत-से ऐसे नेता भी थे जिनका दृष्टिकोण कमोबेश हिन्दू सांप्रदायिक था और भाषा के सवाल पर भी वे महात्मा गांधी की हिंदुस्तानी की अवधारणा का खुलकर विरोध न करके भी आरंभ में उसके प्रति उदासीन थे. पुरुषोत्तम दास टंडन, सेठ गोविंद दास और रविशंकर शुक्ल जैसे नेताओं के हिन्दी वर्चस्ववाद वाले अतिवादी दृष्टिकोण के समर्थन में अधिक से अधिक लोग आते जा रहे थे क्योंकि 1940 के दशक में पाकिस्तान की मांग ज़ोर पकड़ती जा रही थी और पाकिस्तान आंदोलन में उर्दू को मुसलमानों की अस्मिता के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा था.

कांग्रेस के ये नेता देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को राष्ट्रभाषा बना कर पूरे देश पर थोप देना चाहते थे और हिंदुस्तानी के लगातार ख़िलाफ़ होते जा रहे थे. उधर महात्मा गांधी देश के लिए एक ऐसी संपर्क भाषा के पक्ष में थे जो “न तो संस्कृतनिष्ठ हिन्दी हो और न फ़ारसीबहुल उर्दू, बल्कि वह इन दोनों का ख़ूबसूरत मिश्रण हो. यह हिंदुस्तानी जहां जैसी ज़रूरत हो वहां अन्य भारतीय भाषाओं से और विदेशी भाषाओं से भी शब्द लेकर अपने आपको समृद्ध करे.”

लेकिन पुरुषोत्तम टंडन और सेठ गोविंद दास जैसे नेता और हिन्दी के कई जाने-माने संगठन इसके सख़्त ख़िलाफ़ थे. 1945 के आते-आते भाषा के सवाल पर भी महात्मा गांधी लगभग हाशिये पर चले गए थे. इसी समय उन्होंने पुरुषोत्तम दास टंडन को एक पत्र लिखकर हिन्दी साहित्य सम्मेलन की सदस्यता से त्यागपत्र देने की इच्छा प्रकट की क्योंकि वह इस बात की वकालत कर रहा था कि केवल देवनागरी लिपि में लिखी हुई हिन्दी ही राष्ट्रभाषा होनी चाहिए. टंडन की ओर से कोई संतोषजनक उत्तर न मिलने पर उन्होंने कुछेक दिन के भीतर त्यागपत्र दे ही दिया.

यहां यह याद दिला दें कि इसके पहले 1938 में जब शांतिनिकेतन में हिन्दी पढ़ा रहे आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी से हिन्दी साहित्य सम्मेलन की सदस्यता ग्रहण करने का प्रस्ताव किया गया तो उन्होंने इसे विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया. आलोक राय ने अपनी पुस्तक “हिन्दी नेशनलिज़्म” में प्रसिद्ध कवि और प्रत्रकार माखनलाल चतुर्वेदी का 1943 का यह कथन उद्धृत किया है: “ जब हम कठिन संस्कृत शब्द हिन्दी में ठूंस कर उसकी गतिशीलता नष्ट करते हैं, तब हम भाषा के संतवाणी की तरह सरल होने के पथ में रोड़े अटकाते हैं और पाकिस्तान की मांग का सिद्धांततः समर्थन करते हैं.” जवाहरलाल नेहरू ने भी इस स्थिति पर यूं टिप्पणी की थी: “भाषायी पृथकतावादी को ज़रा-सा खुरचें तो आप हमेशा पाएंगे कि वह न केवल सांप्रदायिकतावादी है बल्कि राजनीतिक प्रतिक्रियावादी भी है.”

मार्च 1947 में संविधान सभा की बुनियादी अधिकार उपसमिति ने तय किया कि “हिंदुस्तानी, जिसे नागरिक अपनी मर्ज़ी से देवनागरी या फ़ारसी लिपि में लिखने के लिए स्वतंत्र होगा, राष्ट्रभाषा के रूप में संघ की पहली राजभाषा होगी.” लेकिन 14 अगस्त को पाकिस्तान बनने के बाद स्थिति बदलने लगी और हिन्दी वर्चस्ववादियों का हौसला भी बढ़ने लगा. 6 और 7 अगस्त, 1949 को सेठ गोविंद दास ने नई दिल्ली में एक दो-दिवसीय राष्ट्रभाषा सम्मेलन आयोजित किया जिसमें मांग की गई कि “देवनागरी लिपि में लिखी गई संस्कृतनिष्ठ हिन्दी” को भारत की राष्ट्रभाषा बनाया जाए. संविधान सभा में लंबी और पेचीदा बहसों के बाद न केवल यह तय किया गया कि देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी बल्कि यह निर्देश भी दिया गया कि भविष्य में अपने विकास के लिए वह मुख्यतः संस्कृत शब्दभंडार पर निर्भर करेगी.

आज क्या कोई विश्वास करेगा कि संस्कृत को भारत की राजभाषा बनाने का गंभीर प्रयास भी किया जा चुका है?

सितंबर, 1949 में असम से संविधान सभा के सदस्य कुलाधर चालिहा ने सभा में हो रही चर्चा में भाग लेते हुए घोषणा की: “संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने से हम बेहतर भारतीय बन सकेंगे क्योंकि संस्कृत और भारत एकरूप हैं.” भारतीय संविधान के प्रामाणिक इतिहासकार ग्रेनविल ऑस्टिन बताते हैं कि संविधान सभा के 27 सदस्यों ने भी हिन्दी साम्राज्यवाद का मुक़ाबला करने के उद्देश्य से इसी तरह का प्रस्ताव पेश किया था और इन सदस्यों में भीमराव अंबेडकर, टी. टी. कृष्णामाचारी, जी. दुर्गाबाई (देशमुख), पंडित लक्ष्मीनारायण मैत्र और नजीरुद्दीन अहमद भी शामिल थे.

अक्तूबर 1956 में भारत सरकार ने एक संस्कृत आयोग का गठन किया था जिसके अध्यक्ष शीर्षस्थ भाषाविद सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या थे. वी. राघवन और आर. एन. दांडेकर जैसे प्रख्यात संस्कृतज्ञ उसके सदस्य थे. एक वर्ष बाद नवंबर, 1957 में आयोग ने अपनी रिपोर्ट दी जिसमें सिफ़ारिश की गई थी कि सभी स्कूलों में संस्कृत की पढ़ाई अनिवार्य कर दी जाए और उसे भारत की राजभाषा घोषित कर दिया जाए !

इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखते हुए समझ में आता है कि क्यों उत्तर प्रदेश विधानसभा में उर्दू में शपथ ग्रहण करना अवैध है और संस्कृत में शपथ ग्रहण करना वैध है जबकि सदन के नियम के अनुसार केवल हिन्दी भाषा में ही शपथ ली जा सकती है. सच्चाई यह है कि हिन्दी और उर्दू का भाषिक आधार एक ही है और वह है खड़ी बोली. विश्व में शायद ही कहीं दो ऐसी भाषाएं मिलें जिनकी संज्ञा, सर्वनाम, क्रियापद और वाक्य रचना बिलकुल एक जैसी है. लेकिन हिन्दी और उर्दू ऐसी ही भाषाएं हैं. फिराक गोरखपुरी इन्हें बहनें कहा करते थे.

इसके विपरीत संस्कृत की वाक्य रचना, सर्वनाम, क्रियापद- सभी कुछ हिन्दी से अलग है. फिर केवल हिन्दी में कामकाज करने वाला नियम संस्कृत पर कैसे चस्पा कर दिया गया, यह आश्चर्य की बात है. इसके पीछे केवल सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का उर्दू-विरोध ही नज़र आता है. 1988 में जब तत्कालीन नारायण दत्त तिवारी सरकार ने उर्दू को उत्तर प्रदेश की दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा दिया था, तब भाजपा ने उसे “मुस्लिम तुष्टीकरण” का प्रयास बताकर उसका जबर्दस्त विरोध किया था और स्वयं अटल बिहारी वाजपेयी को इस संबंध में बयान देने के लिए मैदान में उतारा था.

संस्कृत वेदों, पुराणों, रामायण, गीता और अन्य हिन्दू धर्म ग्रन्थों की भाषा है और इसीलिए भाजपा का उस पर कुछ अधिक ही ममत्व है. यह बात दीगर है कि इस अद्वितीय भाषा के अतिशय समृद्ध वांग्मय और उसकी साहित्यिक-दार्शनिक विरासत से उसके नेताओं का कोई ख़ास परिचय नहीं है.

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