आयुष्मान भारत: मोदी सरकार चार साल की वादाख़िलाफ़ी से जन्मी बीमारियों का इलाज ढूंढ रही है

प्रधानमंत्री जी! इतनी लचर तैयारी से तो भारत ‘आयुष्मान’ होने से रहा.

(फोटो साभार: पीआईबी)

प्रधानमंत्री जी! इतनी लचर तैयारी से तो भारत ‘आयुष्मान’ होने से रहा.

(फोटो साभार: पीआईबी)
(फोटो साभार: पीआईबी)

केंद्र सरकार की जो ‘आयुष्मान भारत-प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना’ 25 सितंबर को ‘पं. दीनदयाल उपाध्याय जयंती के शुभ अवसर पर’ लागू होनी थी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने झारखंड की राजधानी रांची जाकर उसे दो दिन पहले ही लांच कर दिया, साथ ही गरीबों को सपना (पढ़िये: सब्जबाग) दिखा आये कि अब वे भी अमीरों जैसा इलाज करा पायेंगे, तो उनसे एक सवाल पूछने का मन हुआ.

यह जानते हुए भी कि वे ऐसे सवालों का बुरा भी मानते हैं और जवाब भी नहीं देते. सवाल यों है: पिछले 68 सालों में एक दूजे के विरोध के नाटक करते हुए एक के बाद एक सत्ता में आई भांति-भांति के डंडों-झंडों वाली राजनीतिक जमातों ने एकजुट होकर देश को सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी गणराज्य बनाने के संवैधानिक संकल्प का कचूमर न निकाल दिया होता तो प्रधानमंत्री गरीबों को अमारों जैसे इलाज का यह लालच कैसे जगातेे?

क्योंकि तब तो देश के लोग गरीबों के अमीरों जैसे इलाज में नहीं, अमीर और गरीब सबके लिए जरूरत के अनुसार, उपयुक्त या कि एक जैसे इलाज की व्यवस्था में आश्वस्ति का अनुभव करते.

अगले लोकसभा चुनाव के लिए वोट बटोरने के अभियान में लगे प्रधानमंत्री निर्भय होकर जनरोष से किंचित भी डरे बिना यह लालच बांट रहे हैं तो साफ है कि, और कोई हो या न हो, वे आश्वस्त हैं कि पिछले दशकों में देशवासियों के समता के सपनों को अमीरी के सपनों से प्रतिस्थापित करने के लिए जोर-शोर से चलाई गई ‘सफल’ परियोजनाओं ने समता की आहट से डरी-डरी सी रहने को ‘अभिशप्त’ और घृणास्पद व त्याज्य समझी जाने वाली अमीरी को अब इतनी आदरणीय बना दिया है कि अपने सोने के दिनों और चांदी की रातों की खुमारी में भरी वह इतराती है तो यह सोचने की जरूरत भी महसूस नहीं कर पाती कि इससे कितने गरीबों की दुनिया में रंग आने से मना कर देते हैं.

नाना प्रकार के अंधेरों व सन्नाटों में डूबी उनकी दुनिया उजड़ने से बच भी जाये तो इस सवाल का जवाब नहीं दे पाती कि बेचारे गरीबों को वह मिल भी जाये तो क्या है?

एकदम इसी अमीरी की तर्ज पर खुद को गरीबों के दुखदर्द का भागीदार बताने वाले ‘उसके’ प्रधानमंत्री ने भी नहीं ही सोचा कि जिस ‘आयुष्मान भारत’ को वे दुनिया की सबसे बड़ी हेल्थ केयर योजना बताकर लांच कर रहे हैं, उर्दू के फैजाबाद-स्कूल के अपने वक्त के सबसे बेहतरीन शायर ख्वाजा हैदर अली ‘आतिश’ के प्रसिद्ध शेर-बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जो चीरा तो इक कतर-ए-खून निकला!-को सार्थक करने वाला उसका कड़वा सच आम लोगों तक पहुंचेगा तो उन पर क्या बीतेगी?

प्रधानमंत्री को कम से कम इतना तो सोचना ही चाहिए था कि प्राकृतिक विपदाओं के मारे जिन गरीब किसानों के दिलोदिमाग में धंसी प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के बीमा कंपनियों को मालामाल व किसानों को कंगाल करने वाले क्रियान्वयन की किरचें पहले से ही इंतिहा तकलीफ का कारण बनी हुई हैं, वे इस हेल्थ केयर योजना के दुनिया भर में सबसे बड़ी होने को लेकर किस तरह उत्साहित हो सकते हैं?

खासकर जब ज्यां द्रेज जैसे जनपक्षधर अर्थशास्त्रियों तक को लगता है कि प्रधानमंत्री ‘आयुष्मान भारत’ के नाम पर यह कहकर देशवासियों को ‘बना’ रहे हैं कि अब 10 करोड़ परिवारों को पांच लाख रुपये तक का स्वास्थ्य बीमा मिलेगा क्योंकि इस बीमे के लिए उन्होंने अब तक एक नया पैसा भी आवंटित नहीं किया है.

तथ्यों पर जायें तो ‘आयुष्मान भारत’ के इस साल के 2,000 करोड़़ रुपयों के बजट में करीब-करीब 1,000 करोड़ राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना का है, जो पहले भी था, अब भी है और बाकी 1,000 करोड़ कथित तौर पर हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर के लिए रखा गया है!

ज्यां द्रेज पूछते हैं कि 80,000 रुपये प्रति सेंटर की इस मामूली सी रकम से कितना काम हो सकता है?

चूंकि सरकार ने ऐसे सवालों पर चुप्पी साधकर इससे जुड़ी चिंताएं और बढ़ा दी हैं, ओडिशा, तेलंगाना, दिल्ली, केरल और पंजाब जैसे पांच राज्यों ने ‘आयुष्मान भारत’ को सिरे से अस्वीकार कर दिया है.

इनमें किसी राज्य का दावा है कि उसके पास पहले से ‘आयुष्मान भारत’ से बेहतर स्वास्थ्य योजना है, तो किसी का कहना है कि केेंद्र ने योजना के संबंध में उसकी चिंताओं पर ध्यान ही नहीं दिया.

कहां तो ‘सबके साथ, सबके विकास’ के प्रधानमंत्री के नारे का तकाजा था कि इन राज्यों की चिंताएं खत्म की जातीं और कहां प्रधानमंत्री उनकी अनसुनी कर मुख्यमंत्रियों से तंज व तकरार में उलझ और बदमगजी पैदाकर रहे हैं.

ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने तो उनके तंज पर चिढ़कर उन्हें यह बिना मांगी सलाह तक दे डाली है कि वे अपना ध्यान डीजल-पेट्रोल की बढ़ती कीमतों को नियंत्रित करने में लगाएं.

अब प्रधानमंत्री ही बता सकते हैं कि ऐसे खुन्नस भरे वातावरण में ‘आयुष्मान भारत’ योजना कैसे फूलेगी और फलेगी? अगर देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की तरह तो वहां तो ‘प्रथमग्रासे मक्षिका पातः’ की स्थिति उत्पन्न हो गई है.

योजना से लाभ की उम्मीद लगाये अनेक गंभीर मरीज रामभरोसे हो गये हैं क्योंकि सुपरस्पेशियलिटी इलाज उपलब्ध कराने वाले लखनऊ के एसजीपीजीआई, लारी कार्डियोलाजी, केजीएमयू और लोहिया इन्स्टीच्यूट जैसे चिकित्सा संस्थानों ने इस योजना को दूर से ही नमस्कार कर लिया है.

विधानसभा चुनाव के मुहाने पर खड़ा तेलंगाना तो अपनी ‘आरोग्यश्री’ योजना के सामने इसे कोई भाव ही नहीं दे रहा. उसका तर्क है कि ‘आरोग्यश्री’ के तहत तेलंगाना के 70 प्रतिशत नागरिकों को हेल्थ कवर मिलता है, जबकि ‘आयुष्मान भारत’ से केवल 80 लाख लोग लाभान्वित होते. अन्य राज्यों को भी ‘आयुष्मान भारत’ से इसी तरह की शिकायतें हैं.

यह भी कि ‘आयुष्मान भारत’ के कवर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर आम चुनाव के समय भाजपा को लाभ पहुंचाने के इरादे से लगायी गई है. ऐसे में डर है कि कहीं यह भाजपा शासित राज्यों की योजना होकर ही न रह जाये.

राज्यों के एतराज इसलिए भी हवा में नहीं उड़ाये जा सकते कि योजना का साठ फीसदी खर्च केंद्र को तो चालीस प्रतिशत राज्यों को उपलब्ध कराना है.

इसके पारदर्शी क्रियान्वयन को लेकर अंदेशों का इसलिए भी जोर है कि अभी तक सरकार स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी का महज एक प्रतिशत खर्च करती रही है. तिस पर देश में पर्याप्त व प्रभावी चिकित्सा तंत्र का भी अभाव है.

एक अनुमान के अनुसार देश में ग्यारह हजार लोगों पर एक ही एलोपैथी डॉक्टर उपलब्ध है और इनमें से भी ज्यादातर अमीरों के मुखापेक्षी हैं और अपनी हिप्पोक्रेटिक ओथ (पवित्र शपथ) को तोड़कर मरीजों के आर्थिक दोहन के प्रयासों को ‘समर्पित’ रहते हैं.

फिलहाल, सरकार ने योजना के लिए सरकारी व निजी कुल मिलाकर दस हजार अस्पताल चुने हैं और उनमें चौदह हजार आरोग्य मित्रों को जिम्मेदारियां दी हैं. पूरे देश के आकार हिसाब से आरोग्य मित्रों की यह संख्या ऊंट के मुंह में जीरा ही नजर आती है.

यह संदेह भी अपनी जगह पर है ही कि क्या योजना के तहत निजी अस्पताल सरकार द्वारा निर्धारित दर पर मरीजों का उपचार करेंगे? अगर हां तो किन शर्तों पर और कितने नेकनीयत होकर? उनका इतिहास तो उनसे ऐसी नेकनीयत की अपेक्षा की इजाजत नहीं ही देता.

उनमें से कई अपने भरी भरकम बिलों के लिए मरीजों की लाशें तक रोक लेने के लिए बदनाम हैं. फिर उनकी तो छोड़िये, लखनऊ के पीजीआई के निदेशक राकेश कपूर ने भी यह कहने से परहेज नहीं किया है कि ‘आयुष्मान भारत’ में इलाज के लिए कम रकम की व्यवस्था के कारण यह योजना उनके संस्थान में लागू ही नहीं हो सकती क्योंकि उसे प्रदेश सरकार से दवाओं का अलग से कोई बजट नहीं मिलता.

सरकार आयुष्मान भारत से जुड़े इन असुविधाजनक सवालों और अंदेशों के जवाब देने में हकला रही है तो इसका साफ मतलब है कि उसने इसे लांच करने से पहले पर्याप्त होमवर्क नहीं किया और अपने कार्यकाल के आखिरी साल में उसी तरह इसे लेकर हाजिर हो गई है जैसे तेज भूख या चोट लगने से बच्चा रोता है, तो बड़े उसका ध्यान भटकाने के लिए कोई झुनझुना बजाने लग जाते हैं.

क्या आश्चर्य कि उसके विरोधी कह रहे हैं कि दरअसल वह इस योजना में वोटरों से अपनी साढ़े चार साल की वादाखिलाफी से जन्मी बीमारियों का इलाज ढूंढ़ रही है. लेकिन ऐसा है तो सफलता की गारंटी के लिए और भी जरूरी था कि वह लोगों को सब्जबाग दिखने के बजाय कुछ ठोस पहलकदमियों के साथ सामने आती.

नहीं आई है इसलिए लोग अभी से पूछने लगे हैं कि प्रधानमंत्री गरीबों के अमीरों जैसे इलाज की बात कहीं वैसे ही चुनावी जुमले के तौर पर तो नहीं कह रहे जैसे कभी कालाधन वापस लाकर हर देशवासी के खाते में 15 लाख जमा कराने की बात कही थी?

अफसोस की बात यह है कि सरकार इन पूछने वालों की तो अनसुनी कर ही रही है, यह भी बताने को तैयार नहीं कि उसने इस योजना को जिन पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती से जोड़ा है, उनकी राह पर भी ईमानदारी से क्यों नहीं चल पा रही?

क्यों उन्हें आराध्य बनाते हुए भी वह याद नहीं रखना चाहती कि उन्होंने कहा था: पूंजी का प्रभाव पूंजी के अभाव से ज्यादा नुकसान पहुचाता है?

(कृष्ण प्रताप सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)

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