विशेष रिपोर्ट: बाहरी तौर पर शिवराज सिंह चौहान आरएसएस के तय मानकों से ज़्यादा सेकुलर लगते हैं, लेकिन निजी रूप में वे नरेंद्र मोदी की तरह कट्टर हिंदुत्व में विश्वास रखते हैं.

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान (फोटो: Shivraj Singh Chouhan/facebook)
बहुत से लोग इस बारे में नहीं जानते हैं कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी से पहले ‘पप्पू’ संबोधन से, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का भी मजाक इसी नाम से बनाया जाता था. 2005 में मुख्यमंत्री बनने से पहले उनके राजनीतिक करिअर के ज्यादातर हिस्से में इस शब्द का प्रयोग चौहान का मजाक बनाने के लिए किया जाता था, जो उनके बारे में पार्टी के भीतर और बाहर आम धारणा को बयां करता था.
लेकिन एक बार राज्य के शीर्ष पद पर पहुंचाने के बाद चीजें तेजी से बदलीं. बिना कोई शोर किए काफी कम समय में मध्य प्रदेश के ‘पप्पू’ का रूपांतरण एक नए अवतार में हो गया.
हालांकि, इस बात को लेकर एक राय नहीं है कि आखिर नए मुख्यमंत्री के लिए ‘मामा’ शब्द का प्रयोग किसने किया, लेकिन कई लोगों का यह मानना है कि यह नया उपनाम उनके लिए चमत्कारिक साबित हुआ.
एक तरफ इसने जनता की स्मृति से ‘पप्पू’ उपाधि को मिटा दिया और दूसरी तरफ इसने चौहान को उनके समर्थकों के बीच तत्पर व्यक्ति के तौर पर पेश करने में मदद की, जबकि उनके विरोधी लगातार उनकी नाकामियों की लंबी फेहरिस्त गिना रहे थे.
मुख्यमंत्री बनने के बाद हर चुनाव में चौहान ने अपने नए नाम का व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल किया और इसे अपने वोटरों से जुड़ने के शक्तिशाली माध्यम में तब्दील कर दिया. खासकर महिला वोटरों के साथ (आखिर मामा मां का भाई ही होता है). अब जबकि वे राज्य में सरकार विरोधी भावनाओं को लेकर बढ़ रही चर्चाओं के बीच अगले विधानसभा चुनावों की तरफ बढ़ रहे हैं, वे अपनी सबसे परखी हुई तरकीब का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करने के लिए तैयार हैं.
वे मध्य प्रदेश में चुनाव प्रचार के लिए जहां भी जाते हैं, उनके भाषणों का समापन हर बार दो सीधे सवालों से होता है- ‘ भाजपा को जिताएंगे? मामा को मुख्यमंत्री बनाएंगे?’ हर सवाल के बाद वे जवाब के इंतजार में पलभर का विराम लेते हैं और हर बार बिना किसी अपवाद के भीड़ के एक हिस्से की तरफ से, जो शायद उनका समर्थक होता है, जवाब जोरदार ‘हां!’ के तौर पर आता है.
यह ‘हां’ क्या इतना जोरदार है कि चुनाव को उनके पक्ष में मोड़ दे, यह अभी बहस का विषय है. ‘पप्पू’ से ‘मामा’ में चौहान के रूपांतरण में एक ऐसे व्यक्ति की यात्रा छिपी है, जो अपने पार्टी के सर्वेसर्वाओं- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह की तड़क-भड़क वाली शैली से काफी अलग है.
हालांकि वे भी हिंदुत्व के मकसदों को आगे बढ़ाने के लिए ही काम कर रहे हैं और कई मौकों पर तो वे इसे अपने पार्टी नेताओं की तुलना में ज्यादा समर्पण के साथ आगे बढ़ाने की कोशिश करते हैं, लेकिन चौहान की कोशिश रहती है कि लोगों की नजर उन पर न रहे और वे चुपचाप अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए काम करते रहें.
यह तरीका उन दिनों से ही उनकी पहचान रहा है, जब वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ जुड़े और 1970 के दशक में सक्रिय राजनीति में उतरे. भले उन्हें कम करके आंका जा रहा था और उनके साथियों द्वारा ही उन्हें ‘पप्पू’ कहकर पुकारा जा रहा था, लेकिन वे सतत रूप से सियासी सीढ़ियां चढ़ते गए.

पत्नी साधना सिंह के साथ शिवराज सिंह चौहान (फोटो: पीटीआई)
46 साल की उम्र में जब वे राज्य के मुख्यमंत्री बने, तब तक वे 5 बार लोकसभा सदस्य रह चुके थे. वे पहली बार 1991 में लोकसभा के लिए चुने गए थे. इसके बाद 2003 के विधानसभा चुनाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के हाथों मिली हार भी राज्य के शीर्ष पद तक उनकी सफर में बाधा नहीं डाल सकी.
उस समय शिवराज सिंह चौहान परिदृश्य से लगभग बाहर थे और भाजपा के अभियान का नेतृत्व फायरब्रांड हिंदुत्ववादी नेता उमा भारती द्वारा किया गया था, जिन्होंने राज्य से कांग्रेस को बाहर करने में सफलता हासिल की और मुख्यमंत्री बनाई गईं.
लेकिन एक साल के भीतर 1994 के हुबली दंगों को लेकर उमा भारती के खिलाफ गिरफ्तारी के वारंट निकलने के चलते उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा. उनके बाद संघ के पुराने विश्वस्त बाबूलाल गौर को कमान मिली, लेकिन वे भी ज्यादा दिनों तक पद पर नहीं बने रह सके.
और जब उनकी जगह उम्र में उनसे काफी छोटे शिवराज सिंह चौहान ने ली, तो किसी ने भी उन्हें गंभीरता से नहीं लिया, क्योंकि वे न उमा भारती की तरह लोकप्रिय थे और न गौर की तरह अनुभवी.
उस समय तक कोई भी भाजपाई मुख्यमंत्री, मुख्यमंत्री कार्यालय में अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया था. चौहान भी कुर्सी पर ज्यादा दिनों तक टिक पाएंगे, यह उम्मीद किसी को नहीं थी, क्योंकि सबकी नजर में वे ऐसा कर पाने के हिसाब से काफी कमजोर थे.
उन्होंने बेहद हिचकभरी शुरुआत की और जल्दी ही उनकी पत्नी साधना चौहान के किस्से चर्चा में आने लगे कि असल प्रशासन वे ही चला रही हैं. उनका नाम बाद में निजी भ्रष्टाचार के एक मामले में भी उछला.
डंपर घोटाले के नाम से प्रसिद्ध भ्रष्टाचार का एक मामला 2007 में लोगों के सामने आया. यह आरोप लगाया गया कि मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही चौहान ने रीवा जिले में खनन लीज देने में जेपी एसोसिएट्स की तरफदारी करनी शुरू कर दी थी, जहां कंपनी की एक सीमेंट फैक्टरी थी.
इसके बदले में कंपनी ने चार डंपरों का पैसा दिया था, जिन्हें साधना के नाम से रजिस्टर्ड कराया गया और फिर उन्हें उनसे (साधना सिंह से) लीज पर लिया गया.

मध्य प्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान. (फोटो: पीटीआई)
2008 के विधानसभा चुनावों में, यानी शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में लड़े जाने-वाले पहले चुनाव में, यह मामला एक बड़ा सियासी मुद्दा बनकर उभरा. चुनाव में उनकी जीत ने विपक्ष की बोलती बंद कर दी. कुछ सालों के बाद सबूतों के अभाव में इस मामले को बंद कर दिया गया.
इन शुरुआती झटकों की समाप्ति का मतलब यह भी था कि चौहान ने भाजपा की राज्य इकाई पर भी अपनी मजबूत पकड़ बना ली थी. अपने आत्मविश्वास के बल पर उन्होंने न सिर्फ मुख्यमंत्री के तौर पर अपने अगले कार्यकाल की वैतरणी पार कर ली बल्कि उन्होंने प्रशासन को भी ज्यादा प्रतिबद्धता के साथ चलाया.
2013 में जब विधानसभा का चुनाव हुआ, उस समय उनके नेतृत्व में कांग्रेस को लगातार तीसरी बार मध्य प्रदेश में धूल चटाने में कोई ज्यादा मुश्किल का सामना नहीं करना पड़ा. और उसके बाद भारत के सबसे बड़े नौकरी या कहें भर्ती घोटाले व्यापमं घोटाले का भंडाफोड़ हो गया.
कछुए की रफ़्तार से हुई जांच और कोर्ट में बदलते बयानों के बाद करोड़ों का यह घोटाला फिलहाल राज्य में चुनाव प्रचार के केंद्र में है. इसे न सिर्फ भ्रष्टाचार के मामले के तौर पर देखा जाता है, बल्कि विभिन्न सरकारी नौकरियों में अपने कैडरों की भर्ती की भाजपा और संघ की संदिग्ध नीति के हिस्से के बतौर भी देखा जाता है.
इस घोटाले में न सिर्फ चौहान समेत राज्य भाजपा के बड़े नेताओं के, बल्कि पूर्व सरसंघचालक केएस सुदर्शन और अगले प्रमुख सह-कार्यवाहक (संयुक्त महासचिव) सुरेश सोनी समेत संघ के वरिष्ठ अधिकारियों के भी शामिल होने का आरोप है.
लेकिन फिर भी आरएसएस की नजरों में यह घोटाला कोई महत्व नहीं रखता, क्योंकि अपने पूरे राजनीतिक जीवन में चौहान ने सच्चे स्वयंसेवक के तौर पर व्यवहार किया है. स्कूलों में सूर्य नमस्कार को अनिवार्य करना और पाठ्यक्रम के हिस्से के तौर पर भगवद्गीता की पढ़ाई आरएसएस द्वारा दिखाए गए रास्ते के प्रति उनके समर्पण को ही बयां करती है.
यही वह नज़रिया है जिसके कारण वे प्रशासन के हर पहलू में आरएसएस के वरिष्ठ व्यक्ति को शामिल करते हैं और सभी वरिष्ठ नियुक्तियों और पोस्टिंगों में उनसे राय-मशविरा करते हैं.
बाहरी छवि के हिसाब से देखें, तो वे आरएसएस के स्वीकृति योग्य मानकों से ज्यादा सेकुलर नेता नजर आते हैं. मोदी के विपरीत चौहान ईद के मौके पर मुस्लिमों को टोपी पहनकर बधाई देने के लिए जाने जाते हैं. लेकिन अपने निजी जीवन में वे मोदी की ही तरह कठोर हिंदुत्व के रास्ते पर चलने वाले हैं.

भोपाल में हुई एक रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अन्य नेताओं के साथ शिवराज सिंह चौहान (फोटो: पीटीआई)
यह स्वाभाविक ही है, क्योंकि दिल से चौहान आरएसएस के आदमी हैं, जो इसके सख्त पदानुक्रमों और संगठनात्मक अनुशासन के प्रति इसकी प्रतिबद्धता में खुद को सहज महसूस करते हैं. चूंकि उन्होंने अपने व्यक्तित्व का मोदी के विपरीत महिमामंडन नहीं किया है, इसलिए मोदी की तुलना में वे आरएसएस के ज्यादा विश्वासपात्र हैं.
आरएसएस राज्य में जो भी करना चाहता है, उसका समर्थन करना उनकी शक्ति का स्रोत है और यह बात उन्हें पता है. यही कारण है कि 2016 के आसपास जब व्यापमं घोटाले की काफी चर्चा थी और उनकी स्थिति काफी डांवाडोल नजर आ रही थी, चौहान ने राज्य को चलाने में संघ समर्थित साधुओं को शामिल करना शुरू किया.
उसी साल उन्होंने संघ के भूतपूर्व प्रचारकर स्वामी अखिलेश्वरानंद गिरि को राज्य गोरक्षा बोर्ड का अध्यक्ष बनाया. कुछ महीनों के बाद चौहान ने साधुओं की एक समिति बनाई, जिसका मकसद घोषित तौर पर नर्मदा के किनारे-किनारे पर वनीकरण, स्वच्छता और जल-संरक्षण को बढ़ावा देना था. लेकिन इसका वास्तविक मकसद आने वाले विधानसभा चुनावों में हिंदू धार्मिक नेताओं की अपील का दोहन करना था.
इस साल अप्रैल में, राज्य समिति के सदस्यों- स्वामी नामदेव त्यागी उर्फ कंप्यूटर बाबा, भय्यूजी महाराज, स्वामी नर्मदानंद, स्वामी हरिहरनंद और पंडित योगेंद्र महंत (जिन सब पर आरएसएस का हाथ था) को राज्य मंत्री का दर्जा दिया गया. दो महीने बाद अखिलेश्वरानंद को भी यह दर्जा दे दिया गया.
इसी तर्क से राज्य में आदर्श चुनाव संहिता लागू होने से महज कुछ दिन पहले चौहान ने गो-मंत्रालय की स्थापना का ऐलान किया, जो मध्य प्रदेश में गोरक्षा बोर्ड की जगह लेगा. इस बोर्ड के अध्यक्ष अखिलेश्वरानंद ने गायों की विशेष देखभाल के लिए अलग से एक मंत्रालय के गठन की सिफारिश की थी.
चौहान की जीत देश के पहले गो-मंत्रालय की बुनियाद रखेगी, लेकिन हार- एक ऐसे समय में जब मोदी और शाह पार्टी में किसी तीसरे नेता को स्वतंत्र रूप से बढ़ने देने की इजाजत न देने के लिए कृतसंकल्प दिखाई दे रहे हैं- चौहान को फिर से ‘पप्पू’ के दर्जे में वापस भेज सकती है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)
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