क्या राजनीतिक दबाव में छत्तीसगढ़ के पुलिस अधिकारी कल्लूरी को बचाने में लगी है सीबीआई?

सीबीआई की आंतरिक रिपोर्ट के मुताबिक दो गवाहों ने साल 2011 में छत्तीसगढ़ में बस्तर ज़िले के ताड़मेटला गांव में पुलिस अधिकारी एसआरपी कल्लूरी को आदिवासियों के घरों में आग लगाते हुए देखा था, लेकिन जांच एजेंसी की फाइनल चार्जशीट से इसे हटा दिया गया है.

छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी एसआरपी कल्लूरी. (फोटो साभार: फेसबुक/Govind Raj Naidu)

सीबीआई की आंतरिक रिपोर्ट के मुताबिक दो गवाहों ने साल 2011 में छत्तीसगढ़ में बस्तर ज़िले के ताड़मेटला गांव में पुलिस अधिकारी एसआरपी कल्लूरी को आदिवासियों के घरों में आग लगाते हुए देखा था, लेकिन जांच एजेंसी की फाइनल चार्जशीट से इसे हटा दिया गया है.

जनवरी 2012 में सीबीआई की टीम ताड़मेटला में गांवावालों से मिली. सीबीआई टीम पर भी विशेष पुलिस अधिकारियों ने हमला किया था और उन्हें गांववालों से मिलने से रोका था.
जनवरी 2012 में सीबीआई की टीम ताड़मेटला में गांवावालों से मिली. सीबीआई टीम पर भी विशेष पुलिस अधिकारियों ने हमला किया था और उन्हें गांववालों से मिलने से रोका था.

नई दिल्ली: दो गांववाले जिन्होंने केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) से यह कहा था कि उन्होंने छत्तीसगढ़ पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी एसआरपी कल्लूरी को 2011 के एक पुलिस ऑपरेशन के दौरान दर्जनों आदिवासी घरों में आग लगाने वालों में शामिल देखा था, उनके नामों को एजेंसी ने ऊपर से आए निर्देशों के कारण आरोप-पत्र में गवाहों की आख़िरी सूची से हटा लिया है. यह बात सीबीआई के लीक हुए दस्तावेज़ों से उजागर हुई है.

बस्तर के ताड़मेटला की यह घटना- जो छत्तीसगढ़ में पुलिस हिंसा के सबसे खौफ़नाक उदाहरणों में से एक है- की जांच सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर सीबीआई ने की थी. कोर्ट ने यह निर्देश राज्य प्रायोजित ग्राम रक्षक आंदोलन सलवा जुडूम को बंद करने के आदेश देते हुए दिया था.

जहां, सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के बीच झगड़ा नामी लोगों के मामले में भ्रष्टाचार और शक्ति के दुरुपयोग पर केंद्रित है, वहीं छत्तीसगढ़ फाइल इस तरफ़ एक संकेत करती है कि भारत की सबसे प्रतिष्ठित जांच एजेंसी की जांच रिपोर्ट को राजनीतिक एजेंडे के तहत और प्रभावशाली लोगों को मुक़दमे से बचाने के लिए कितनी आसानी से बदलवाया जा सकता है. वैसी स्थिति में भी जब जांच के निर्देश स्वयं सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए हों.

साल 2011 में छत्तीसगढ़ के ताड़मेटला गांव में आगज़नी की घटना में पुलिस अधिकारी एसआरपी कल्लूरी के शामिल होने की दो गवाहों ने पुष्टि की थी, लेकिन उनका नाम चार्जशीट से हटा दिया गया है.
साल 2011 में छत्तीसगढ़ के ताड़मेटला गांव में आगज़नी की घटना में पुलिस अधिकारी एसआरपी कल्लूरी के शामिल होने की दो गवाहों ने पुष्टि की थी, लेकिन उनका नाम चार्जशीट से हटा दिया गया है.

द वायर ने मार्च, 2011 में छत्तीसगढ़ के सुकमा ज़िले के तीन गांवों- ताड़मेटला, तिमापुरम और मोरपल्ली- में एक हफ्ते चले ऑपरेशन के दौरान आग लगाने के मामले की सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर की गई सीबीआई जांच से संबंधित कागज़ातों को हासिल किया है.

पुलिस और सरकार का दावा था कि गांवों में आग माओवादियों ने लगाई. एफआईआर में भी यही कहा गया, जबकि उस समय की कई मीडिया रिपोर्टों में सुरक्षा बलों द्वारा इन गांवों में आग लगाने की बात की गई थी.

गांववालों ने सुरक्षा बलों द्वारा बलात्कार और हत्याओं के बारे में भी बताया था. यह घटना उस समय और उलझ गई जब द्रोणपाल में सलवा जुडूम के नेताओं ने स्वामी अग्निवेश पर हमला किया, जो प्रभावित गांवों में राहत पहुंचाने की कोशिश कर रहे थे.

अक्टूबर, 2016 में पुलिस की कहानी के उलट, सीबीआई ने सात विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) पर तिमापुरम और ताड़मेटला में आगज़नी और सलवा जुडूम के पी. विजय और सोयम मूका जैसे नेताओं समेत 26 अन्यों पर अग्निवेश पर हमला करने का आरोप तय किया. लेकिन सीबीआई ने मोरपल्ली गांव में बलात्कार, हत्या और आगज़नी के मामले को बंद कर दिया.

हालांकि, पुलिस ने आरोप-पत्र पर इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस (आईजी) एसआरपी कल्लूरी के नेतृत्व में अपनी तीखी प्रतिक्रिया दी- मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के पुतले जलाए गए, सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता और सीपीआई के नेता मनीष कुंजम के प्रेस कॉन्फ्रेंस पर हमला किया गया, याचिकाकर्ता नंदिनी सुंदर और अन्य के ख़िलाफ़ हत्या का मनगढ़ंत मामला दायर किया, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी- लेकिन सीबीआई के आंतरिक दस्तावेज़ों ने इन संभावनाओं को जन्म दिया है कि इसके आरोप-पत्रों का मक़सद जांच अधिकारी द्वारा अपनी क्लोज़र रिपोर्ट में किए गए ज़्यादा गंभीर पर्यवेक्षणों की तरफ़ से सबका ध्यान भटकाना था.

क्लोज़र रिपोर्ट के तौर पर सीबीआई की जांच दंतेवाड़ा के तत्कालीन एसएसपी और बाद में बस्तर के आईजी बने कल्लूरी की भूमिका पर सवाल उठाता है और इस तथ्य को उजागर करता है कि किस तरह से पुलिस और प्रशासन ने बलात्कार और हत्या जैसे जघन्य अपराधों पर पर्दा डालने की कोशिश की.

यह रिपोर्ट छत्तीसगढ़ प्रशासन की गंभीर चूकों की ओर भी इशारा करती है. लेकिन सीबीआई के जांच अधिकारियों द्वारा की गई सिफ़ारिशों के बावजूद इस रिपोर्ट को कभी भी सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश नहीं किया गया.

सीबीआई ने इस मामले में दो साल पहले ही आरोप-पत्र दाख़िल किया था, लेकिन आरोपी विशेष पुलिस अधिकारी (एसओपी) और सलवा जुडूम के नेतागण आज तक रायपुर में सीबीआई के विशेष जज के सामने पेश नहीं हुए हैं. जज की यह कुर्सी भी एक साल से ख़ाली पड़ी है. यहां से तबादला किए गए जज की जगह कोई नहीं आया है.

छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी एसआरपी कल्लूरी. (फोटो साभार: फेसबुक/Govind Raj Naidu)
छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी एसआरपी कल्लूरी. (फोटो साभार: फेसबुक/Govind Raj Naidu)

अपने ही निष्कर्षों पर लीपापोती करने के लिए सीबीआई ने अब अभिषेक शांडिल्य को छत्तीसगढ़ के प्रभारी एसपी के तौर पर नियुक्त किया है.

यह दिलचस्प है कि शांडिल्य उस समय सुकमा के एसपी थे, जब 2012 में सीबीआई के जांच अधिकारियों पर विशेष पुलिस अधिकारियों ने हमला किया था.

सीबीआई प्रायः ऐसे हितों के टकराव से परहेज़ करती है, क्योंकि एजेंसी को अक्सर ऐसे मामलों की जांच करनी पड़ती है, जिसे राज्य पुलिस द्वारा बेपटरी कर दिया गया होता है, या जिसमें उसकी ही संलिप्तता का संदेह होता है.

क्या हुआ था मार्च, 2011 में

वर्ष 2011 में 11 मार्च से 16 मार्च से बीच, उस समय सुकमा के एडिशनल एसपी डीएस मारावी के नेतृत्व में ‘327 जवानों’ के एक दल ने एसएसपी दांतेवाड़ा के आदेश पर एक ‘खोज अभियान’ चलाया था. (मारावी द्वारा दायर एफआईआर 4/2011). उस समय दंतेवाड़ा के एसएसपी कल्लूरी थे.

गांववाले बताते हैं कि ऑपरेशन के दरमियान तीन लोगों- भांडा मोरपल्ली के माडवी सुला, पालनपाड़ के बडसे भीमा और पालनपाड़ के ही मनु यादव की हत्या कर दी गई थी. तीन महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया था. मोरपल्ली में दो और ताड़मेटला में एक.

मोरपल्ली में कुल 33, तिमापुरम में 59 घर जलाए गए थे और ताड़मेटला में 160 घरों को आग के हवाले कर दिया गया था.

मीडिया में इस घटना की रिपोर्टिंग 23 मार्च को की गई. और इसके बाद ही पुलिस ने आगज़नी को लेकर एफआईआर दायर करने की जहमत उठाई. हालांकि, पुलिस की एफआईआर में माओवादियों पर आरोप लगाया गया है.

कलेक्टर और कमिश्नर ने 24 मार्च को घटनास्थल का दौरा करने की कोशिश की, लेकिन उन्हें पुलिस द्वारा वापस लौटा दिया. विशेष पुलिस अधिकारियों ने कमिश्नर द्वारा राहत पहुंचाने के लिए लगाए गए ट्रक के ड्राइवर के साथ मारपीट की गई. स्थानीय पत्रकारों को भी रोका गया.

आख़िरकार जब स्वामी अग्निवेश ने 26 मार्च को गांवों को राहत पहुंचाने की कोशिश की तब उन पर और उनके अनुयायियों पर द्रोणपाल में बर्बरतापूर्वक हमला किया गया.

विधानसभा में कांग्रेस द्वारा और बाहर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा सवाल पूछे गए. 10 अप्रैल, 2011 को ताड़मेटला की एक बलात्कार पीड़िता ने जगदलपुर में हुई जनसुनवाई में अपनी आपबीती सुनाई.

5 जुलाई, 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए कि उसे राज्य सरकार के आदेश से कराई जाने वाली किसी जांच में भरोसा नहीं है, घटना की सीबीआई जांच के आदेश दिए.

संयोगवश फरवरी, 2012 में सीबीआई पर ख़ुद विशेष पुलिस अधिकारियों द्वारा द्रोणपाल में हमला हुआ, जिसके बाद जांच को कुछ समय के लिए रोक दिया गया. जब जांच फिर से शुरू हुई, तब गांववालों को गवाही देने के लिए 200 किलोमीटर दूर जगदलपुर जाना पड़ा.

जनवरी 2012 में सीबीआई टीम आगज़नी से प्रभावित एक गांव में लोगों से मिलने गई थी तब विशेष पुलिस अधिकारियों ने टीम पर हमला कर दिया था और उन्हें गांववालों से मिलने से रोका था.
जनवरी 2012 में सीबीआई टीम आगज़नी से प्रभावित एक गांव में लोगों से मिलने गई थी तब विशेष पुलिस अधिकारियों ने टीम पर हमला कर दिया था और उन्हें गांववालों से मिलने से रोका था.

एक ताज़ा एफआईआर की स्पष्ट ज़रूरत होने के बावजूद, जिसमें बलात्कार और हत्या के आरोपों को शामिल किया जाता है, सीबीआई द्वारा राज्य सरकार को बचाने की पहली कोशिश तब की गई, जब इसने पुलिस की एफआईआर को अपनी जांच का आधार बनाया.

सीबीआई द्वारा अक्टूबर, 2016 में दायर की गई एफआईआर में मारावी, जो उस समय एडिशनल एसपी थे, को शिकायतकर्ता के तौर पर सूचीबद्ध किया गया. तथ्य यह है कि 2011 में आगज़नी की घटना का नेतृत्व करने के कारण, उन्हें मुख्य आरोपी बनाया जाना चाहिए था.

एसआरपी कल्लूरी की संलिप्तता

23 अक्टूबर, 2016 को किए गए एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में, यानी सीबीआई द्वारा आरोप-पत्र दायर करने के ठीक बाद, कल्लूरी ने इन ऑपरेशनों की पूरी ज़िम्मेदारी ली थी और कहा था कि उन्हें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) में जाने के लिए मजबूर किया गया.

उन्होंने यह दावा भी किया कि ताड़मेटला के घरों में पुलिस और नक्सलियों के बीच गोलीबारी के कारण आग ख़ुद-ब-ख़ुद लग गई, क्योंकि यह गर्म था.

सीबीआई की रिपोर्ट में कहा गया है कि एनएचआरसी के बारे में दावा ‘छत्तीसगढ़ पुलिस के शरारत भरे दिमाग की उपज है, क्योंकि इसके द्वारा वे मानवाधिकार आयोग की शिकायतों पर जांच से बचना चाहते हैं. हालांकि उनके दिमाग में यह पहले दिन से ही साफ था कि यह ऑपरेशन सिर्फ नक्सल विरोधी ऑपरेशन था.

इस रिपोर्ट में दो गवाहों के नामों का उल्लेख किया गया है, जिन्होंने कल्लूरी को आग लगाने में शामिल देखा, लेकिन उनके नामों को ऊपर से आए ‘निर्देशों’ के कारण अंतिम आरोप-पत्र में गवाहों की सूची से बाहर कर दिया.

सीबीआई की आंतरिक रिपोर्ट में कल्लूरी के बारे में यह कहा गया है:

आरसी. 10 (एस)/2011 में दो गवाह हैं, जिन्होंने ताड़मेटला गांव में आग लगाने वालों में श्री एसआरपी कल्लूरी का नाम लिया है, जो उस समय दंतेवाड़ा के डीआईजी-एसएसपी थे.

एसआरपी कल्लूरी के टूर प्रोग्राम से भी यह यह पता चलता है कि वे उस दौरान चिंतलनार चौकी पर मौजूद थे. इसलिए एसआरपी कल्लूरी की भूमिका को भी पूरी तरह से ख़ारिज नहीं किया जा सकता है.

अगर गांववालों द्वारा पहचान किए गए विशेष पुलिस अधिकारियों (एसओपी) के ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाने की सिफ़ारिश को सही माना जाता है, तो यही तर्क एसआरपी कल्लूरी और डीएस मारावी पर भी लागू होगा, क्योंकि उनकी पहचान भी गांववालों द्वारा की गई है और वे ऑपरेशन का नेतृत्व कर रहे थे.

गांववालों के बयानों के अतिरिक्त कोई अन्य सबूत ऐसा नहीं है जो यह साबित कर सके कि गांववालों द्वारा पहचान किए गए विशेष पुलिस अधिकारी घटना वाले दिन गांव में दाख़िल हुए था या नहीं.

अगर हम सीआरपीएफ/कोरबा के बयानों के बयानों को विशेष पुलिस अधिकारियों के गांव में दाख़िल होने के अतिरिक्त सबूत के तौर पर देखें, तो यह बताना उपयोगी होगा कि उन्होंने किसी व्यक्ति का नाम लिए बगैर सभी विशेष पुलिस अधिकारियों/छत्तीसगढ़ पुलिस पार्टी के बारे में सामान्य रूप से बताया है.

इसलिए अगर उनका सबूत व्यक्तिगत विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) पर लागू होता है, तो यह एसआरपी कल्लूरी और डीएस मारावी पर भी लागू होगा.

जांच के दौरान एकत्र किए गए एसआरपी कल्लूरी के टूर प्रोग्राम के अनुसार वे उपरोक्त अवधि के दौरान चिंतलनार चौकी पर उपलब्ध थे और ताड़मेटला गांव चिंतलनार चौकी से सिर्फ 10/12 किलोमीटर दूर है.

जहां कल्लूरी पर लिए गए यू-टर्न ने यह सुनिश्चित किया कि प्रभावशाली पुलिस अधिकारियों को मुक़दमे का सामना नहीं करना पड़ेगा, वहीं अंतिम चार्जशीट को इस तरह से तैयार किया गया ताकि सीबीआई के ज़्यादा परेशानी पैदा करने वाले निष्कर्षों को कमज़ोर किया जा सके.

कैसे की सीबीआई ने अपने ही निष्कर्षों पर लीपापोती

सीबीआई की आंतरिक रिपोर्ट और इसके द्वारा कोर्ट में दायर चार्जशीट के बीच अंतर कई बिंदुओं पर बहुत साफ है:

आगज़नी

सीबीबाई रिपोर्ट में कहा गया है कि इस बात को लेकर कोई सवाल नहीं है कि 16 मार्च, 2011 को ताड़मेटला गांव में 160 घरों को जला दिया गया था.

सवाल यह है कि यह काम आख़िर किसने किया- क्या यह काम माओवादियों ने किया, जैसा कि पुलिस एफआईआर का दावा है; या यह काम सुरक्षा बलों का है, जैसा कि गांववालों का दावा है.

सीबीआई की चार्जशीट यह साफ-साफ कहती है कि गांववालों ने घरों को जलाने के लिए ज़िम्मेदार कुछ चुने हुए विशेष पुलिस अधिकारियों का नाम लिया.

इस तरह से यह चार्जशीट गांववालों के दावे को अपने आरोप का एकमात्र आधार बनाती है.

वास्तव यह है कि आंतरिक रिपोर्ट कहीं ज़्यादा घातक है:

‘सीआरपीएफ/कोरबा से गवाहों ने कहा है कि स्थानीय पुलिस/विशेष पुलिस अधिकारी गांव में दाख़िल हुए थे और वे सिर्फ नाले के बाहर से गांव की घेराबंदी कर रहे थे. यह एफआईआर के मज़मून की असत्यता और साथ ही पुलिस/एसपीओ के इन बयानों की असत्यता को भी कि वे कभी ताड़मेटला गांव में दाखिल नहीं हुए थे, की असत्यता को साबित कर देता है.’

इससे आगे गांववालों ने सुरक्षा बलों ने आग लगाने के लिए माचिसों और घरों के अंदर से जलती हुई लकड़ी का उपयोग करने की बात कही थी. सीएसएफएल की रिपोर्ट में भी मिट्टी के तेल या किसी विस्फोटक पदार्थ की बात नहीं की गई है. ‘इसलिए सीएफएसएल की नकारात्मक रिपोर्ट को भी गांववालों के बयानों को मज़बूती देनेवाले के तौर पर देखा जा सकता है.’

जहां तक पुलिस के इस दावे का सवाल है कि माओवादियों ने घरों को जलाया, सीबीआई की रिपोर्ट का कहना है, ‘एफआईआर और पुलिस जवानों के बयानों के अतिरिक्त इसकी पुष्टि करने के लिए कोई दूसरा सबूत मौजूद नहीं है.’

नक्सलियों की मौजूदगी और गोलीबारी

मारावी द्वारा दायर एफआईआर के मुताबिक: ‘सुबह 7-8 बजे के करीब, ताड़मेटला पहुंचने के लिए नदी को पार करते वक़्त हथियारबंद नक्सलियों ने पुलिस पार्टी को नुकसान पहुंचाने के लिए उन पर गोलियां चलाईं. पुलिस पार्टी ने जवाब में गोलियां चलाईं और सशस्त्र नक्सलों को घेरने की कोशिश की. सशस्त्र नक्सलों ने घरों में आग लगा दी और जंगल की तरफ भाग गए. पुलिस दल ने उनका पीछा किया, सशस्त्र नक्सलों ने भी पुलिस दल पर हमला किया और पुलिस दल पर गोलियां चलाते रहे. पुलिस पार्टी को कोई नुकसान नहीं हुआ.’

पुलिस एफआईआर ने माओवादियों के लिए हत्या और दंगा करने की कोशिश करने का मामला दर्ज किया है.

लेकिन सीबीआई की आंतरिक रिपोर्ट में कहा गया है:

‘इसके विपरीत अन्य पुलिस/सीआरपीएफ गवाहों ने जो नाले के पास मौजूद थे, ने नक्सलियों के हमले का सामना करने या गोलियों की आवाज़ सुनने की बात नहीं की है. अगर नक्सलियों द्वारा भारी गोलीबारी होती, जिसके कारण वे गांव में दाख़िल नहीं हो सके, तो कम से कम सारे सुरक्षाकर्मियों को हमले की जानकारी होती और उन्हें गोलियों के चलने की आवाज़ सुनाई दी होती. इससे वास्तव में इस बात को लेकर शक पैदा होता है कि क्या सचमुच नक्सलियों के साथ कोई मुठभेड़ हुई भी थी, जैसा कि पुलिस ने दावा किया है.’

इसमें यह भी कहा गया है कि सभी गांववालों ने उस तारीख़ को गांव में किसी नक्सल के मौजूद होने से इनकार किया.

इस बात को देखते हुए कि माओवादियों की मौजूदगी की संभावना नहीं थी, सीबीआई ने भी उनके ख़िलाफ़ दंगा करने और हत्या की कोशिश के आरोपों को ख़ारिज कर दिया.

अनधिकृत हिरासत और प्रताड़ना

सीबीआई की आंतरिक रिपोर्ट में कहा गया है: ‘एफआईआर में अनधिकृत हिरासत को लेकर कोई आरोप नहीं लगाया गया था, लेकिन जांच के दौरान ताड़मेटला गांव के कुछ निवासियों ने शारीरिक प्रताड़ना और अनधिकृत हिरासत का आरोप लगाया. दो तरह के ग़ैरक़ानूनी हिरासत और प्रताड़ना के आरोप लगाए गए हैं, 1. माडवी हांडा और माडवी ऐटा की गैरकानूनी हिरासत. पुलिसकर्मियों ने उन्हें पकड़ लिया और उन्हें चिंतलनार चौकी लेकर गए. 2. सामान्य तौर पर गांववालों को ग़ैरक़ानूनी ढंग से हिरासत में ले लिया गया. इसके साथ ही पुलिसकर्मियों द्वारा गांववालों की पिटाई की गई, उन्हें जबरन घर से बाहर निकाला गया, उन्हें प्रतिबंधित क्षेत्र में खड़ा किया गया और घरों में आग लगा दी गई.’

जनवरी 2012 में आगज़नी से प्रभावित गांवों में से एक में सीबीआई टीम.
जनवरी 2012 में आगज़नी से प्रभावित गांवों में से एक में सीबीआई टीम.

सीबीआई ने माडवी हांछा और ऐटा के बयानों की पुष्टि करने के लिए कि उन्हें पकड़ कर ले जाया गया, सीआरपीएफ के अलावा तहसीलदार के बयानों का हवाला दिया है. जहां तक सामान्य रूप से गांववालों की पिटाई का संबंध है, सीबीआई रिपोर्ट में यह कहा गया है कि घटना के निश्चित समय और जगह को लेकर विरोधाभासी बयान हैं, लेकिन इस तथ्य को देखते हुए कि गांववाले अशिक्षित हैं, और वहां चार पल्ली हैं और स्थिति काफी अफरातफरी वाली थी, सीबीआई ने गांववालों का पक्ष लिया है:

‘गांववालों के सारे बयानों में समान बात यह है कि सुरक्षा बल गांव में दाख़िल हुआ, उन्होंने कई गांववालों को पीटा, कई गांववालों को जबरदस्ती उनके घरों से बाहर निकाल दिया गया, कइयों को पकड़ लिया गया और गांव की एक निश्चित जगह पर उन्हें क़ैद करके उनके घरों में आग लगा दी गई.’

बलात्कार

पुलिस की एफआईआर बलात्कारों को लेकर चुप थी, लेकिन सीबीआई ने इसे गांववालों की शिकायतों के आधार पर दर्ज किया. चार्जशीट में बलात्कार पर जो कहा गया है और इसके बारे में आंतरिक नोट में जो कहा गया है, उनमें अंतर सबसे ज़्यादा ध्यान खींचनेवाला है. चार्जशीट के मुताबिक,

श्रीमती. एमजे उनके साथ बलात्कार करनेवाले किसी व्यक्ति को पहचान नहीं हो पाईं. आरोपों को पुष्ट करने वाला कोई सबूत जांच के दौरान नहीं मिला.

क्लोज़र रिपोर्ट के मुताबिक, हालांकि रेप का होना साबित है, लेकिन अपराधी की पहचान नहीं की जा सकती है:

‘हालांकि बलात्कार के आरोप ख़ुद पीड़िता के बयान से साबित होते हैं और उसकी आंख के नज़दीक पाए गए चोट के निशान और उसके अचेत पड़े होने के तथ्य से इसकी पुष्टि भी होती है, लेकिन चूंकि इस बताए गए अपराध के लिए किसी व्यक्ति की शिनाख़्त नहीं की जा सकी, इसलिए इस मामले में आगे कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी.’

इन निष्कर्षों के हिसाब से पीड़िता कुछ नहीं तो मुआवज़े की तो हक़दार है ही.

रिकॉर्ड्स में मौजूद अंतर्विरोध

तिमापुरम गांव के मामले में दायर की गई चार्जशीट में सीबीआई मनु यादव और बाडसे भीमा नामक दो गांववालों की सुरक्षा बलों द्वारा हत्या के आरोपों पर पूरी तरह से खामोश है.

हालांकि, इसकी आंतरिक क्लोज़र रिपोर्ट से पता चलता है कि अनाम नक्सल वास्तव में एक साधारण किसान मनु यादव था, जिसे विशेष पुलिस अधिकारियों द्वारा उसके घर से उठा कर ले जाया गया था और उसकी हत्या कर दी गई थी.

एफआईआर में दर्ज समयों, जांच रिपोर्ट, कथित तौर पर पहने गए कपड़े और दो सीआरपीएफ जवानों द्वारा मुहैया कराए गए सबूतों में अंतरों की इशारा करते हुए रिपोर्ट का निष्कर्ष है:

‘इससे यह संदेह पुख्ता होता है कि शायद जैसा कि गांववालों का आरोप है, सोडी मनु को छत्तीसगढ़ पुलिस के सुरक्षाकर्मियों द्वारा पहले अगवा कर लिया गया, उसके बाद उसकी हत्या कर दी गई, जब वह सुरक्षा जवानों की क़ैद से भागने की कोशिश कर रहा था.’

मोरपल्ली गांव के बारे में सीबीआई कोर्ट में दायर क्लोज़र चार्जशीट में, जहां गांववालों द्वारा दो बलात्कारों और एक हत्या का आरोप लगाया गया था, सीबीआई का निष्कर्ष है कि हिरासत में बलात्कार को साबित नहीं किया जा सका, क्योंकि पीड़िता ने चिंतलनार थाना में एक महिला एसपीओ के होने की बात कही थी और पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक उस दिन थाने में कोई महिला एसपीओ तैनात नहीं थी.

लेकिन पुलिस रिकॉर्ड्स की स्थिति को देखते हुए और किसी भी तरह की गलती पर लीपापोती की जी-जान से की जानेवाली कोशिश को देखते हुए, जिसका ज़िक्र ख़ुद सीबीआई ने किया है, इसमें कुछ भी हैरत लायक नहीं है. वास्तव में सुकमा के एसपी के द्वारा जवानों की जो सूची मुहैया कराई गई, उसमें उस एसपओ का ज़िक्र तक नहीं है, जो ऑपरेशन में मारा गया.

सीबीआई की आंतरिक क्लोज़र रिपोर्ट सीबीआई की जांच के प्रति राज्य पुलिस के लापरवाही भरे रवैये की ओर भी इशारा करती है. जब उनसे मार्च, 2011 में तिमापुरम में जब्त किए गए नक्सली साहित्य को भेजने के लिए कहा गया, जब उन्होंने 2013 से जुड़ी सामग्री भेज दी.

(नोट: नंदिनी सुंदर इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता हैं, जिनकी याचिका पर सुनवाई करते हुए सीबीआई को 2011 की घटना की जांच की ज़िम्मेदारी सौंपी गई. वह द वायर के एक संस्थापक संपादक की पत्नी हैं.)

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