किसी भी तरह के उकसावे पर सैन्य बलों को ग़ैर-क़ानूनी तरीकों का सहारा नहीं लेना चाहिए

सरकार के हिंसा पर एकाधिकार को तब ही स्वीकार किया जा सकता है जब वह क़ानून के दायरे में हो; अगर ऐसा नहीं है तब कोई उसके इस एकाधिकार को तोड़ता है तो उसे ग़लत नहीं ठहराया जा सकता.

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सरकार के हिंसा पर एकाधिकार को तब ही स्वीकार किया जा सकता है जब वह क़ानून के दायरे में हो; अगर ऐसा नहीं है तब कोई व्यक्ति, भीड़ या चरमपंथी उसके इस एकाधिकार को तोड़ता है तो उसे ग़लत नहीं ठहराया जा सकता.

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पिछले दिनों सेना की जीप पर बंधे बीरवाह के फ़ारूक़ अहमद डार का वीडियो सामने आया, जो दिखाता है कि घाटी में कैसे स्थितियां बिगड़ती जा रही हैं. वीडियो में दिखता है कि कैसे यह जीप गांव-गांव घूम रही है और जीप में से एक जवान की आवाज़ सुनाई देती है, ‘पत्थर फेंकने वालों का यही हाल होगा.’

यहां ग़ौर करने वाली बात यह है कि फ़ारूक़ ने खुद बताया कि उसने कभी सेना पर पत्थर नहीं फेंके और जिस रोज़ उसे सेना द्वारा पकड़ा गया, उसी दिन वह उपचुनावों में वोट करके आया था. पर अगर सेना को उकसाया भी गया होता तब भी भारतीय सेना किसी तरह के ग़ैर-क़ानूनी तरीके का सहारा नहीं ले सकती, न ही उन्हें ऐसा करना चाहिए. किसी भी आम नागरिक को यूं पकड़कर ढाल की तरह इस्तेमाल करना निश्चित रूप से ही ग़ैर-क़ानूनी है और उम्मीद है कि प्रशासन संबंधित दल से इस बारे में जवाबतलब ज़रूर करेगा.

शुरुआत से ही भारतीय प्रशासन द्वारा कश्मीर में अशांति से निपटने के लिए उचित और क़ानूनी तरीकों का ही इस्तेमाल किया गया है. क़ानून के हिसाब से ही उन्होंने कोई ग़ैर-क़ानूनी कदम उठाने पर जवानों और पुलिस को भी सज़ा दी है. यह सच है कि कश्मीर में अशांति शुरू होने के शुरुआती पांच सालों में अत्याचार और कस्टडी में मौत के कई मामले सामने आए पर कुल मिलकर देखें तो भारतीय सेना का रिकॉर्ड अच्छा ही रहा है.

चरमपंथियों के ख़िलाफ़ आनुपातिक हिंसा के सिद्धांत पर काम करना सेना की कार्रवाई का महत्वपूर्ण क़ानूनी पहलू है. भारतीय सुरक्षा दलों ने इस बात का अच्छी तरह पालन भी किया है. उन्होंने घनी आबादी वाले इलाकों में छिपे चरमपंथियों के ख़िलाफ़ कभी भारी हथियारों का प्रयोग नहीं किया. इज़राइल के उलट भारतीय सेना चरमपंथियों का मुक़ाबला करते वक़्त इस बात का ख़्याल रखती है कि वह जिनका सामना कर रही है वे भारतीय नागरिक हैं, जो भारतीय संविधान और क़ानून के तहत पूर्ण सुरक्षा के हक़दार हैं.

हालांकि यह भी सच है कि कहीं भी, किसी भी सेना के लिए ऐसे विद्रोहियों से पूरी तरह क़ानूनी तरीके से निपटने का आदर्श तो रखा जाता है, पर सच इससे अलग है. ऐसे चरमपंथी अक्सर आम लोगों के बीच छिपते हैं, उन्हें अपनी ढाल बनाकर इस्तेमाल करते हैं. ज़्यादातर समय जब उपद्रव जैसी घटनाएं होती हैं तब आस-पास खड़े किसी आम व्यक्ति और आतंकी में फर्क़ करना बहुत मुश्किल होता है, इस आम व्यक्ति को ‘ओवर ग्राउंड वर्कर’ कहा जाता है. इसलिए आश्चर्य नहीं है कि 1988 से अब तक इस तरह आतंकवादियों के ख़िलाफ़ हुए सेना के ऑपरेशनों में करीब 15,000 आम नागरिकों की जान गई है.

फिर भी सरकार किसी भी स्थिति में न्यायिक आचरण को बनाए रखने की अपनी ज़िम्मेदारी से मुंह नहीं फेर सकती. सरकार द्वारा हिंसा के इस एकाधिकार को तभी स्वीकार किया जा सकता है जब वह खुद नियम और क़ानून के हिसाब से चले, अगर वह ऐसा नहीं करती है तब इसे किसी व्यक्ति, भीड़ या चरमपंथियों द्वारा उनके हिंसा के इस एकाधिकार को तोड़ने पर ग़लत नहीं ठहराया जा सकता. यही कारण है कि सोशल मीडिया पर वायरल हुए इस वीडियो में दिखने वाले तरीके ग़लत और ग़ैर-क़ानूनी हैं.

अशांति या उग्रवाद से निपटने के लिए दो-तरफ़ा रणनीति की ज़रूरत होती है, जिससे उग्रवादियों की सशस्त्र चुनौती के साथ उनके राजनीतिक संदेश को भी हराया जा सके. इसमें से पहला उद्देश्य तो सुरक्षा बलों ने बहुत साहस और बलिदान देकर पूरा किया है. 1988 से 2016 के दौरान लगभग 6,000 सुरक्षाकर्मियों ने अपनी जान गंवाई है और शायद इतने ही घायल होकर विकलांग हो गए. हालांकि पिछले एक दशक में इस आंकड़ें में गिरावट देखी गई है. सुरक्षाकर्मियों की मौतों की संख्या कम हुई है. साल 2001 में यह आंकड़ा सबसे ज़्यादा 1,067 था, जो 2012 में 17 पर आ गया था.

पर बदक़िस्मती से 2016 में यह आंकड़ा फिर बढ़कर 88 हो गया.

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फोटो : रॉयटर्स

इसकी वजह उग्रवाद से निपटने की रणनीति के दूसरे पहलू का अमल में न आना है. उग्रवादियों के राजनीतिक संदेशों को आमजन तक पहुंचने से रोकने या उनसे निपटने की न के बराबर ही कोशिशें हुई हैं. असल में देखा जाए तो दोनों सरकारों, चाहे राज्य सरकार हो या केंद्र, की नीति सौम्य या यूं कहें कि उदासीन बने रहने की रही है. इसके पीछे छिपे राजनीतिक पहलुओं को जानने-समझने की कभी कोशिश ही नहीं की गई.

जनता की नाराज़गी मापने का पैमाना उनका ग़ुस्सा नहीं बल्कि घाटी में हुए हालिया उपचुनावों में उनका मतदान में भाग न लेना है. घाटी के किसी चुनाव में यह मतदान का न्यूनतम प्रतिशत है. 2002 में पहले स्वतंत्र विधानसभा चुनाव में 43.70 फीसदी मत पड़े थे, जो 2008 में बढ़कर 61.60% हो गए. उसके बाद 2014 में वोटिंग प्रतिशत 65.52 रहा. श्रीनगर और बाकी कई शहरी संसदीय क्षेत्र जो अलगाववादियों का गढ़ रहे हैं, वहां हमेशा ही मतदान का प्रतिशत कम रहा है पर 2014 में वहां भी इस प्रतिशत में बढ़त देखने को मिली. लेकिन इस बार स्थिति फिर बिगड़ती दिखी है.

2014 विधानसभा चुनाव में अलग तरह के ध्रुवीकरण के चलते ऐसी स्थितियां पैदा हुईं कि भाजपा को घाटी में एक सीट भी हासिल नहीं हुई, वहीं महबूबा मुफ़्ती की पीडीपी घाटी के बाहर कोई सीट नहीं पा सकी. इस फैसले से एक असंभव बात संभव हुई, दो कभी साथ न आ सकने वाली पार्टियों ने गठबंधन करके प्रदेश में सरकार बनाई. यह हालिया स्थिति इसी गठबंधन का नतीजा है क्योंकि पीडीपी समर्थकों, ख़ासकर दक्षिणी कश्मीर के पीडीपी समर्थकों में इस गठबंधन के प्रति काफ़ी ग़ुस्सा है.

हर वक़्त पाकिस्तान को इल्ज़ाम देने से कुछ नहीं होगा. हालांकि 2016 में सीमारेखा के पास पठानकोट, उड़ी और नागरोटा जैसे कई हमलों के लिए पाकिस्तानी आतंकवादी ज़िम्मेदार है, पर सच यही है कि पिछले दिनों बढ़ी हिंसा के लिए घरेलू कारण ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं और यह दो तरह से काम करते हैं : पहला तो सेना के कैंपों और टुकड़ियों पर बढ़ते हमले और दूसरा पत्थरबाज़ी सहित अन्य हिंसक नागरिक प्रदर्शन.

इस गठबंधन को जम्मू कश्मीर की स्थितियां सुधारने के लिए इस्तेमाल करने के बजाय राज्य और केंद्र सरकार, दोनों ही स्थितियों को हाथ से निकलने दे रही हैं. और सबसे ज़्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने यह मान लिया है कि अलगाववाद से निपटने के लिए यहां के माहौल को यथास्थिति छोड़ देना ही हल है.

पर स्थितियों को उनके हाल पर छोड़ा देना कश्मीरी जनता के साथ-साथ सुरक्षा बलों के लिए भी नुकसानदायी होगा. भले ही सरकार पत्थर फेंकने वालों से हमदर्दी नहीं रखती हो, पर सुरक्षा बलों के प्रति उसकी ज़िम्मेदारी बनती है. आम नागरिकों द्वारा किए जा रहे ‘हिंसक प्रदर्शनों’ की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अब जनता में सुरक्षा बलों के उग्रवादियों का घेराव करने या उनके ख़ुफ़िया ठिकानों पर इंटेलिजेंस के छापों के समय इन उग्रवादियों की मदद के लिए आगे आने की तत्परता देखी जा सकती है. यह लोकप्रिय भावनाओं और उनके ग़ुस्से को दिखाता है, जिससे विशेष रूप से सुरक्षा बलों के सामने मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं.

उग्रवाद का मुकाबला किए जाने के साथ अब दो स्तर की परेशानियां हैं : पहला हथियार बंद आतंकियों का मुकाबला करना, जो अपेक्षाकृत आसान है, दूसरा है पत्थर फेंकने वाली भीड़ से निपटना, जिसके लिए विशेष ट्रेनिंग प्राप्त पुलिस फोर्स की ज़रूरत होती है, जो इस तरह के हिंसक प्रदर्शनों से निपटने के लिए प्रशिक्षित तो हो, साथ ही उसके पास इस काम के लिए उचित संसाधन भी उपलब्ध हों.

किसी भी तरह के विद्रोह का मुकाबला करना कभी आसान या सुखद नहीं होता. जान जाने और अपंग होने के ख़तरे के अलावा एक तनाव हमेशा किसी सैनिक या पुलिसकर्मी के दिमाग में बना रहता है. इसके अलावा जो जवान किसी गार्ड ड्यूटी का हिस्सा है, दिन-रात हमलों से दो-चार होते हैं या अपने घर जाने के लिए टुकड़ी बनाकर में जम्मू से ट्रेन पकड़ने जा रहे हैं या फिर भीड़ के पत्थरों का सामना कर रहे हैं, उन पर ऐसी स्थितियों का मनोवैज्ञानिक असर भी होता है. पर दुखद यह है कि ऐसी स्थितियों को किसी राजनीतिक प्रयास से सुलझाने की बजाय सुरक्षा बलों को लगातार बढ़ती हिंसा की उन घटनाओं से निपटने की मुश्किल ज़िम्मेदारी दे दी गई है, जिनके ख़त्म होने की फिलहाल तो कोई उम्मीद नज़र नहीं आती.

(मनोज जोशी आॅब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में विशिष्ट शोधकर्ता हैं, साथ ही ‘लॉस्ट रिबेलियन : कश्मीर इन नाइनटीज़’ क़िताब के लेखक भी हैं)

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