वो कौन से कारण हैं जिनकी वजह से मध्य प्रदेश में चूक गए चौहान

इस विधानसभा चुनाव में जितनी अधिक सीटें कांग्रेस ने पाई हैं, उतनी ही संख्या में भाजपा ने सीटें गंवाई हैं. पिछले चुनावों में कांग्रेस को 58 और भाजपा को 165 सीटें मिली थीं. इस बार कांग्रेस की सीटों में 56 की बढ़ोतरी हुई है. उसकी सीटें 114 हो गई हैं. वहीं, भाजपा की सीटें 56 कम होकर 109 रह गई हैं.

Bhopal: Madhya Pradesh Chief Minister Shivraj Singh Chouhan addresses a press conference, at BJP State headquarters in Bhopal, Wednesday, Dec. 12, 2018. BJP State President Rakesh Singh is also seen.(PTI Photo)(PTI12_12_2018_000200)
Bhopal: Madhya Pradesh Chief Minister Shivraj Singh Chouhan addresses a press conference, at BJP State headquarters in Bhopal, Wednesday, Dec. 12, 2018. BJP State President Rakesh Singh is also seen.(PTI Photo)(PTI12_12_2018_000200)

इस विधानसभा चुनाव में जितनी अधिक सीटें कांग्रेस ने पाई हैं, उतनी ही संख्या में भाजपा ने सीटें गंवाई हैं. पिछले चुनावों में कांग्रेस को 58 और भाजपा को 165 सीटें मिली थीं. इस बार कांग्रेस की सीटों में 56 की बढ़ोतरी हुई है. उसकी सीटें 114 हो गई हैं. वहीं, भाजपा की सीटें 56 कम होकर 109 रह गई हैं.

Bhopal: Madhya Pradesh Chief Minister Shivraj Singh Chouhan addresses a press conference, at BJP State headquarters in Bhopal, Wednesday, Dec. 12, 2018. BJP State President Rakesh Singh is also seen.(PTI Photo)(PTI12_12_2018_000200)
मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान. (फोटो: पीटीआई)

ऐसा माना जाता है कि मध्य प्रदेश में सत्ता का रास्ता मालवा-निमाड़ अंचल से ही खुलता है. ऐसा पिछले विधानसभा चुनावों में साबित भी होता आया है. इसका कारण भी है. छह अंचलों में विभाजित प्रदेश में सबसे ज़्यादा 66 सीटें इसी अंचल से आती हैं.

इसलिए जब प्रदेश में किसी दल की हार-जीत की गणना करते हैं तो इस अंचल के आंकड़ों को नज़रअंदाज़ किया ही नहीं जा सकता है.

कुछ इसी तरह प्रदेश में 82 सीटें अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) वर्ग के लिए आरक्षित हैं जिनमें 35 सीटें एससी और 47 सीटें एसटी वर्ग के लिए आरक्षित हैं.

यह सीटें भी सरकार बनाने और बिगाड़ने का काम करती हैं. 90 के दशक में भाजपा के पास एसटी की सीटें इकाई के अंक में हुआ करती थीं. नतीजतन वह सत्ता से दूर थी. उसने यहां संघ के साथ मिलकर पसीना बहाया तो 2003 में भारी बढ़त बना ली और सत्ता हासिल कर ली.

इस दौरान कांग्रेस यहां पिछड़ी रही तो 15 सालों तक सत्ता से दूर रही.

बहरहाल, मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है लेकिन बहुमत नहीं जुटा सकी है. बसपा, सपा और निर्दलीय विधायकों के सहयोग से वह सरकार बनाने जा रही है.

पिछले विधानसभा चुनावों की अपेक्षा कांग्रेस की सीटों में लगभग दोगुनी बढ़ोतरी हुई है, जबकि पिछली बार से जितनी अधिक सीट कांग्रेस ने पाई हैं, समान संख्या में सीट भाजपा ने गंवाई हैं.

पिछले चुनावों में कांग्रेस को 58 और भाजपा को 165 सीटें मिली थीं. इस बार कांग्रेस की सीटों में 56 की बढ़ोतरी हुई है. उसकी सीटें 114 हो गई हैं. वहीं, भाजपा की सीटें 56 कम होकर 109 रह गई हैं.

इसलिए सवाल उठता है कि इस घट-बढ़, प्रदेश में काग्रेस के उदय और भाजपा के पतन के पीछे क्या समीकरण बने और उन समीकरणों के पीछे क्या कारण रहे? मतदान के पहले भाजपा और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का 200 पार का नारा 100 पार पर कैसे सिमट गया? कांग्रेस का 150 पार का नारा बहुमत लायक सीट भी क्यों नहीं ला सका?

दोनों ही दलों के दिग्गज नेताओं के वे पूर्वानुमान क्यों धराशयी हो गए जहां शिवराज एग्ज़िट पोल के नतीजों के बाद ख़ुद को सबसे बड़ा सर्वेयर बताकर सरकार बनाने का दावा कर रहे थे, तो वहीं कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ 140 प्लस और दिग्विजय सिंह 132 सीटें आने की बात कह रहे थे?

मालवा-निमाड़ अंचल के जिस महत्व का ऊपर ज़िक्र किया है उसी ने इस बार भी अपना असर दिखाया है. भाजपा ने पिछले चुनावों की अपेक्षा यहां 27 सीटों का नुकसान उठाया है तो कांग्रेस ने 26 सीटों को पाया है. निर्दलियों के खाते में भी पिछली बार की अपेक्षा एक सीट अतिरिक्त गई है.

पिछले चुनावों में यहां की 66 में से 55 सीटें भाजपा ने जीती थीं, कांग्रेस इकाई अंक में 9 पर सिमट गई थी और निर्दलीय 2 सीट जीते थे. इस बार भाजपा को 27, कांग्रेस को 35 और निर्दलियों को 3 सीटें मिली हैं.

भाजपा भारी नुकसान में रही है. यहां यह जानना ज़रूरी हो जाता है कि यही वह क्षेत्र है जहां बीते वर्ष किसान आंदोलन भड़का था और मंदसौर गोलीकांड में किसानों ने अपनी जान गंवाई थी. एट्रोसिटी एक्ट में केंद्र सरकार के संशोधन के बाद हुआ सवर्ण आंदोलन भी यहीं भड़का था. उज्जैन में सवर्ण संगठनों ने सड़कों पर लाखों की भीड़ जुटाई थी.

कहीं न कहीं ये दोनों मुद्दे भाजपा पर भारी पड़े. उज्जैन पर उसकी पकड़ ढीली हो गई. यहां 7 सीटें हैं, पिछली बार सभी भाजपा ने जीती थीं लेकिन इस बार उसे केवल 3 सीटों पर जीत मिली और 4 गंवा दीं.

हालांकि, किसान आंदोलन जिस मंदसौर, मल्हारगढ़ और हाटपिपल्या में भड़का था, इन तीन में से दो सीटें भाजपा ने ही जीती हैं लेकिन आसपास के खेती-किसानी वाले क्षेत्रों में वह पिछड़ गई है. जहां कांग्रेस की किसान क़र्ज़ माफ़ी की घोषणा ने भी आग में घी का काम किया.

मालवा-निमाड़ में 31 सीटें आरक्षित भी हैं. पिछले चुनावों में भाजपा ने 24 जीती थीं तो कांग्रेस को 6 मिली थीं, एक निर्दलीय के खाते में थी. इस बार भाजपा की 14 सीटें खिसककर कांग्रेस के खाते में चली गई हैं. भाजपा को 10 सीटें मिली हैं तो कांग्रेस ने 20 जीती हैं.

Bhopal: Supporters of Congress leader and MP Jyotiraditya Scindia and Madhya Pradesh Congress President Kamal Nath gather in support of their leaders before the start of Congress Legislature Party meeting at PCC headquarters in Bhopal, Thursday, Dec 13, 2018. Both the leaders are front-runners for the chief minister's post. (PTI Photo) (PTI12_13_2018_000180)
भोपाल स्थित कांग्रेस मुख्यालय पर गुरुवार को जमा कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया और प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ के समर्थक. (फोटो: पीटीआई)

31 में 9 सीटें एससी वर्ग की हैं. पिछली बार भाजपा ने एससी वर्ग की सभी 9 सीटें जीती थीं. इस बार उसे 4 सीटें ही मिली हैं, 5 सीटें कांग्रेस ने छीन ली हैं. एसटी वर्ग की 22 सीटें हैं और यहां आंकड़े पिछली बार से ठीक उल्टे हो गए हैं. पिछली बार यहां 15 सीट भाजपा ने जीती थीं और 6 कांग्रेस ने तो इस बार 15 सीट कांग्रेस ने जीती हैं और 6 भाजपा ने.

सीधे तौर पर उज्जैन ज़िले ही नहीं, एससी सीटों पर भी भाजपा को जातीय समीकरणों ने नुकसान पहुंचाया है. एक ओर भाजपा के राज में देशभर में दलितों पर हमले बढ़े हैं तो दलित खफ़ा रहे तो दूसरी ओर एट्रोसिटी एक्ट में भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार के संशोधन ने सवर्णों को उससे खफ़ा कर दिया. कुल मिलाकर अंचल में एससी सीटों पर दोनों ही वर्गों का मतदाता उससे नाराज़ रहा.

एसटी सीटों पर भी भाजपा को संघ की नाराज़गी मोल लेना भारी पड़ा, ऐसा भी कहा जा सकता है. इस नाराज़गी का नुकसान भाजपा को मालवा में ही नहीं, पूरे प्रदेश की 47 एसटी सीटों पर हुआ.

दो दशक पहले एसटी सीटों पर अपना वजूद तलाश रही भाजपा को संघ ने यहां आदिवासियों के हिंदूकरण या कहें कि इन क्षेत्रों में अपने किए कामों से स्थापित किया था. संघ ही यहां आदिवासी वोट भाजपा के खाते में डलवाता आया था लेकिन इस बार संघ की भाजपा से नाराज़गी सरकार पर भारी पड़ी.

हुआ यूं था कि संघ ने भाजपा को टिकट आवंटन को लेकर अपना सर्वे सौंपा था लेकिन पार्टी की ओर से उस पर विचार नहीं किया गया जिसके चलते संघ ने पार्टी से किनारा कर लिया. नतीजा यह रहा कि पिछली बार प्रदेश की 47 एसटी सीटों में से 31 सीट जीतने वाली भाजपा इस बार 16 पर आकर सिमट गई.

उसके हिस्से की 15 सीटें कांग्रेस को शिफ्ट हो गईं, जिससे पिछले चुनावों में 15 सीटें पाने वाली कांग्रेस 30 सीटें पाने में सफल रही. एसटी सीटों पर जय आदिवासी युवा शक्ति संगठन (जयस) के डॉ. हीरालाल अलावा, जो बाद में कांग्रेस में शामिल हो गए, उनका भी काफी प्रभाव था, तो थोड़ा-बहुत उनके कारण भी भाजपा को नुकसान तो कांग्रेस को इन सीटों पर फायदा हुआ.

यह भी कहना मौजूं होगा कि भाजपा की हार की नींव प्रदेश भर में आरक्षित सीटों से खिसके उसके जनाधार ने भी रखी है. जिससे उसकी सीटें कांग्रेस को ट्रांसफर हो गई.

प्रदेश में कुल 82 आरक्षित सीटें (एसटी 47, एससी 35) हैं. भाजपा ने पिछले चुनावों में 59 सीटें जीती थीं. लेकिन इस बार 25 सीटें उसने गंवा दीं और संख्या 34 पर आ गई.

वहीं, कांग्रेस ने 28 सीटों की बढ़ोतरी की. 25 सीटें तो भाजपा की ली हीं, 3 सीटें बसपा की भी उसके खाते में आ गईं. पिछले चुनावों में उसे 19 सीटें मिली थीं, इस बार संख्या 47 है.

आरक्षित सीटें इस तरह गेम चेंजर साबित हो गईं.

वहीं, भाजपा की हार और कांग्रेस की जीत में मालवा-निमाड़ के अतिरिक्त अन्य पांच अंचलों (ग्वालियर चंबल, महाकौशल, बुंदेलखंड, विंध्य, मध्य भारत) का विश्लेषण करना भी ज़रूरी है.

भाजपा को सबसे अधिक फजीहत अगर झेलनी पड़ी है तो वह प्रदेश कांग्रेस चुनाव प्रचार अभियान समिति के अध्यक्ष सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया के गढ़ ग्वालियर-चंबल अंचल में.

यहां की 34 में से 26 सीटें वह हार गई. पिछली बार उसे यहां से 20 सीटें मिली थीं तो इस बार संख्या 8 ही रह गई. कांग्रेस को 25 सीटें मिली हैं और एक सीट पर बसपा जीती है. पिछली बार कांग्रेस को 12 सीटें मिली थीं. इस बार दोगुने की बढ़ोतरी हुई है. 12 सीटें उसने भाजपा तो एक सीट बसपा से छीनी है. बसपा ने 2013 में 2 सीट जीती थीं.

गौरतलब है कि ग्वालियर-चंबल वही इलाका है जहां 2 अप्रैल को दलितों के भारत बंद का सबसे ज़्यादा असर रहा था, 6 लोगों की जान गई थी. नतीजा कि 7 एससी वर्ग की सीटों में से 6 भाजपा हार गई. एट्रोसिटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ सवर्ण आंदोलन भी यहीं सबसे अधिक भड़का था.

लोगों ने नोटा का प्रचार किया था, साथ ही नेताओं को काले झंडे दिखाए थे. मुख्यमंत्री शिवराज द्वारा सरकारी नौकरियों में पदोन्नतियों में आरक्षण ख़त्म करने के संबंध में दिया बयान, ‘मेरे रहते कोई माई का लाल आरक्षण ख़त्म नहीं कर सकता’ को अंचल के सवर्ण वर्ग ने गंभीरता से लिया था और सड़क से लेकर सोशल मीडिया तक इसे शिवराज के ख़िलाफ़ प्रयोग किया था. गौरतलब है कि ग्वालियर-चंबल जातिगत राजनीति के लिए जाना जाता है और यह सवर्ण बहुल इलाका है.

महाकौशल में भी भाजपा बहुत पिछड़ गई और उसके खाते की 10 सीटें कांग्रेस ले गई. गौरतलब है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों के ही प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह और कमलनाथ महाकौशल क्षेत्र से आते हैं. दोनों इसी क्षेत्र की अलग-अलग सीटों से सांसद भी हैं. इसलिए मुक़ाबला प्रदेश अध्यक्ष बनाम प्रदेश अध्यक्ष था, जिसमें कमलनाथ बाज़ी मार ले गये. अपने संसदीय क्षेत्र छिंदवाड़ा ज़िले की सभी 7 सीटें उन्होंने कांग्रेस को जिताई हैं. पहले यहां भाजपा की पास 4 सीटें थीं.

Bhopal: Madhya Pradesh Congress President Kamal Nath with AICC Observor AK Antony and Jitendra Singh, senior party leaders Jyotiraditya Scindia , Digvijaya Singh and others during Madhya Pradesh Congress Legislative Party Meeting, in Bhopal, Wednesday, Dec. 12, 2018. (PTI Photo) (PTI12_12_2018_000257)
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली सफलता के बाद बुधवार को भोपाल स्थित पार्टी मुख्यालय पर प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ के साथ पार्टी पर्यवेक्षक एके एंटनी, जितेंद्र सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, दिग्विजय सिंह और अन्य नेता. (फोटो: पीटीआई)

बहरहाल, पूरे अंचल की बात करें तो 38 सीटें हैं, कांग्रेस 23, भाजपा 14 और 1 निर्दलीय के खाते में गई. पिछली बार कांग्रेस 13, भाजपा 24 और 1 निर्दलीय को मिली थी. यहां की जनता द्वारा भाजपा छोड़कर कांग्रेस के साथ जाने का कारण यह रहा कि उसे लगा कि हमारे क्षेत्र का नेता ही मुख्यमंत्री बनेगा तो क्षेत्र का विकास होगा.

नुकसान तो भाजपा ने मध्य भारत और बुंदेलखंड अंचलों में भी उठाया है. लेकिन फिर भी वह कांग्रेस पर भारी पड़ी है.

मध्य भारत में 36 सीटें हैं, भाजपा 23 और कांग्रेस 13 जीतने में सफल रही. पिछली बार भाजपा ने 29 जीती थीं और कांग्रेस ने तब चुनावों में यहीं से सबसे ख़राब प्रदर्शन किया था और वह 6 सीटों पर सिमट गई थी. तब एक सीट निर्दलीय के खाते में गई थी. कांग्रेस को इस तरह 7 सीटों का फायदा हुआ और भाजपा को 6 का नुकसान.

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का गृह ज़िला सीहोर इसी क्षेत्र में आता है. वहां से ज़रूर भाजपा क्लीन स्वीप करने में सफल रही. सभी 4 सीटें जीतीं. शिवराज के चेहरे का असर पड़ोसी ज़िले होशंगाबाद में भी दिखा और यहां की भी चारों सीटों भाजपा ने क्लीन स्वीप किया.

शिवराज के संसदीय क्षेत्र रहे विदिशा ज़िले में भी भाजपा ने 5 में से 4 सीटें जीतीं. भोपाल ज़िले में उसे 2 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा. ज़िले की 7 में से 4 पर ही जीत मिली जबकि पिछली बार 6 सीटें जीती थीं. बाकी रायसेन, राजगढ़, बैतूल और हरदा में भी पार्टी ने अपनी पकड़ गंवाई है.

मध्य भारत में भाजपा के ख़िलाफ़ मुद्दा तो कोई खास नहीं था लेकिन एंटी इनकमबेंसी ज़्यादा थी और लोग सत्ता में बदलाव की बात कहते थे.

बुंदेलखंड खेती-किसानी का अभावग्रस्त क्षेत्र है. सूखा और पलायन यहां की पहचान है और कहीं न कहीं कांग्रेस की किसान क़र्ज़ माफी की घोषणा यहां भी काम कर गई. वहीं, क्षेत्रीय जनता की अपेक्षाओं पर खरा न उतरना, जिसकी बानगी क्षेत्र की दमोह सीट से वित्त मंत्री जयंत मलैया की हार रही, भी भाजपा के नुकसान उठाने की वजह रही.

26 सीटों वाले बुंदेलखंड में भाजपा को 14, कांग्रेस को 10, सपा 1 और बसपा को 1 सीट मिली. भाजपा ने पिछले चुनावों में 20 सीटें जीती थीं, कांग्रेस को 6 मिली थीं.

सभी छह अंचलों में विंध्याचल एकमात्र ऐसा क्षेत्र रहा जहां भाजपा ने पिछले चुनावों से कहीं अधिक बेहतर प्रदर्शन किया. यहां की 30 सीटों में से उसे 24 पर जीत मिली.

गौरतलब है कि 2013 में विंध्य में भाजपा का प्रदर्शन सबसे कमज़ोर रहा था. तब 30 में से 17 सीटें जीती थीं. इस बार 7 सीटें बढ़कर पाईं. कांग्रेस को तब 11 सीटें मिली थीं और बसपा को 2 सीट.

इस बार कांग्रेस ने 5 सीटों का नुकसान उठाया. यहां तक कि पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के बेटे विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह, जो कि विंध्य के सबसे बड़े कांग्रेसी नेता हैं और कभी हारे नहीं थे, वे भी हार गए. विंध्य अजय सिंह का ही गढ़ माना जाता है.

नतीजे देखकर लगता है कि मानो भाजपा ने प्रदेश में अपनी कमज़ोर कड़ी विंध्याचल पर ही पूरा ध्यान लगाया था, यहां तो जीत गये, बाकी सब अंचल हार गये या नुकसान में रहे.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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