ग़ालिब और उनका ‘चिराग़-ए-दैर’ बनारस

बनारस को दुनिया के दिल का नुक़्ता कहना दुरुस्त होगा. इसकी हवा मुर्दों के बदन में रूह फूंक देती है. अगर दरिया-ए-गंगा इसके क़दमों पर अपनी पेशानी न मलता तो वह हमारी नज़रों में मोहतरम न रहता.

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मिर्ज़ा ग़ालिब. (फोटो साभार: kachchachittha.com)

बनारस को दुनिया के दिल का नुक़्ता कहना दुरुस्त होगा. इसकी हवा मुर्दों के बदन में रूह फूंक देती है. अगर दरिया-ए-गंगा इसके क़दमों पर अपनी पेशानी न मलता तो वह हमारी नज़रों में मोहतरम न रहता.

मिर्ज़ा ग़ालिब. (फोटो साभार: kachchachittha.com)
मिर्ज़ा ग़ालिब (जन्म: 27 दिसंबर 1797, अवसान: 15 फरवरी 1869). (फोटो साभार: kachchachittha.com)

रामपुर नवाब के एक निकट संबंधी ज़ैनुल आबदीन ख़ान को मार्च 1858 के लिखे एक ख़त में मिर्ज़ा ग़ालिब इस तरह फ़रमाते हैं, ‘जनाब नवाब साहब मेरे मुहसिन, मेरे क़द्रदान और मेरी उम्मीदगाह (आशा का केंद्र) हैं. मैं अगर रामपुर न आऊंगा तो कहां जाऊंगा?’

इस ख़त में ग़ालिब अंग्रेज़ों के दफ़्तरों में अटकी हुई पेंशन का ज़िक्र करते हैं. वह रामपुर आने की इच्छा जताते हैं. लेकिन ख़त के आख़िर में अपने मिज़ाज़ के मुताबिक बड़ी रवानगी के साथ लेकिन सवालिया लहज़े में नवाब के क़रीबी से पूछते हैं, ‘मगर हैरान हूं कि जब तलक यहां रहूं, खाऊं क्या? और जब चलने का क़स्द (निश्चय) हो तो रामपुर किस तरह पहुंचूं?’

वह वक़्त कुछ ऐसा था कि एक शहर से दूसरे पहुंचना आसान नहीं होता था. हर तरह की दिक्कतें पेश आतीं थीं. अपने एक मित्र मिर्ज़ा शमशाद अली बेग रिज़वान को अगस्त 1866 के पत्र में ग़ालिब लिखते हैं, ‘रामपुर के सफ़र में ताब-व-ताक़त, हुस्न-ए-फ़िक्र, लुत्फ़-ए-तबीयत, ये सब असबाब लुट गए.’

वह वर्ष 1853 का था जब भारत में पहली रेलगाड़ी का शुभारम्भ हुआ. ग़ालिब के दिल में भी ‘लहर’ उठती कि रेल की सवारी करने को मिले. वर्ष 1866 में ग़ालिब उम्र के 70 बरस पूरे कर चुके थे. हर तरह का ज़ोफ़ (कमज़ोरी) उन्हें परेशान किए हुए था.

ग़ालिब इस बरस नवंबर महीने में नवाब मीर ग़ुलाम बाबा ख़ान को ग़ालिब एक ख़त लिखते हैं. नवाब साहब सूरत के रहने बाले एक रईस थे. उन्होंने मिर्ज़ा को सूरत आने का न्योता दिया था. ग़ालिब ने जवाब में लिखा…

‘ब-सवारी-ए-रेल रवाना होने की लहर दिल में तो आई. पांव से अपाहिज, कानों से बहरा, ज़ोफ़-ए-बसारत (दृष्टि से कमज़ोर), ज़ोफ़-ए-दिमाग़, और इन सब ज़ोफ़ों पर ज़ोफ़-ए- ताले (अर्थात भाग्य भी कम मेहरबान). क्यों कर सफ़र करूं? तीन चार शबाना (रातें) राजे कफ़स (रेल के डिब्बे की क़ैद में) में किस तरह बसर करूं?’

बावजूद इसके सफ़र कभी-कभी अपरिहार्य होते थे और इसी बुनियाद पर ग़ालिब के अपने समय में शहरों से रिश्ते अलग-अलग वजहों से बने थे. ख़ुद ग़ालिब ने कलकत्ते का अपना सफ़र अपनी पेंशन के विवाद को अपने हक़ में निपटाने के लिए किया था.

भले उन्हें पेंशन न मिल सकी, पकी उम्र में किए गए इस सफ़र ने ग़ालिब के अनुभव एक नया आयाम दिया. उनके जमालियाती (एस्थेटिक) और दुनियावी, दोनों तरह के नज़रिये को समृद्ध बनाया.

उन्होंने गवर्नरों के लिए लिख-लिख कर क़सीदे भेजे थे. बुरे आर्थिक हालातों से गुज़रते, 18वीं सदी की आख़िरी दहाई में पैदा हुए एक संवेदनशील शख़्स और उतने ही संवेदनशील साहित्यकार के लिए जो अपनी विरासतपूर्ण गरिमा को बचाने के संघर्ष में भी लगा हो, पैसों की ज़रूरत उसी तरह जीवन की एक कठोर वास्तविकता थी जिस तरह वह आज के साधारण और संवेदनशील मनुष्य के जीवन की वास्तविकता है.

आमदनी कम और मसारिफ़ (ख़र्चे) ज़्यादा. एक साधारण मनुष्य की ज़िंदगी में कहीं जाने के लिए कुछ पाथेय, रास्ते का ख़र्चा-अर्थात ‘ज़ादे-राह’ आज भी एक बड़ा सवाल है. वह आज भी सौ बार सोचता है कि किस राह से गुज़रे जहां से वह टोल देने से बच जाएं.

आज यह ज़रूर अजीब लगे, ग़ालिब का दौर ऐसा ही था. दरबारों में पेशेवर शायर होते थे. किसी की तारीफ़ करने को भी एक हुनर माना जाता. इसके बदले में हाक़िम-ओ-हुक्काम से कुछ आर्थिक मदद के लिए उन्हें ‘उम्मीदगाह’ समझना बुरी बात नहीं मानी जाती थी. शासकों से ये तवक़्क़ो (आशा) रखना उस युग के साहित्यकारों के लिए अनैतिक नहीं था.

लिए जाती है कहीं एक तवक़्क़ो ग़ालिब

ज़ादे-राह कशिश-ए-काफ़े-करम है हमको

अपने समय के बड़े और कल्चरल शहरों से ग़ालिब के बड़े दिलचस्प रिश्ते थे. ग़ालिब के वक़्त पर इतिहासकार मु. मुजीब लिखते हैं…

‘उस मुश्तरिक (मिली-जुली) शहरी तहज़ीब को शहरी होने और शहरी रहने की ज़िद थी. ज़िंदगी सिर्फ़ शहर में मुमकिन थी और जितना बड़ा शहर उतनी ही मुकम्मल (संपूर्ण) ज़िंदगी. यह हो सकता था कि इश्क़ और दीवानगी में कोई शहर से बाहर निकल जाए. क़ुदरत से क़रीब होने के शौक में शायद ही कोई ऐसा करता. क्योंकि यह मानी हुई बात थी कि क़ुदरत की तक़मील (पूर्णता) शहर में होती है और शहर के बाहर क़ुदरत की कोई जानी पहचानी शक्ल नज़र नहीं आती.’

(देखें: पेज सं. 11, ग़ालिब- मु.मुजीब, साहित्य अकादमी)

हालांकि, इन शहरों से ग़ालिब के रस्म-ओ-राह और रिश्तों को केवल ग़ालिब के तंग आर्थिक हालात के पेशतर देखना ग़ालिब को मुकम्मल तरीक़े से न समझने की भारी भूल करने जैसा होगा.

आर्थिक दुशवारियां ग़ालिब के जीवन की एक निर्दय सच्चाई थी और इस आर्थिक तंगी और ख़ुद की आदतों पर झल्लाकर आत्म-धिक्कार का द्रवित करने वाला जो चित्र ख़ुद ग़ालिब ने अपने एक ख़त में खींचा है, उस जैसी दूसरी कोई मिसाल किसी लिटरेचर में सम्भवतः ही मिले.

मिर्ज़ा अलीबेग ख़ान ‘सालिक’ को लिखा ग़ालिब का ये ख़त है…

‘लो ग़ालिब को एक जूती और लगी. बहुत इतराता था कि मैं बड़ा शाइर और फ़ारसीदां हूं. ले, अब क़र्ज़दारों को जवाब दे… बोले क्या बेहया बेग़ैरत! कोठी से शराब, गंधी से गुलाब, बजाज से कपड़ा, मेवाफ़रोश से आम, सर्राफ़ से दाम क़र्ज़ लिए जाता था. ये भी सोचा होता कहां से दूंगा?’

(देखें: पेज 135/136, ग़ालिब के ख़त, द्वितीय खंड, हिंदुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद)

अपनी ज़िंदगी की निजी मुश्किलातों के साथ-साथ शागिर्दों और तमाम लोगों को लिखे गए उनके ख़तों में शहरों पर उनके नज़रिये का ज़िक्र होता है. ग़दर के बाद के लखनऊ पर ग़ालिब ने सय्याह को लिखा, ‘लखनऊ की वीरानी पर दिल जलता है’. वीरान बस्तियों पर जैसे वो अपने ख़तों में रोने को मचल उठते हों.

‘लखनऊ का क्या कहना! वो हिंदुस्तान का बग़दाद था. उस बाग़ की ये फ़स्ल-ए-ख़िज़ां.’

तो कहीं कलकत्ते के ज़िक्र ने उन्हें भाव-विभोर कर दिया.

कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तूने हमनशीं,

एक तीर मेरे सीने में मारा हाय-हाय!!!

आगरे की यादें यदि बचपन की यादें थीं तो दिल्ली के उनके अनुभव कड़वे भी थे मीठे भी. दिल्ली तो उनकी ख़्वारी (दुर्दशा) की गवाह हुई थी.

गर मुसीबत थी तो ग़ुरबत में उठा लेता ‘असद’

मेरी दिल्ली में ही होनी थी ये ख़्वारी हाय-हाय!

लेकिन एक शहर जिससे ग़ालिब को कोई शिकवा-शिकायत कभी न रही वो बनारस था. बनारस में न तो उनकी पेंशन अटकी थी, न किसी और ही मसले में उनका लेना-देना था.

सन् 1827 के आख़िरी महीनों में कलकत्ते का सफ़र करते हुए वह क़रीब दो महीने के लिए यहां ठहरे थे. क़रीब 30 साल बाद अपने आख़िरत (मृत्यु) की ओर बढ़ते, बुढ़ापे और नातवानी (शारीरिक दुर्बलता) से लाचार ग़ालिब को एक रोज़ 12 फरवरी 1861 को बनारस याद आया तो मिर्ज़ा सय्याह को उन्होंने पत्र लिखा…

‘बनारस का क्या कहना! ऐसा शहर कहां पैदा होता है. इंतहा-ए-जवानी में मेरा वहां जाना हुआ. अगर इस मौसम में जवान होता तो वहीं रह जाता. इधर को न आता!’

ग़ालिब ने बनारस की याद में फ़ारसी में 108 मिसरों की एक मसनवी लिखी. नाम रखा- चिराग़-ए-दैर; अर्थात मंदिर का दीप. बनारस के लिए यह उपमा अद्वितीय थी.

वह जैसे-जैसे बनारस को जानते गए, उसमें खोते गए. गंगा में किसी शाम, लहरों पर मचलते-डूबते सूरज का वह कोई ख़ूबसूरत मंज़र ही ग़ालिब के इस रूहानी एहसास के लिए ज़िम्मेदार रहा होगा जो बांदा के सद्र अमीन (सिविल जज) और उनके दोस्त मौलवी मुहम्मद अली ख़ान को संबोधित रुक्के (पत्र) में अभिव्यक्त हुआ.

ग़ालिब ने लिखा…

‘बनारस को दुनिया के दिल का नुक़्ता (बिंदु) कहना दुरुस्त होगा. इसकी हवा मुर्दों के बदन में रूह फूंक देती है. इसकी ख़ाक के ज़र्रे मुसाफ़िरों के तलवे से कांटे खींच निकालते हैं. अगर दरिया-ए-गंगा इसके क़दमों पर अपनी पेशानी (माथा) न मलता तो वह हमारी नज़रों में मोहतरम (पावन) न रहता. अगर सूरज इसके दर-ओ-दीवार के ऊपर से न गुज़रता तो वह इतना रोशन और ताबनाक़ (प्रखर) न होता!’

(देखें: पेज सं.9, चिराग़-ए-दैर, हिंदी अनु. सादिक़, राजकमल प्रकाशन 2018)

ग़ालिब ने बनारस पर जो लिखा, उससे बेहतर न उन्होंने अपनी पैदाइश के शहर आगरे के लिए लिखा और न उन्हें मलिक-उस-शौरा (दरबार के कवि) बनाने वाली दिल्ली के लिए. यदि ज़हांनाबाद (दिल्ली) नहीं तो न सही. पूरी दुनिया थी. बनारस था. ख़ुद जहांनाबाद उसकी परिक्रमा (तवाफ़श) को आता था. मिर्ज़ा ने लिखा, ‘जहांनाबाद अज़ बहर-ए-तवाफ़श’.

वह ‘फिरदौस-ए-मामूर’(स्वर्गिक रचना) था. जैसे मां कजरौटा लगाकर नज़र उतार रही हो ग़ालिब ने यह कहकर बनारस की नज़र उतारी…

तआलल्लाह बनारस चश्म-ए-बद-दूर

बहिश्त-ए-ख़ुर्रम-ओ-फिरदौस-ए-मामूर

कोई बनारस जैसा न था. उसका वजूद अनूठा था. वह मोक्ष का प्रवेश-द्वार जो ठहरा. ‘काशी प्राप्य विमुच्येत नान्यथा तीर्थकोटिभ:.

काशी में लोगों के इसी विश्वास को ग़ालिब अपनी मसनवी में दर्ज करते हैं. काशी में मृत्यु अर्थात जन्म-मृत्यु के चक्र के परे एक अस्तित्व का एहसास होता है. वह एहसास है…
‘दिगर पैवंद-ए-जिस्मान-ए-नगीरद’.

वह हर एक आत्मा को सुकून बख़्शने वाली धरती थी. बनारस में कुम्हलाया हुआ क्या घास का एक तिनका और क्या कोई कांटा; सभी कुछ गुलिस्तां थे. उसकी मिट्टी (ग़ुबार) भी माननीय थी!

‘ख़स-ओ-ख़ारश गुलिस्ता अस्त गोई, गुबारश जौहर-ए-जा अस्त गोई.’

प्राचीन ग्रीक कवि होमर कहता था, ‘He saw many cities of men and learnt their mind’. (लेविस ममफोर्ड द्वारा उद्धृत)

विशाल-हृदय मिर्ज़ा असदुल्लाह के लिए भी बनारस एक मक़तब (पाठशाला) था जहां से वह तसव्वुफ़ (फ़िलॉसफ़ी)के सबक़ ले रहे थे. लेकिन ग़ालिब जैसे ज़िंदादिल शख़्स के लिए इस धरती के मूर्त सौंदर्य को भी नकारना सम्भव नहीं था. इसलिए क्या मौसम, क्या मंदिर, धूल-ग़ुबार, गलियां और क्या युवतियों का मुक़द्दस (पवित्र) सौंदर्य जिनकी आभा (ताब-ए-रुख़) शाम होते ही गंगा के तट को चिरागां (प्रकाशमान) कर देती थी.

‘बि-सामान-ए-दोआलम गुलिस्तां रंग

जे-ताब-ए-रुख़ चिरागाँ-ए-लब-ए-गंग.’

बनारस में ‘बसंत अचानक आता है’. हालिया दिवंगत हिंदी के प्रखर बिंबधर्मी कवि केदारनाथ सिंह ने देखा था कि तब ‘लहरतारा या मड़ुआडीह की तरफ़ से’ धूल का एक बवंडर उठता है. उन्होंने बनारस को ‘आधा-आधा’ पाया. आधा मंत्र में, आधा फूल में, आधा शव में, आधा नींद में.

देता हुआ अर्घ्य

शताब्दियों से इसी तरह

गंगा के जल में

अपनी एक टांग पर खड़ा है यह शहर

अपनी दूसरी टांग से

बिलकुल बेख़बर!

बनारस का यह रहस्यमयी अर्धत्व स्वयं मनुष्य के अपने पूर्णत्व की तलाश की एक निराश-कथा है. बनारस की दैविक रहस्यमयता में मनुष्य के एक साथ ताथ्यिक और मिथकीय होने की पीड़ा भी सम्मिलित है.

ग़ालिब के ‘चिराग़-ए-दैर’ में हर रंग का बनारस है और मनुष्य की हर एक पीड़ा की ओर इशारा. ताथ्यिक भी, मिथकीय भी.

तमाम सारे पापों और अपकर्म के बाद भी दुनिया में क़यामत क्यों नहीं हो जाती; ग़ालिब ने एक दरवेश से पूछा. उसने मुस्कुराकर काशी की ओर इशारा करते हुए जवाब दिया कि वजह ये मुक़द्दस शहर है.

‘सू-ए-काशी ब-अन्दाज़-ए-इशारत

तबस्सुम क़र्द-ओ-गुफता ईं इमारत.’

पौराणिक कवि का भी यही विश्वास था कि सब कुछ डूब जाने पर भी बनारस में कुछ बचा रहेगा. ‘निमग्नायाम धारण्यांतु न निमज्जति तत्कथम.’

‘चिराग़-ए-दैर’ किसी बड़े-हृदय के एक शायर का एक शहर में डूब जाने जैसा था. बनारस ग़ालिब के ख़यालों का शहर था. एक निरपेक्ष मूल्य के रूप में यह किसी संस्कृति के स्थूल और बारीक- दोनों तरह के सौंदर्य से एक हस्सासी (संवेदनशील) क़ैफ़ियत के व्यक्ति का निस्वार्थ नाता था जहां ज़ादे-राह (पाथेय) का कोई सवाल न था.

ग़ालिब की सृजनशीलता के मार्फ़त ‘चिराग़-ए-दैर’ भारतीय संस्कृति के उच्चतर भाव-बोध का ही विकास था. वह भाव-बोध जो हिंदू रहस्यवाद में अद्वैत था और सूफ़ी इल्म में बहदत-उल-वुज़ूद. दोनों का लक्ष्य अभिन्न था- मनुष्य का चेतनागत एकत्व. मनुष्यता को विभाजित करने वाली समस्त संकीर्णताओं का समापन.

ग़ालिब मनुष्यता की इसी धारा की नुमाइंदगी करते थे. आख़िर उनके और मुंशी शिवनारायण के घर के बीच का फ़ासला ही क्या था! ‘जब चाहते थे, चले जाते थे. बाहम शतरंज, इख़्तलात और मुहब्बत’. ग़ालिब याद में खोए हुए हैं, ‘आधी-आधी रात गुज़र जाती थी.’

ग़ालिब के लिए लिए बनारस हिंदुस्तान का क़ाबा था- ‘हमाना क़ाबा-ए-हिन्दोस्तानस्त’. मस्ताने लोगों का तीर्थ-‘ज़ियारत ग़ाह-ए-मस्तां’ था. ग़ालिब के लिए बनारस असीम के गंतव्य-पथ पर पड़ने वाला एक पवित्र पड़ाव था जो आख़िरी सांस तक बिना थके मंज़िल की ओर बढ़ते रहने का संदेश देता है.

बनारस यही तो करता है. यात्रांत में मनुष्य की दैहिक नश्वरता पर अपनी आख़िरी मुहर लगा देता है. किसी घाट से धुआं उठता है. क्या उपलब्धियां और क्या असफलताएं! दोनों को अपने में समेटे हुए वह धुआं कहां जाता है!

(लेखक उत्तर प्रदेश कैडर में आईपीएस अधिकारी हैं.)

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