परदे की भूमिकाओं से कहीं बड़ी थी कादर ख़ान की शख़्सियत

वे एक साहित्यिक व्यक्ति थे- जो विश्व साहित्य की क्लासिक रचनाओं के साथ सबसे ज़्यादा ख़ुश रहते थे और उन पर पूरे उत्साह से चर्चा करते थे.

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कादर ख़ान. (फोटो साभार: ट्विटर)

वे एक साहित्यिक व्यक्ति थे- जो विश्व साहित्य की क्लासिक रचनाओं के साथ सबसे ज़्यादा ख़ुश रहते थे और उन पर पूरे उत्साह से चर्चा करते थे.

कादर ख़ान. (फोटो साभार: ट्विटर)
कादर ख़ान. (फोटो साभार: ट्विटर)

फिल्म अभिनेता कादर ख़ान की 31 दिसंबर को कनाडा में 81 वर्ष की उम्र में मृत्यु हो गई. पिछली पीढ़ी, जिसने कादर उन्हें 1990 के दशक में सिनेमा के परदे पर देखा था, उनके लिए उनकी पहचान उस अभिनेता के तौर पर है, जो गोविंदा वाली भौंडी कॉमेडी फिल्मों में मुख्य तौर पर शक्ति कपूर के साथ नजर आता था.

खान-कपूर की जोड़ी की मसखरी मुख्यतौर द्विअर्थी चुटकुलों की भड़कीली अदायगी तक सीमित थी. बनारसी बाबू, हीरो नंबर 1, हसीना मान जाएगी और अन्य हर तरह से भुला दी जाने लायक फिल्में हैं, लेकिन वे अपने समय काफी हिट रही थीं.

लेकिन इस दशक की उन भूमिकाओं के परे एक और कादर ख़ान है, जिसकी अलग पहचान है. हालांकि उन्होंने 300 से ज्यादा फिल्मों में काम किया और 200 से ज्यादा फिल्मों के लिए संवाद भी लिखे, लेकिन वे एक साहित्यिक व्यक्ति थे, जो उन क्लासिक रचनाओं के साथ सबसे ज्यादा खुश रहते थे, जिन पर वे पूरे उत्साह के साथ चर्चा करते थे.

2012 में एक इंटरव्यू में ख़ान ने, जो तब तक बूढ़े और इंडस्ट्री से बाहर हो चुके थे, ने एंटन चेखव का हवाला दिया और यह याद किया था कि कैसे अपने बचपन में उन्होंने इस महान रूसी लेखक को पढ़ा था.

वे कभी-कभार अपने फिल्मी डायलॉगों को एक साहित्यिक स्पर्श देते थे, लेकिन उन्हें प्रायः सड़कछाप टपोरी वाली पंक्तियां लिखने के लिए कहा जाता था. यह एक चीज थी, जो उन्हें काफी तकलीफ पहुंचाती थी.

1977 की हिट फिल्म अमर अकबर एंथनी में ख़ान ने पहली बार बॉम्बे की सड़कछाप भाषा का इस्तेमाल एंथनी गोन्साल्वेज के लिए किया, जिसका किरदार अमिताभ बच्चन द्वारा निभाया गया था.

उनका कहना था, ‘हिंदी सिनेमा में ऐसी भाषा को लेकर आने का मुझे हमेशा पछतावा रहा है.’ अगर उन्हें किसी चीज का फख्र था, तो वे थी वे पंक्तियां जो उन्होंने ऋषि कपूर द्वारा निभाए गए एक रोमांटिक कव्वाली गायक अकबर के किरदार के लिए लिखीं थीं. लेकिन लोगों को बच्चन का यह डायलॉग पसंद आया, ऐसा तो आदमी दोइच बार भागता है. ओलंपिक का रेस हो या पुलिस का केस हो.’

खान मुंबई के बदनाम रेड लाइट इलाके कमाठीपुरा में पले-बढ़े. वे याद करते थे कि उनके परिवार ने उन्हें खराब प्रभावों से दूर रखा, हालांकि उनसे बच कर रहना हमेशा मुमकिन नहीं था.

एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, ‘एक गली में वेश्याएं थीं, दूसरे में हिजड़ों के गैंग थे और तीसरी गली शराब और जुए का गढ़ थी. मैं वेश्याओं को गली के आर-पार कारोबार करता देख सकता था.’

इस नौजवान ने रूसी अफसानानिगारों और महान भारतीय लेखकों की किताबों में शरण ली- सआदत हसन मंटो उनके पसंदीदा लेखक थे.

कॉलेज में पढ़ाई करते हुए वे एक थियेटर ग्रुप में शामिल हो गए और मुंबई के उर्दू रंगमंच का नियमित हिस्सा बन गए. अपनी पढ़ाई समाप्त करने के बाद, उन्होंने इंजीनियरिंग के छात्रों को गणित पढ़ाना शुरू कर दिया.

उनकी खोज दिलीप कुमार ने की, जिन्होंने उनसे निर्माताओं से मिलवाने का वादा किया. उन्हें यश चोपड़ा की फिल्म दाग (1973) में एक छोटी-सी भूमिका निभाने का मौका मिला, हालांकि आईएमबीडी पर उनके अभिनय की शुरुआत के तौर रोटी (1974) का नाम दर्ज है.

1970 के दशक में सलीम-जावेद का बोलबाला था, जो निर्माताओं को कहानी, स्क्रिप्ट, स्क्रीनप्ले और डायलॉग के तौर पर पूरा पैकेज देते थे. ख़ान कुछ फिल्मों के लिए लिखने में कामयाब रहे, लेकिन अमर अकबर एंथनी उनके फिल्मी सफर का एक बदलावकारी बिंदु साबित हुआ.

देसाई एक अच्छे लेखक की खोज कर रहे थे और जब उनकी मुलाकात ख़ान से हुई, उन्होंने उनसे संवाद के कुछ पन्ने लिखवाए.

कहा जाता है कि उन्होंने यह कहते हुए उन्हें सचेत भी किया कि दो बड़े नाम वाले लेखकों ने ‘एक ही कहानी उन्हें और किसी और को बेच कर’ निराश किया था. खान के मुताबिक उसी समय के आसपास यादों की बारात और एक दूसरी फिल्म, जिसमें तीन भाई शुरू में बिछड़ गए थे, रिलीज हुई थी- देसाई शायद इसका ही जिक्र कर रहे थे.

अगले दिन संवादों को सुनने के बाद, देसाई इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपना टेलीविजन सेट लेखक को उपहार में दे दिया. उसके बाद से दोनों ने साथ मिलकर काम किया और खान ने परवरिश, धर्मवीर, सुहाग, नसीब, कुली सहित देसाई की कई और फिल्में लिखीं.

1970 और 80 के दशक में सबसे ज्यादा व्यवस्त रहे, जब वे खलनायक वाली भूमिकाएं भी कर रहे थे और उस दशक की ब्लॉकबस्टर मसाला फिल्में भी लिख रहे थे. यह सफलता 1990 के दशक तक भी चलती रही, लेकिन तब तक फिल्में और उसके दर्शक बदल चुके थे.

खान ने यह पाया कि महीन कामों की सराहना करने वाले अब नहीं रह गए हैं; हर कोई मूखर्तापूर्ण, आपत्तिजनक पंक्तियां चाहता था और जो भूमिकाएं उन्हें मिलीं, जिनमें उन्हें बिगड़ी हुई बेटियों के गुस्सैल बाप की का किरदार निभाना होता था, भी उतनी ही शर्मिंदगी महसूस करने लायक थीं. लेकिन आगे की बेंचों वालों की मांग यही थी.

डेविड धवन की कुली नंबर 1 और राजा बाबू सुपरहिट रहीं थीं और खान ने यह स्वीकार किया था कि उनमें काम करना उनके लिए पीड़ादायक था. उस दशक की उनकी आखिरी यादगार भूमिका ऋषि कपूर की आ अब लौट चलें में थी, जिसमें उन्होंने न्यूयॉर्क में बसे एक नेक दिल पठान का किरदार निभाया था.

गोविंदा ब्रांड फिल्मों के युग के समाप्त होने के बाद, खान भी धीरे-धीरे ओझल होते गए. उन्होंने ऐसी फिल्मों में काम किया, जिन्हें न जाने कब का भुला दिया गया है.

वे दुबई भी गए और फिर लौट कर भारत आए, जहां उन्होंने क़ुरान  पर एक एक किताब लाने की परियोजना तैयार की, ताकि साधारण लोगों को इसके बारे में समझाया जा सके और इस बात का प्रचार किया जा सके कि इस्लाम शांति का मजहब है.

हालांकि, उन्होंने 2012 के इंटरव्यू में प्रकट तौर पर राजनीति पर चर्चा नहीं की थी, लेकिन उन्होंने बातों ही बातों में इस ओर संकेत जरूर किया था कि कैसे सांप्रदायिकता जैसे मसलों पर भारत में हालात लगातार खराब हुए थे.

उन तक पहुंच पाना काफी मुश्किल था और वे काफी मनाने के बाद ही मिलने के लिए रजामंदी देते थे. खान सुर्खियों से दूर रहना पसंद करते थे और उनका कहना था कि वे फिल्म इंडस्ट्री के अपने साथियों से भी दूर रहते थे. कुछ साल पहले वे अपने बेटे के नजदीक रहने के लिए कनाडा जाकर बस गए थे.

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