सभ्यताएं भले ही चांद पर चली गईं हों, औरतों का कोई देश नहीं

पुस्तक समीक्षा: अपनी किताब ‘नो नेशन फॉर वीमेन’ में प्रियंका दुबे इस बात की पड़ताल करती हैं कि कैसे भारत में महामारी की तरह फैले बलात्कार का कारण हवस कम, पितृसत्ता ज़्यादा है. कैसे औरत को ‘उसकी जगह’ दिखाने के लिए बलात्कार का सहारा लिया जाता है.

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पत्रकार और लेखक प्रियंका दुबे और उनकी पहली किताब नो नेशन फॉर वीमन का कवर. (फोटो साभार: फेसबुक)

पुस्तक समीक्षा: अपनी किताब ‘नो नेशन फॉर वीमेन’ में प्रियंका दुबे इस बात की पड़ताल करती हैं कि कैसे भारत में महामारी की तरह फैले बलात्कार का कारण हवस कम, पितृसत्ता ज़्यादा है. कैसे औरत को ‘उसकी जगह’ दिखाने के लिए बलात्कार का सहारा लिया जाता है.

पत्रकार और लेखक प्रियंका दुबे और उनकी पहली किताब नो नेशन फॉर वीमन का कवर. (फोटो साभार: फेसबुक)
पत्रकार और लेखक प्रियंका दुबे और उनकी पहली किताब नो नेशन फॉर वीमेन का कवर. (फोटो साभार: फेसबुक)

अपनी पहली किताब ‘नो नेशन फॉर वीमेन’ में पत्रकार और लेखक प्रियंका दुबे देश के अलग-अलग कोनों से कुछ रिपोर्ट्स, साक्षात्कार और तथ्य पाठक के सामने रखती हैं. प्रियंका ने यह किताब तकरीबन छह सालों में लिखी है, जिनमें से कुछ रिपोर्ट्स उनकी खोजी पत्रकारिता से जुड़े काम का हिस्सा थीं.

प्रियंका भारत में महामारी की तरह फैले बलात्कार की घटनाओं को ख़ास तौर पर रिपोर्ट करती हैं. इस किताब में वो इस बात की पड़ताल करती हैं कि कैसे बलात्कार का कारण हवस कम और पितृसत्ता ज़्यादा है.

कैसे औरत को ‘उसकी जगह’ दिखाने के लिए बलात्कार का सहारा लिया जाता है. ग़रीब को उसकी जगह दिखाने के लिए उसकी औरत/बेटी का बलात्कार किया जाता है. दलितों को उनकी जगह दिखाने के लिए उनकी पर औरतों पर यौन हमला किया जाता है.

और जिस समाज में ‘प्राण जाए पर शान न जाए’ जैसा नरेटिव औरतों के लिए बना हो, जहां लोग ‘औरत की इज़्ज़त एक बार चली गई तो फिर लौटाई नहीं जा सकती’ जैसी सोच रखते हों, वहां किसी भी व्यक्ति का दमन करना हो तो उनकी औरतों का बलात्कार करना पहला हथियार बन जाता है.

प्रियंका अपनी किताब में कहती हैं कि हम औरतें दम तोड़ते सितारे की तरह हैं, जिनके पास रौशनी पहुंचने की कोई उम्मीद नहीं दिखती. क्या कुछ ग़लत कहती हैं प्रियंका? कुछ ज़्यादा ही अस्वाद से भरा है उनका स्वर.

इन तीन अलग-अलग घटनाओं को पढ़कर आप ख़ुद इस बात का समझ सकते हैं…

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चौदह साल की लड़की के ‘ना’ कहने का बदला उसे बलात्कार कर जिंदा जलाकर लिया गया. ‘यहीं जलाया था उसे, मिट्टी का तेल डालकर जला दिया मोड़ी को बा ने.’ हर रोज पीछा करते थे, कभी नहीं सोचा था कि जिंदा जला देंगे. ‘मोड़ी सारी जल गई मारी, मारी मोड़ी जल गई.’

न एफआईआर की कॉपी मिली है हमें, न ही मौत के समय दिया गया उसका बयान (डाइंग डिक्लेरेशन). अपने ही घर में जला दिया लड़की को, पुलिस एक बार छानबीन करने तक नहीं आई है. जाने कौन वकील है, हम मजदूरी कर अपने और दो बच्चों का पेट पालते हैं. लड़ेंगे. लोन लेंगे, ज्यादा काम करेंगे, लेकिन अपनी बेटी के कातिलों को सजा दिलाये बिना नहीं मरेंगे.

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‘मम्मी पानी पीला दो.’ जलते-जलते मेरी लड़की के आखिरी शब्द थे. रोज पीछा करता था, एक दिन तीन लड़कों के साथ मिलकर बलात्कार कर दिया. विरोध करने पर इसी स्टूल पर बिठा कर जला दिया. ‘ये देखो वो स्टूल.’

रोहिनी (बदला हुआ नाम) ने मरते वक्त चारों लड़कों के नाम लिए थे, लेकिन उन लोगों के वकील ने उसे अवैध साबित कर दिया. कहा कि लड़की की स्थिति मानसिक रूप से ठीक नहीं थी, उसका यकीन नहीं किया जा सकता. पूरे गांव ने हमारा बहिष्कार कर दिया है, कहते हैं हम पर ‘हत्या’ लग गई है और मेरी बेटी को मारने वाले खुलेआम घूम रहे हैं.

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कामायनी (बदला हुआ नाम) ने शाम पांच बजे अपने ही गांव में अकेले घर से निकलने की गलती कर दी. उसके साथ बलात्कार किया गया, लेकिन उसके पिता को यह नहीं पता था कि थाने जाकर वह उससे भी बड़ी गलती करने वाले हैं. बलात्कारियों ने अगले रोज़ दिनदिहाड़े उसे ज़िंदा जला दिया. ‘अब पूरा गांव मुझे समझौता करने को बोल रहा है. बड़े घरों के लड़के हैं, हम ग़रीब किसान. कैसे लड़ेंगे?’

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इस किताब को पढ़ते-पढ़ते अगर आपकी सांस रुकने लगे तो सांस रोक लेना, जी भरकर रो देना, थोड़ा चिल्ला लेना, चीखना, लेकिन पढ़ना ज़रूर. क्योंकि आप इसे पढ़ोगे तो जानोगे कि जिस आराम कुर्सी पर धंसकर आप यह किताब पढ़ रहे हैं, उसके समानांतर एक और दुनिया भी है जिसमें मासूम बच्चियों का बलात्कार कर, उनका गला घोंटकर पेड़ पर लटका दिया जाता है.

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हमारी बच्चियों का बलात्कार कर पेड़ पर लटका दिया गया, आज सीबीआई की जांच कहती है कि वो ख़ुद ही पेड़ पर चढ़कर लटक गईं. इतने गवाह हैं आपके सामने, पुलिस ने हमारे सामने दोषी को भगा दिया, पुलिस ने हमारे सामने कहा कि बलात्कार से अच्छा मर्डर करके जेल में जाना होता है.

आज पुलिस की रिपोर्ट कहती है कि हमारी बच्चियां ही दोषी हैं. हवस भी उन्हीं की, दोष भी उन्हीं का, गला भी ख़ुद उन्होंने अपना घोंट लिया और पेड़ पर चढ़कर ख़ुद ही लटक गईं.

पहली मेडिकल रिपोर्ट साफ़-साफ़ कहती थी कि उनके साथ बलात्कार हुआ है और गला दबाकर पेड़ पर लटकाया गया है. आज वो रिपोर्ट भी बदल गई, गवाह भी बदल गए. आज हत्यारे मासूम हो गए और हमारी बेटियां कसूरवार. हम नीची जात के गरीब आदमी, हमारा कौन सहारा?

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मासूम बच्चियों का बलात्कार हो जाता है तो हरियाणा में बलात्कारियों को ‘हाय! फंसा दिया म्हारे छोरे को’, ‘हाय! लड़कियां इतनी चालू हो गई हैं, मासूम लड़कों की ज़िंदगी हराम कर दी’, जैसे नरेटिव बनाकर पेश किए जाते हैं तो हमें आश्चर्य क्यों नहीं होता?

प्रियंका अपनी किताब में हरियाणा को औरतों के लिए ‘डार्केस्ट स्टेट’ कहती हैं, जहां पूरे का पूरा सिस्टम और समाज औरत के आवाज़ उठाते ही उसके ख़िलाफ़ खड़ा हो जाता है.

प्रियंका घटनाओं को रिपोर्ट करती हैं और सवाल हमारे दिमाग़ में चलते हैं, ‘कब इतने गिर गए हम’, ‘कैसे हमारे समाज का इतना पतन हो गया?’

प्रियंका की लिखाई हमें झझकोरती है कि कैसे बलात्कार का इल्ज़ाम ख़ुद लड़की के माथे मढ़ देता है हमारा समाज? कैसे शर्म के मारे बलात्कारी नहीं, पीड़िता के मां-बाप मर जाते हैं. ऐसी बातें होती हैं, ‘मेरी लड़की के साथ बलात्कार हो गया, हमारा मुंह काला हो गया,’ ‘हम किसी को मुंह दिखाने के लायक नहीं रहे.’

प्रियंका तो नम्ब (स्तब्ध) होती ही हैं, पाठक भी सुन्न हो जाता है.

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पापा पार्टी के लोकल कार्यकर्ता थे. हमारे लोकल एमएलए ने पापा से कहा कि मुझे उनके घर छोड़ दें, कुछ काम सीख जाऊंगी. तो पापा मुझे छोड़ आए. वो रात को मेरे साथ जबरदस्ती करने लगे, विरोध करने पर मुझे जानवरों की तरह नोचा और ब्लेड से मेरे सारे कपड़े काट दिए.

मेरे पैरों से खून रिस रहा था, वो मुझे गाली देते रहे और मेरा बलात्कार किया. उन्होंने कहा कि अगर मैंने किसी को बताया तो मुझे गोली मार देंगे. एक दिन मौका देखकर मैं भाग निकली तो मुझे पकड़कर चोरी का इल्ज़ाम लगाकर जेल में डलवा दिया. दीदी आज सारा गांव, मेरे रिश्तेदार, मेरे घरवाले, मेरा भाई तक मेरे ख़िलाफ़ हो गए हैं, कोई मुझसे बात नहीं करता.

कहते हैं कि मैं कुछ ज्यादा ही ऊंची आवाज में बोल रही हूं, मैं कुछ ज्यादा ही लड़ रही हूं. दीदी आप ही बताओ और कोई तरीका है क्या लड़ने का? क्या ये लड़ाई नीची और नम्र आवाज में लड़ी जा सकती है? मैं नर्क में रह कर आई हूं.

मैंने जाने कितनी बार कोर्ट में अपना बयान दोहराया है. मेरा शरीर आज भी दुखता है. जब मैं जेल में थी, मेरे शरीर से 20 दिन तक खून रिसता रहा, उन्होंने मुझे 15 दिन तक खाना नहीं दिया. कोई अस्पताल नहीं, कोई डॉक्टर नहीं, उन लोगों ने मुझे चीरफाड़ कर फेंक दिया, मैं कैसे भूल सकती हूं? इस लड़ाई को लड़ने के लिए अब मैं अकेली ही बची हूं, तो भी मैं आख़िर तक लड़ूंगी.

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एक लड़की होने के नाते मुझे यह तो पता था कि ये दुनिया आसान नहीं है, लेकिन एक सो कॉल्ड उच्च जाति, मिडिल क्लास, पढ़े-लिखे बैकग्राउंड जैसे विशेषाधिकार होने के कारण ये नहीं पता चल पाया कि ये दुनिया इतनी क्रूर हो सकती है.

प्रियंका ने अपनी किताब में सिर्फ़ भारत के अलग-अलग कोनो में हुईं बलात्कार की घटनाओं के फैक्ट्स ही नहीं लिखे हैं, बल्कि उसने इससे जुड़ी रुढ़ियों, वर्जनाओं, समाज की सोच और सिस्टम की गड़बड़ियों को भी उधेड़ा है.

किताब को पढ़ते हुए महसूस होता है कि असली लड़ाई तो घटना हो जाने के बाद शुरू होती है. बलात्कार तो एक आदमी करता है लेकिन गुनहगार पूरा समाज होता है. पीड़ित के पास न तो न्याय पहुंचता है, न ही न्याय की कोई संभावना.

तो जब प्रियंका कहती हैं कि औरतें ब्लैक होल्स के जैसी हैं, जहां किसी रौशनी के भेद पाने की संभावना तक नहीं है, तो क्या वो कुछ ग़लत कहती है?

उनके पास कोई जगह है क्या जाने को, जहां उनके पास रौशनी हो, या रौशनी की संभावना? क्या कोई गांव, शहर, देश बना है लड़कियों के लिए? नो कंट्री फॉर वीमेन यानी औरतों का कोई देश नहीं, जब प्रियंका लिखती हैं तब सच में लगता है कि नहीं है, सभ्यता चाहे चांद पर पहुंच गई हो, औरतों के लिए अब तक कोई देश भी नहीं बना है.

एक बेहद ज़रूरी किताब, जो हमें यह भी बताती है कि अपराधी को सज़ा से साथ-साथ पीड़िता को त्वरित मुआवज़े और पुनर्वास की भी ज़रूरत होती है, जिसे लेकर अभी हमारा सिस्टम जागरूक तक नहीं.

(लेखिका शतरंज कोच हैं और अपनी यात्राओं के अनुभवों पर आधारित किताब ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ लिख चुकी हैं.)

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