रफाल सौदे की बातचीत में शामिल होना राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता

भारतीय रक्षा पूंजी खरीद की बातचीत में किसी ‘शेरपा’(दूत) की मदद की व्यवस्था छोड़िए, कोई कल्पना भी नहीं की गई है. न ही अंतरसरकारी समझौतों के मामलों में उनकी कोई भूमिका ही सुनिश्चित की गई है.

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राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल (फाइल फोटो: रॉयटर्स)

भारतीय रक्षा पूंजी खरीद की बातचीत में किसी ‘शेरपा’(दूत) की मदद की व्यवस्था छोड़िए, कोई कल्पना भी नहीं की गई है. न ही अंतरसरकारी समझौतों के मामलों में उनकी कोई भूमिका ही सुनिश्चित की गई है.

Ajit Doval Reuters
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल (फोटो: रॉयटर्स)

रफाल सौदे का समझ में न आनेवाला और सबसे ज्यादा पहेलीनुमा पहलू करार के ब्यौरों के नियमों और शर्तों को अंतिम रूप देने में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की अतिसक्रिय भूमिका है. यह पहेली इसलिए भी नहीं सुलझती है, क्योंकि डोभाल के पास रफाल समझौते पर वार्ता करने का कोई अधिकार नहीं था.

वे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की ऊंची कुर्सी के बावजूद डीपीपी (रक्षा खरीद प्रक्रिया) 2013 के तहत आधिकारिक तौर पर नियुक्त और वैध तरीके से गठित करार वार्ता समिति या कॉन्ट्रैक्ट नेगोसिएशन कमेटी (सीएनसी) का हिस्सा नहीं थे. न ही वे सीएनसी में रक्षा मंत्री द्वारा (या आईएनटी (इंडियन नेगोसिएशन टीम), जैसा मीडिया में आए आधिकारिक रिकॉर्डों में इसे पुकारा गया है) मनोनीत सदस्य थे.

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) के प्रतिष्ठित ओहदे और पदवी को देखते हुए ऐसा करना रक्षामंत्री के अधिकार क्षेत्र में भी नहीं था. डीपीपी 2013 के तहत रक्षा सौदों की वार्ता और उसे अंतिम रूप देने में एनएसए को किसी तरह की कोई भूमिका नहीं दी गई है.

डीपीपी, 2013 का पैरा 47 सीएनसी के बारे कहता है:

‘व्यावसायिक वार्ता की प्रक्रिया, स्टाफ इवैल्युएशन रिपोर्ट के डायरेक्टर जनरल (एक्विजेशन) द्वारा और टीओसी रिपोर्ट के रक्षा सचिव द्वारा (जो भी लागू होता हो) स्वीकृत होने के बाद शुरू होगी. सीएनसी की सामान्य बनावट एपेंडिक्स बी के अनुरूप होगी. सीएनसी की बनावट में कोई बदलाव डायरेक्टर जनरल (एक्विजेशन) के अनुमोदन के बाद ही हो सकता है.

जहां जरूरत समझी जाए, सेना का कोई अधिकारी या रक्षा मंत्रालय की एक्विजेशन शाखा से बाहर के किसी अधिकारी को रक्षामंत्री के पूर्व अनुमोदन से सीएनसी के चेयरमैन के तौर पर नियुक्त किया जा सकता है.

संबंधित संगठनों/एजेंसियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सीएनसी में उनके प्रतिनिधि की पृष्ठभूमि और ज्ञान इस लायक हो कि उसे फैसले लेने के लिए अपने संस्थान/एजेंसी से सलाह लेने की जरूरत नहीं पड़े.

व्यावसायिक निविदा को शुरू करने से लेकर करार को संपन्न करने तक की सभी प्रक्रियाओं को सीएनसी द्वारा अंजाम दिया जाएगा. तकनीकी रूप से स्वीकृत विक्रेताओं के सीलबंद व्यावसायिक प्रस्तावों को सीएनसी द्वारा एक पूर्व निर्धारित तारीख और समय पर खोला जाएगा और इसकी सूचना विक्रेताओं को दी जाएगी ताकि विक्रेता या उनके प्रतिनिधि वहां मौजूद रह सकें.

सभी प्रतिस्पर्धी फर्मों की बोलियों को उपस्थिति लोगों के सामने पढ़कर सुनाया जाएगा और उन पर सीएनसी के सभी सदस्य दस्तखत करेंगे.’

डीपीपी 2013 के 47वें पैरा में आए अपेंडिक्स बी के अनुसार सीएनसी के संघटन को यहां पुनर्प्रस्तुत किया गया है:

ए. सेना व तटरक्षक बल के लिए- 200 करोड़ के ऊपर

  1. एक्विजेशन मैनेजर- चेयरमैन

  2. टेक्निकल मैनेजर

  3. फाइनेंस मैनेजर

  4. सलाहकार (एडवाइजर)

  5. डीजीक्यूए/डीजीएक्यूए/डीजीएनएआई प्रतिनिधि

  6. खरीद एजेंसी के प्रतिनिधि

  7. उपयोगकर्ता प्रतिनिधि

  8. एसएचक्यू में करार प्रबंधन शाखा (कॉन्ट्रैक्ट मैनेजमेंट ब्रांच) के प्रतिनिधि

  9. मरम्मती एजेंसी के प्रतिनिधि

  10. संबंधित अंडर सेक्रेटरी

  11. सदस्य सचिव, जिनका मनोनयन चेयरमैन द्वारा किया जाएगा.

नोट्स:

  1. टीओटी (ट्रांस्फर ऑफ टेक्नोलॉजी) के मामले में डीडीपी, डीआरडीओ और उत्पादन एजेंसी के प्रतिनिधि को सदस्य के तौर पर शामिल किया जाएगा.

  2. हर सीएनसी में सलाहकार (लागत) की भागीदारी जरूरी नहीं है और यह वास्तविक जरूरत के अनुसार होना चाहिए, जिसका फैसला चेयरमैन द्वारा किया जाएगा.

  3. अगर उपरोक्त वर्ग ए में सीएनसी की अध्यक्षता कोई सर्विस ऑफिसर कर रहा हो, तो ऊपर ए में आए क्रमांक, 1,2,3 पर दर्ज अधिकारियों की जगह प्रतिनिधियों का मनोनयन किया जा सकता है.

  4. अगर ऑफसेट शामिल है, तो डिफेंस ऑफसेट मैनेजमेंट विंग (डीओएमडब्लू) के प्रतिनिधि को सदस्य के तौर पर शामिल किया जाएगा.

  5. निर्दिष्ट सदस्य की गैरहाजिरी में प्राधिकृत प्रतिनिधि को निर्णय लेने के लिए योग्य तरीके से सशक्त माना जाएगा.

  6. ऊपर उल्लेख किए गए संघटन में किसी तरह का बदलाव करने के लिए डायरेक्टर जनरल (एक्विजेशन) का अनुमोदन लेना होगा.

राफेल विमान (फोटो: रॉयटर्स)
राफेल विमान (फोटो: रॉयटर्स)

पूरी तरह से यकीन करने के लिए डीपीपी 2013 को ‘नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजर’- या ‘एनएसए’ के साथ सर्च कीजिए. आपको कोई परिणाम नहीं मिलेगा, जो इस बात को पुख्ता करता है कि डीपीपी 2013  (यहां तक कि डीपीपी 2016) रक्षा पूंजी खरीद में एनएसए की कोई भूमिका नहीं देखता है.

यह एनएसए की भागीदारी को और ज्यादा समस्याप्रद बना देता है.

शेरपा’ की भूमिका

देश के नागरिकों को किसी जानकारी के बगैर डोभाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से ‘शेरपा’(दूत) की भूमिका निभाई. ‘शेरपा’ पद का इस्तेमाल सबसे पहले अनौपचारिक रूप से यूरोपीय संघ के देशों द्वारा किया गया था, जहां निजी प्रतिनिधि अंतरसरकारी सम्मेलन (आईजीसी) बैठकों के लिए जमीन तैयार करते हैं.

हालांकि, यूरोपीय संघ की प्रक्रिया के शुरुआती दिनों से ही मुख्य वार्ताकार (चीफ निगोशिएटर) की शिनाख्त विभिन्न नामों से की जा सकती है, लेकिन इस नाम का जिक्र आधिकारिक स्तर पर 2005 से ही यूरोपीय संबंधों में कॉम्पटीशन रेगुलेशन पर हाई-प्रोफाइल समूह के पद के तौर पर चल रहा है जिसे आधिकारिक तौर पर एक ‘शेरपा-उपसमूह’ के नाम से जाना जाता है.

भारत में रक्षा पूंजी खरीद वार्ताओं में किसी शेरपा की मदद की व्यवस्था, यहां तक कि कोई कल्पना नहीं की गई है. न ही यह आईजीए आधारित करार के मामलों में उसके लिए कोई भूमिका देखती है, न देती है.

वार्ताएं-तकनीकी और व्यावसायिक दोनों- अपने क्षेत्र के विशेषज्ञों द्वारा की जाती हैं. और भारत-फ्रांस अंतरसरकारी करार के मामले में, भारतीय प्रधानमंत्री ने खुद अप्रैल, 2015 में पेरिस में यह घोषणा की थी कि भारतीय प्रधानमंत्री और फ्रांस के राष्ट्रपति के बीच एक और शिखर सम्मेलन की न कोई जरूरत है और न कोई संभावना है.

अगर यह मान भी लिया जाए कि ऐसे शिखर सम्मेलन की बहुत थोड़ी ही सही संभावना थी, तो क्या डोभाल को आधिकारिक तौर पर शेरपा के तौर पर नियुक्त किया गया था? इस बाबत कोई सरकारी नोटिफिकेशन जारी नहीं किया गया था न ही किसी मीडिया रिपोर्ट से ऐसा पता चलता है.

और अगर सिर्फ अकादमिक स्तर पर देखें, तो अगर वो आधिकारिक शेरपा होते, तो भी करार के नियम और शर्तों की बातचीत और उसे अंतिम रूप देने के लिए उनकी ऐसी नियुक्ति डीपीपी 2013 के तहत (साथ ही 2013 के डीपीपी से पहले और बाद के डीपीपी के तहत भी) सीमातीत और प्रक्रियातीत मानी जाती, क्योंकि डीपीपी 2013 के अनुसार ऐसी वार्ताएं करना सिर्फ और सिर्फ सीएनसी के अधिकार क्षेत्र के भीतर आता है.

प्रधानमंत्री मोदी के साथ अजित डोभाल (फाइल फोटो: पीटीआई)
प्रधानमंत्री मोदी के साथ अजित डोभाल (फाइल फोटो: पीटीआई)

यहां यह तथ्य प्रासंगिक है कि सीएनसी यानी कॉन्ट्रैक्ट नेगोसिएशन कमेटी की जगह सरकारी तौर पर आईएनटी (इंडियन नेगोसिएशन टीम) का इस्तेमाल किया गया है. ऐसा शायद एनएसए को इसमें शामिल करने के लिए किया गया हो.

रक्षा मंत्रालय के बाहर के किसी प्राधिकारी को किसी चल रही वार्ता प्रक्रिया में एक सक्रिय भूमिका निभाने के लिए इस तरह से नियुक्त किया गया हो, इसकी कोई मिसाल हमारे पास नहीं है.

सीएनसी के प्राधिकृत सदस्यों के अलावा किसी अधिकारी को, यहां तक कि रक्षा मंत्रालय के अंदर के किसी अधिकारी की भी सीएनसी द्वारा की जा रही वार्ताओं में, सीधे विक्रेता या ओईएम (ऑरिजिनल इक्विपमेंट मैनुफैक्चरर्स) के साथ वार्ता को तो छोड़ ही दें, कोई अन्य भूमिका नहीं होती है. यह तथ्य परेशान करने वाला है.

इससे भी ज्यादा परेशान करनेवाला तथ्य यह है कि गैर-आधिकारिक शेरपा के तौर पर उनके हस्तक्षेप ने स्थापित प्रक्रियाओं को नष्ट कर दिया, जिसने राष्ट्रीय हित को नुकसान पहुंचाया.

सार्वजनिक तौर पर मौजूद सूचनाओं के हिसाब से देखें, तो फ्रांस की सरकार से संप्रभु गारंटी की मांग को कानूनी तौर पर अप्रवर्तनीय यानी न लागू किए जा सकनेवाले ‘लेटर ऑफ कंफर्ट’ की खानापूर्ति से बदल दिया गया.

दासो की वित्तीय स्थिति

साथ ही, यह बात सबको मालूम है कि अपने बहुत मजबूत नहीं कहे जा सकनेवाली वित्तीय सेहत को देखते हुए दासो एविएशन किसी भी कीमत पर भारतीय सौदे को पाना चाहता था.

दूसरी तरफ भारत के पास लड़ाकू विमान के लिए अंतरराष्ट्रीय शस्त्र बाजार में काफी विकल्प मौजूद थे. यह बात उस समय उभर कर आए आए कई विक्रेताओं के परिदृश्य से साफ होती है.

यह कहना दूर की कौड़ी लाने सरीखा नहीं होगा कि यह परिदृश्य (monopsony) मोनोप्स्नी यानी एक खरीददार बाजार (हालांकि विशुद्ध पारिभाषिक अर्थ में नहीं) वाला था, जहां एक बड़े ऑर्डर में के लिए संभावित खरीददार (भारत) लाभ की स्थिति में था जहां वह अपनी चला सकता था और विक्रेता को अपनी शर्तें मानने पर मजबूर कर सकता था.

यह अटकलबाजी का विषय है कि जुलाई, 2014 में यूरोफाइटर द्वारा दाम में रियायत देने के प्रस्ताव का इस्तेमाल अपने फायदे में क्यों नहीं किया जबकि यह प्रस्ताव भारत की तोल-मोल करने की क्षमता को बढ़ानेवाला था. लेकिन, अपने हित में अच्छा करार करने के लिए भारत खरीददार होने की अपनी स्थिति का फायदा उठा पाने में भारत नाकाम रहा, इस तथ्य की अनदेखी करना आसान नहीं है.

यह अनिवार्य रूप से एक और जुड़े हुए मसले को सामने लाता है: किसी खरीददार के लिए आईजीए (अंतरसरकारी करार) पर दस्तखत करने के लिए सबसे अच्छा वक्त कौन सा है? सौदेबाजी के समाप्त होने के बाद या इसके शुरू होने से पहले?

बातचीत के शुरू होने से भी पहले,अंतरसरकारी करार को करने का फैसला खरीददार को अलाभकारी स्थिति में लानेवाला होगा, जबकि अंतरसरकारी करार की घोषणा के बोझ के बिना की जाने वाली बातचीत खरीददार को सौदेबाजी और करार के संदर्भ में ज्यादा से ज्यादा फायदा हासिल करने की खुली छूट देगी.

बेशक, एक पूर्व निर्धारित परिणाम से मुक्त बातचीत, वार्ताकारों को ज्यादा आजादी देती है और सार्वजनिक निधियों की रक्षा करने की ज्यादा गुंजाइश पैदा करती है.

भारत की मुश्किलों को बढ़ानेवाला एक और कारक यूएनसीआईटीआरएएल के तहत जिनेवा में मध्यस्थता वाला प्रावधान है, जो आईजीए (अंतरसरकारी करार) की पवित्रता को नष्ट करनेवाला है और उसके औचित्य पर सवाल खड़ा करता है.

आखिर क्यों अंतरसरकारी करार के करार संबंधी मामलों का निपटारा करार पर दस्तखत करनेवाले दो देशों की जगह किसी बाहरी निकाय के द्वारा किया जाएगा? यह किसी आईजीए की बुनियाद और उसके नैतिक औचित्य पर हमला है.

मगर ठहरिए, अंतरसरकारी करार के बोझ से दबे इस रफाल करार की कमजोरियां यहीं समाप्त नहीं होती हैं, जिसके बारे में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया है कि इसमें मोटे तौर पर प्रक्रियाओं का पालन किया गया.

भारत के सार्वजनिक प्रशासन पर पड़ने वाले इसके काले साये को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. मौजूदा डीपीपी में आरोपों और हस्तक्षेपों से मुक्त तरीके से पूर्व निर्धारित प्रक्रियाओं के निष्ठापूर्वक क्रियान्वयन की जिस पवित्रता और शुद्धता की कल्पना की गई है, उसे भंग किया गया है.

भविष्य की सभी रक्षा खरीदों, राजस्व और पूंजी दोनों, पर इसका गंभीर प्रभाव पड़ने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है.

नागरिकों में मन से न जानेवाले संदेह

एक और परिणाम दूसरी प्रक्रियाओं और प्रणालियों तक इसके विस्तार के तौर पर सामने आएगा. जरूरी नहीं है कि ये रक्षा क्षेत्र से ही संबंधित हों, बल्कि सरकार का पूरा ढांचा इससे प्रभावित होगा.

हमें यह पता है कि अच्छी परिपाटियों को तोड़ना आसान होता है जबकि खराब परिपाटियों को तोड़ना मुश्किल होता है. डीपीपी का औचित्य किसी बाहरी दबाव को दूर रखना और सार्वजनिक खर्चे को ऐसे प्रभावों से बचाकर रखना है. इसका ऐसा हर उल्लंघन न सिर्फ डीपीपी की पवित्रता का अतिक्रमण करता है, बल्कि भविष्य में ऐसे उल्लंघनों का बीज भी बोता है.

ऐसे में क्या अब भी सरकार के लिए यह अच्छा नहीं होता कि वह कुहासे को साफ करने के लिए पर्देदारी छोड़ दे क्योंकि जैसा कहा गया है, जब संदेह हो, तब पर्दा हटा देना चाहिए. यह

न सिर्फ नागरिकों के मन से न जानेवाले संदेहों को दूर करने में मदद करेगा, बल्कि इससे सरकार की साख भी बढ़ेगी और भविष्य में खरीद के मामलों के लिए यह पथप्रदर्शक होगा. हमें सशस्त्र बलों के हितों को भी नुकसान पहुंचने की इजाजत नहीं देनी चाहिए.

अगर ऐसा नहीं होता है तो भविष्य में इस मामले का इस्तेमाल रोजाना के कामकाज के दौरान होनेवाले तथाकथित ‘छोटे-मोटे’ भटकावों -जो उतने छोटे-मोटे नहीं होते हैं, जितना उन्हें बताया जाता है- को न्यायोचित ठहराने के लिए किया जाएगा.

इसके दुरुपयोग की संभावना हमेशा बनी रहेगी और इसकी मिसाल देकर गड़बड़ियां करना आसान होगा. या फिर बताई गई प्रक्रियाओं के तहत जिन न्यायोचित कदमों की कल्पना की गई है, उन्हें धता बताने के लिए या उन्हें तोड़ने-मरोड़ने के लिए मनमर्जी के कामों या विचारों या प्रक्रियाओं का इस्तेमाल संदर्भ से काटकर किया जाएगा. यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा और ऐसा हमारे सोचने से पहले ही हो सकता है.

(सुधांशु मोहंती ने 31 मई 2016 को सेवानिवृत्त होने से पहले कंट्रोलर जनरल, डिफेंस अकाउंट्स और फाइनेंशियल एडवाइजर, डिफेंस सर्विसेज के तौर पर काम किया है.)

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