देश में आदिवासियों की बस्तियां उजाड़ने की मानसिकता पर कब लगाम लगेगी?

16 राज्यों के करीब दस लाख आदिवासियों को उनका घर-गांव छोड़ने का शीर्ष अदालत का आदेश दिखाता है कि हमारी व्यवस्था एक बार फिर आदिवासियों के हितों की रक्षा करने और उन्हें यह भरोसा दिलाने में विफल रही है कि आज़ाद देश में उनके साथ अंग्रेजों के समय जैसा अन्याय नहीं होगा.

/
(प्रतीकात्मक तस्वीर: रॉयटर्स)

16 राज्यों के करीब दस लाख आदिवासियों को उनका घर-गांव छोड़ने का शीर्ष अदालत का आदेश दिखाता है कि हमारी व्यवस्था एक बार फिर आदिवासियों के हितों की रक्षा करने और उन्हें यह भरोसा दिलाने में विफल रही है कि आज़ाद देश में उनके साथ अंग्रेजों के समय जैसा अन्याय नहीं होगा.

(प्रतीकात्मक तस्वीर: रॉयटर्स)
(प्रतीकात्मक तस्वीर: रॉयटर्स)

एक तरफ विकास के नाम पर मैदानी इलाकों के जंगल खेत में बदलते गए, सड़क, बांध, और रेल लाइन बिछती गई. इसके लिए आदिवासी इलाकों से बेतहाशा संसाधन भी छीने जाते रहे. पिछली दो सदी से चली आ रही विकास की इस सोच ने पानी, हवा सबको मानव जीवन के लिए नुकसानदायक हद तक दूषित कर दिया.

दूसरी तरफ, इसकी भरपाई के लिए पर्यावरण के नाम में आदिवासियों की बस्तियां, घर और खेत उजड़ते गए और आरक्षित वन का क्षेत्र बढ़ता गया और इसे ही पर्यावरण संरक्षण मान लिया गया.

धीरे-धीरे वन विभाग दुनिया का सबसे बड़ा जमींदार बन गया. आज उसके पास देश का लगभग 25% भू-भाग है, आदिवासी बाहुल्य राज्यों में तो यह इससे भी बहुत ज्यादा है.

आजादी के 72 साल बाद भी हमारी व्यवस्था पर विकास और पर्यावरण संरक्षण की अंग्रेजोंं से विरासत में मिली यह सोच ही हावी है. इस सोच ने एक बार फिर आदिवासी को अपने ही घर में अतिक्रामक करार दे दिया.

पर्यावरण के नाम पर आदिवासियों को उनके घर और गांव से उजाड़ने का फ़रमान देश की सबसे बड़ी अदालत ने जारी कर दिया है.

13 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने वन भूमि पर बसे उन आदिवासियों एवं अन्य परंपरागत वन निवासियों की बेदखली के आदेश दिए हैं, जिनके दावे सरकारी भाषा में खारिज हो चुके है.

कोर्ट के आदेश में इनकी संख्या 12 लाख के लगभग बताई गई है लेकिन द वायर  में छपी एक खबर के अनुसार, जनजातीय मंत्रालय के आंकड़े में यह संख्या 20 लाख के लगभग है. इसमें अगर परिवार के सदस्यों की संख्या का गुणा कर दिया जाए, तो यह संख्या 1.5 करोड़ के लगभग पहुंच जाएगी.

पहले से ही भुखमरी के शिकार इस समुदाय के लिए यह आदेश न सिर्फ एक बड़ी तबाही लेकर आएगा, बल्कि एक बार फिर आदिवासी ऐतिहासिक अन्याय का शिकार होंगे. न जाने कितने घर और बस्तियां उजड़ जाएंगे और इसका विरोध करने पर न जाने कितनों पर आपराधिक मामले दर्ज हो जाएंगे, जिसे लेकर वो वर्षो ट्रायल कोर्ट के चक्कर लगाएंगे.

जंगल पर अधिकार के मामले में आदिवासी एवं अन्य परंपरागत वन निवासियों के साथ जो ऐतिहासिक अन्याय हुआ है उसे दूर करने के नाम पर उस समय की यूपीए सरकार ने वन अधिकार कानून 2006 बनाया था. लेकिन, इस वन अधिकार कानून के तहत दावों को तय करने की जिस प्रक्रिया का हवाला दिया जा रहा है, वो एक दिखावा मात्र था.

सबसे पहली बात तो इस प्रक्रिया को पूरा करने के लिए ग्राम सभाओं को सक्षम ही नहीं बनाया गया. इस बारे में हमने खुद अपने संगठन- श्रमिक आदिवासी संगठन- के माध्यम से बैतूल, हरदा एवं खंडवा जिले के कलेक्टर को अनेक आवेदन दिए. लेकिन कुछ नहीं हुआ.

1990 के दशक में में वन भूमि पर अतिक्रमणकारियों जो लिस्ट बनी थी सिर्फ उन्हें पट्टे दे दिए गए और पट्टे के अनुसार जमीन पर कब्जे हैं या नहीं यह नहीं देखा गया. अगर आप इन दावों को दाखिल करने वाला फॉर्म देखेंगे तो आपको समझ आएगा कि इसको भरना एक शहरी स्नातक के लिए भी कितना कठिन है.

इन सारे दावों को खारिज जाने की प्रक्रिया की जांच सुप्रीम कोर्ट करवाए तो असलियत सामने आ जाएगी कि लोगों को उनके दावे खारिज होने की सूचना कभी दी ही नहीं गई और अगर दे भी देते तो खंड स्तर से लेकर राज्य स्तर तक कानून की भाषा में अपनी बात रखने की क्षमता आदिवासी में आज भी नहीं है.

वन भूमि पर अधिकार को लेकर विगत 6 माह में  महाराष्ट्र के जिस नासिक जिले से हजारों आदिवासियों दो बार मुंबई तक पैदल मोर्चा निकालने का काम कर चुके है, वहां 1870 में कलेक्टर रहे एचएनबी एरस्किन ने आरक्षित वन बनते समय आदिवासियों के दावे तय करने की प्रक्रिया के बारे में लिखा था,

कोली और भील आदिवासी से अधिकारी के सामने पेश होकर जंगल में उसके अधिकार के बारे में लिखित में आवेदन करने को कहना एक कोरी कल्पना है. मैं दावे से कह सकता हूं कि कोई भील और कोली ऐसा नहीं करेगा. तो क्या ऐसे हम यह कह सकेंगे कि उनके सारे अधिकार खत्म हो गए है?

यह सवाल आज भी उतना ही लाज़मी है. अगर इस कानून का सही पालन होता और जंगल पर अधिकार को लेकर आदिवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय के सारे दस्तावेज देखे जाते, जो खुद सरकार के कब्जे में है, तो यह देखने को मिलता कि जमीन के जिस टुकड़े को आज आरक्षित वन करार देकर इतना पवित्र मानते है, असल में अंग्रेजों के आने के पहले वो आदिवासियों के अपने घर और जमीन का हिस्सा था.

उदाहरण के लिए, देश का पहला आरक्षित जंगल बोरी आदिवासी की लाश पर बना था: 1859 की बात है. अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने के कारण वर्तमान मध्य प्रदेश जो तब सेंट्रल प्रोविंस में स्थित होशंगाबाद जिले में पंचमढ़ी की पहाड़ियों में बसे हर्राकोट के आदिवासी राजा भभूत सिंह की जागीर विद्रोह की सजा स्वरूप राजसत कर ली गई.

सन 1862 में इस बोरी क्षेत्र को हाल ही में बने वन विभाग के कब्जे में दे दिया गया. इसके पहले 1861 में भभूत सिंह को धोखे से पकड़कर जबलपुर जेल में फांसी दे दी गई.

1864 में दुनिया में पहली बार यहां से वैज्ञानिक वन प्रबंधन की शुरुआत हुई. 1865 में पहला वन कानून बना जिसके तहत यह देश का पहला आरक्षित वन बना और यहां कटाई शुरू हुई और यहां बसे आदिवासियों को भागने पर मजबूर कर दिया गया.

इसका वन क्षेत्र उस समय 26, 960 एकड़ था. होशंगाबाद जिले के वर्ष 1909-19 के फॉरेस्ट वर्किंग प्लान में पेज 3 पर यह तथ्य दर्ज है. आज सतपुड़ा टाइगर रिज़र्व के नाम से इस इलाके में कुल संरक्षित क्षेत्र 3 लाख 71 हजार एकड़ तक हो गया है.

Indian tribal people sit at a relief camp in Dharbaguda in Chhattisgarh. File Photo Reuters
छत्तीसगढ़ के धारबागुड़ा में एक राहत शिविर मैं बैठे आदिवासी. (फाइल फोटो: रॉयटर्स)

अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश के आने से यहां बसे बचे-खुचे आदिवासी गांवों पर एक बार फिर बेदखली की तलवार लटक गई है. आरक्षित वन घोषित करने का यह सिलसिला यहीं नहीं रुका. 1878  के वन कानून में आरक्षित वन बनाने की प्रक्रिया को कानूनी रूप दिया गया और देखते ही देखते आदिवासी इलाके में अधिकांश भू-भाग इस श्रेणी में आ गया.

जैसे 1876  में मध्य प्रदेश के मंडला जिले में सिर्फ 2.39% भू-भाग ही आरक्षित वन था, जो 1890-91 में 50% तक पहुंच गया. आज जिसे हम आरक्षित वन के नाम से जानते है, उसमें से अधिकांश इसी दौर में अस्तित्व में आए.

मुंबई फॉरेस्ट कमीशन 1887, भाग एक के पेज 31 पर लिखा है- मात्र एक सादे आदेश से सामुदायिक जमीन और चरनोई भूमि के 4,01,566 एकड़ जमीन को आरक्षित वन घोषित कर दिया गया. यह उस जिले का 50% जंगल क्षेत्र था.

इस रिपोर्ट के भाग 4 में (पेज 38 से 43 के बीच ) यह भी लिखा है- एक-एक करके गांवो को जंगल भूमि के नाम पर अपने अधिकार छोड़ना पड़ा. जंगल की जमीन जितनी बढ़ती उसके मुकाबले उतने बड़े पैमाने पर लोगों और गांवों के हिस्से की जमीन कम होती गई और सरकार लकड़ी के व्यापारी की तरह पैसा कमाने में लग गई और जंगल का संरक्षण भूल गई.

अंत: अधिकारियों ने इसका ठीकरा लोगों के सिर फोड़ दिया. आरक्षित वन के जो प्रावधान 1878 के वन कानून में थे वो 1927 के वन कानून में बने रहे- यह कानून आज़ाद भारत में जस का तस लागू है. इस कानून के तहत आरक्षित वन में पेड़ के गिरे हुए पत्ते उठाने के लिए घुसने पर भी मामला दर्ज हो सकता है.

अंग्रेजों द्वारा जंगल छीनने के बारे में आदिवासियों से जो कहानी मैंने सुनी, वो इस प्रकार है,

अंग्रेजों ने टेबल-कुर्सी और पेन के दम पर चालाकी से हमारा जंगल अपने नाम कर लिया. जब अंग्रेज अफसर आए तो उन्होंने हमारे पुरखों से कहा कि बाबा हमें भी अपने बच्चे पालना है, थोड़ी जमीन दे दो.

आदिवासी ने अंग्रेज से पूछा, कितनी जमीन चाहिए? तो अंग्रेज बोला, ‘एक सांभर की खाल जितनी.’ आदिवासी ने हां कर दिया. लेकिन अंग्रेज ने उस खाल का धागा बनाया और उसे पूरे जंगल में घुमाकर टेबल-कुर्सी पर पेन से उसका नक्शा बनाया और सारा जंगल ही अपने कब्जे में ले लिया.

वन अधिकार कानून 2006 के असली उद्देश्य को लेकर अगर केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के सामने यह तथ्य रखती कि कैसे उनके राज्यों में अंग्रेजों के समय से आजादी के बाद तक आदिवासी बस्तियों को उजाड़कर उन्हें जंगल का नाम देने का काम हुआ है, तो शायद यह आदेश न आता.

हमारी व्यवस्था एक बार फिर आदिवासियों के हितों की रक्षा करने एवं यह भरोसा दिलाने में विफल हो गई कि आज़ाद देश में उनके साथ अंग्रेजों के समय जैसा अन्याय नहीं होगा.

और अंतत: आज़ाद भारत की व्यवस्था ने जयपाल मुंडा की शंका सही साबित कर दी. संविधान सभा में आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करते हुए 16 दिसंबर 1946 को जयपाल मुंडा ने कहा था,

‘मैं उस समुदाय का प्रतिनिधित्व करता हूं जिसे पिछड़ा, अपराधी जाति एवं आदिम जाति के नाम से जाना जाता है. जंगली कहलाए जाने और आदिवासी होने के नाते हमसे संविधान सभा में पेश इन प्रस्तावों की जटिलता समझने की उम्मीद नहीं की जा सकती. लेकिन लोकतंत्र के बारे में आपको हमसे सीखने की जरूरत है. हमारा पूरा इतिहास बताता है कि गैर-आदिवासियों ने हमारा शोषण किया है और हमारे संसाधन लूटे है. लेकिन फिर भी मैं पंडित नेहरू के शब्दों पर भरोसा करता हूं कि आज़ाद भारत में एक नए अध्याय की शुरुआत होगी.’

आदिवासी समुदाय की इन आशंकाओ के मद्देनजर संविधान में छठवी अनुसूची के तहत असम सहित उत्तर पूर्वी राज्यों के आदिवासी क्षेत्र एवं पांचवी अनुसूची के तहत शेष भारत के आदिवासी अधिसूचित क्षेत्र में राज्यपाल को आदिवासी हितों के खिलाफ जाने वाले संसद और विधानसभा द्वारा बनाए हर कानून में परिवर्तन करने या उसे पूरी तरह रोकने के अधिकार है.

दुर्भाग्य की बात यह है कि शराब बनाने में छूट देने व एक दो अन्य बातों के अलावा किसी राज्यपाल ने इस प्रावधान का आज तक उपयोग नहीं किया. अब देखना है कि केंद्र सरकार पर आदिवासी हितों की रक्षा की जो संवैधानिक जवाबदारी है वो उसे कैसे निभाती है.

(लेखक समाजवादी जन परिषद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं.)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq