जब नेहरू ने कहा- वही संस्कृति के बारे में सबसे ज़्यादा बात कर रहे हैं, जिनमें इसका क़तरा तक नहीं है

पुस्तक अंश: 1950 में नेहरू ने लिखा, 'यूपी कांग्रेस कमेटी की आवाज़ उस कांग्रेस की आवाज़ नहीं है, जिसे मैं जानता हूं, बल्कि यह उस तरह की आवाज़ है जिसका मैं पूरी ज़िंदगी विरोध करता रहा हूं. कुछ कांग्रेसी नेता लगातार ऐसे आपत्तिजनक भाषण दे रहे हैं, जैसे हिंदू महासभा के लोग देते हैं.'

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जवाहरलाल नेहरू. (फोटो साभार: Nehru Memorial Library)

पुस्तक अंश: 1950 में नेहरू ने लिखा, ‘यूपी कांग्रेस कमेटी की आवाज़ उस कांग्रेस की आवाज़ नहीं है, जिसे मैं जानता हूं, बल्कि यह उस तरह की आवाज़ है जिसका मैं पूरी ज़िंदगी विरोध करता रहा हूं. कुछ कांग्रेसी नेता लगातार ऐसे आपत्तिजनक भाषण दे रहे हैं, जैसे हिंदू महासभा के लोग देते हैं.’

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जिस समय अयोध्या में भगवान राम की मूर्तियां रखी गईं, उस समय भारत और पाकिस्तान कश्मीर को लेकर भारी तनाव में थे. भारत करीब डेढ़ साल की लड़ाई के बाद कश्मीर से कबायलियों को खदेड़ चुका था. लेकिन इस बीच शेख अब्दुल्ला आज़ाद कश्मीर की बातें करने लगे थे.

नेहरू जी इस बात पर पूरा ज़ोर लगा रहे थे कि किसी तरह कश्मीर के बहुसंख्यक मुस्लिम समुदाय को हार्दिक रूप से भारत से जोड़े रखा जाए, ताकि किसी भी सूरत में कश्मीर भारत में बना रहे.

उसी समय जनसंघ और अन्य दक्षिणपंथी दल कश्मीर के भारत में विशेष दर्जे के ख़िलाफ़ अभियान चलाए हुए थे. जिसे नेहरू ने बहुत ही गलत नीति करार दिया था. एक ऐसी नीति जो अंतत: पाकिस्तान को फायदा पहुंचाने वाली थी और भारत-कश्मीर संबंधों को ख़राब करने वाली थी. इसके अलावा भारत सरकार पाकिस्तान के साथ युद्ध टालने के लिए लगातार राजनयिक विकल्पों पर भी काम कर रही थी.

ऐसे मौके पर बाबरी मस्जिद के भीतर मूर्तियां रख दी गईं. मूर्तियां रखे जाने की घटना नेहरू की मुसलमानों का विश्वास जीतने और पूरी दुनिया में भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि के खिलाफ थी. घटना के तुरंत बाद नेहरू ने मुख्यमंत्री पंत को तार भेजकर हालात की जानकारी ली.

उन्होंने मुख्यमंत्री से फोन पर भी बात की. नेहरू को तभी भविष्य की तस्वीर दिखाई दे रही थी.

उन्होंने कहा था कि हम गलत नज़ीर पेश कर रहे हैं. इसका सीधा असर पूरे भारत और खासकर कश्मीर पर पड़ेगा. उन्होंने यह भी कहा था कि हम हमेशा के लिए एक फसाद खड़ा कर रहे हैं. नेहरू जो कह रहे थे, उसे हमने बाद में सही होते देखा.

26 दिसंबर 1949 को नेहरू ने पंत (उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पंत) को टेलीग्राम किया, ‘मैं अयोध्या के घटनाक्रम से चिंतित हूं. मैं उम्मीद करता हूं कि आप जल्दी से जल्दी इस मामले में खुद दखल देंगे. वहां खतरनाक उदाहरण पेश किए जा रहे हैं. जिनके बुरे परिणाम होंगे.’

इस पत्र के साथ नेहरू वाग्मय के संपादक ने टिप्पणी दर्ज की, ‘21-22 दिसंबर की रात संयुक्त प्रांत के फै़ज़ाबाद ज़िले के अयोध्या कस्बे में बाबरी मस्जिद में अंधविश्वास पूर्वक भगवान राम और अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित कर दी गईं.

ऐसा दावा किया जाता था कि मस्जिद 16वीं सदी के हिंदू मंदिर को गिराकर बनाई गई और यह मंदिर भगवान राम का जन्मस्थान है. सरकार ने उस इलाके को विवादित घोषित कर दिया और ताला लगा दिया.’

5 फरवरी 1950 को नेहरू जी ने फिर पंतजी को पत्र लिखा:

‘मुझे बहुत खुशी होगी, अगर आप मुझे अयोध्या के हालात के बारे में सूचना देते रहें. आप जानते ही हैं कि इस मामले से पूरे भारत और खासकर कश्मीर में जो असर पैदा होगा, उसे लेकर मैं बहुत चिंतित हूं. मैंने आपको सुझाव दिया था कि अगर जरूरत पड़े तो मैं अयोध्या चला जाऊंगा. अगर आपको लगता है कि मुझे जाना चाहिए तो मैं तारीख तय करूं. हालांकि मैं बुरी तरह व्यस्त हूं.’

पंतजी ने 9 फरवरी 1950 को जवाब दिया कि अयोध्या के हालात में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं है. उन्होंने लिखा कि मुसलमान इस मामले को अयोध्या से बाहर ट्रांसफर करने के लिए हाईकोर्ट जाना चाहते हैं. नेहरू के अयोध्या आने के प्रस्ताव पर पंत ने लिखा, ‘अगर समय उपयुक्त होता तो मैंने खुद ही आपसे अयोध्या आने का आग्रह किया होता.’

जब अयोध्या में यह सब हो रहा था, तब तक पश्चिम और पूर्वी बंगाल सांप्रदायिकता की बाढ़ से उबरे नहीं थे. पाकिस्तान वाले बंगाल से बड़े पैमाने पर हिंदुओं को पलायन के लिए विवश किया जा रहा था. भारत के बंगाल से भी मुसलमान पलायन करने को मजबूर थे, लेकिन उनकी संख्या कम थी.

यह वह दौर था जब नेहरू, सरदार पटेल से यहां तक कह चुके थे कि वह प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर बंगाल जाकर वहां के हालात सुधारना चाहते हैं. उस पर अयोध्या की इस घटना ने सांप्रदायिकता के नए शोले भड़का दिए थे.

ऐसे हालात में 5 मार्च 1950 को पंडित नेहरू ने केजी मशरूवाला को पत्र लिखा:

‘मेरे प्यारे किशोरी भाई,

4 मार्च के आपके पत्र के लिए धन्यवाद. मैं संक्षेप में आपको जवाब दे रहा हूं. कल सुबह मैं कोलकाता जा रहा हूं.

मैं आपकी इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि भारतीय प्रेस आरोपों से परे नहीं है. मैंने उस अरसे का जिक्र किया, जब उसने कुछ बेहतर रुख अपनाया था. उसके बाद से इसका स्तर लगातार गिरता गया है, हालांकि पाकिस्तान के प्रेस का स्तर इससे भी बुरा है.

पश्चिम बंगाल की सरकार ने कोलकाता के प्रेस को कुछ हद तक अतिवादी होने से रोका है, लेकिन कोलकाता में इतनी ज्यादा उत्तेजना है कि उन्हें धीरज बंधाना कठिन है. खुले तौर पर लड़ाई की बातें कही जा रही हैं और जिस तरह के पोस्टर कोलकाता में लगाए गए हैं, वह बहुत बुरा है.

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि पूर्वी बंगाल में हिंदुओं के साथ बुरा से बुरा व्यवहार किया जा रहा है. कोलकाता में रह रहे मुसलमान भी आतंक के वातावरण में रह रहे हैं, हालांकि यहां कुछ ही लोग मारे गए हैं. पूर्वी बंगाल से बड़े पैमाने पर लोग पश्चिम बंगाल आ रहे हैं, जबकि पश्चिम बंगाल से और असम से कम संख्या में लोग पूर्वी बंगाल जा रहे हैं.

आपने अयोध्या की मस्जिद का जिक्र किया. यह वाकया दो या तीन महीने पहले हुआ और मैं इसको लेकर बहुत बुरी तरह चिंतित हूं. संयुक्त प्रांत सरकार ने इस मामले में बड़े-बड़े दावे किए, लेकिन असल में किया बहुत कम.

फै़ज़ाबाद के ज़िला अधिकारी ने दुर्व्यवहार किया और इस घटना को होने से रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाया. यह सही नहीं है कि बाबा राघवदास ने यह शुरू किया, लेकिन यह सच है कि यह सब होने के बाद उन्होंने इसे अपनी सहमति दे दी.

यूपी में कई कांग्रेसियों और पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने इस घटना की कई मौकों पर निंदा की, लेकिन वह कोई फैसलाकुन कार्रवाई करने से बचते रहे. संभवत: वह ऐसा बड़े पैमाने पर दंगे फैलने के डर से कर रहे हैं. मैं इससे बुरी तरह अशांत हूं. मैंने बार-बार पंडित जी का ध्यान इस तरफ खींचा है.

मैं इस बारे में बिल्कुल आश्वस्त हूं कि अगर हमने अपनी तरफ से उचित व्यवहार किया होता तो पाकिस्तान से निपटना आसान हो गया होता. जहां तक पाकिस्तान का सवाल है तो आज बहुत से कांग्रेसी भी सांप्रदायिक हो गए हैं और इसकी प्रतिक्रिया भारत में मुसलमानों के प्रति उनके व्यवहार में दिखती है.

मुझे समझ नहीं आ रहा कि देश में बेहतर वातावरण बनाने के लिए हम क्या कर सकते हैं. कोरी सद्भावना की बातें लोगों में खीझ पैदा करती हैं, खासकर तब जब वे उत्तेजित हों. बापू यह काम कर सकते थे, लेकिन हम लोग इस तरह के काम करने के लिए बहुत छोटे हैं. मुझे डर है कि मौजूदा माहौल में बापू के शांति मार्च के नक्शे कदम पर भी चलने की कोई संभावना नहीं है.

17 अप्रैल 1950 पंडित नेहरू ने फिर गोविंद बल्लभ पंत को पत्र लिखा:

शाहजहांपुर के बारे में आपके पत्र के लिए शुक्रिया. मुझे पूरा भरोसा है कि उत्तर प्रदेश में हाल ही में आई दिक्कतों के बारे में आपकी सरकार ने सख्त और कारगर कदम उठाए होंगे.

मुझे यह जानकर खुशी है कि आप की कार्रवाई और आपने जो समझौता किया, उसके फलस्वरूप हालात अब स्थिरता की ओर बढ़ रहे हैं.

यूपी में हाल ही में हुई घटनाओं ने मुझे बुरी तरह दुखी किया है. यूं कहें कि लंबे समय से मैं जो महसूस कर रहा हूं, यह उसका मिला-जुला असर है. लोगों की मौत और हत्याओं की खबर बहुत दुखदायी होती है, लेकिन इससे मैं उतना परेशान नहीं होता. जो चीज मेरा दिल कचोटती है, वह है मानव मूल्यों का पूरी तरह पतन और हद तो तब हो जाती है, जब इस तरह की हरकतों को वाजिब ठहराया जाता है.

मैं लंबे समय से महसूस कर रहा हूं कि सांप्रदायिकता के लिहाज से यूपी का माहौल बुरी तरह बिगड़ता जा रहा है बल्कि यूपी मेरे लिए एक अजनबी जमीन होती जा रही है. मैं खुद को उसमें फिट नहीं पाता. यूपी कांग्रेस कमेटी, जिसके साथ में 35 साल तक जुड़ा रहा, अब इस तरह काम कर रही है, जिसे देखकर मैं आश्चर्य में पड़ जाता हूं. इसकी आवाज उस कांग्रेस की आवाज नहीं है, जिसे मैं जानता हूं, बल्कि यह आवाज उस तरह की है जिसका मैं पूरी जिंदगी विरोध करता रहा हूं.

पुरुषोत्तम दास टंडन, जिनसे मुझे दिली मोहब्बत है और जिनका मैं सम्मान करता हूं, वह लगातार भाषण दे रहे हैं. वह भाषण मुझे कांग्रेस के बुनियादी उसूलों के खिलाफ नजर आते हैं. विशंभर दयाल त्रिपाठी जैसे दूसरे कांग्रेस सदस्य इस तरह के आपत्तिजनक भाषण दे रहे हैं, जैसे भाषण हिंदू महासभा के लोग देते हैं.

बहरहाल पत्र में नेहरू आगे कहते हैं, ‘अनुशासनात्मक कार्रवाई के बारे में हम बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन सांप्रदायिकता के मामले में कांग्रेस की नीति में जो बुनियादी बिगाड़ आ रहा है, उसे हम लगातार स्वीकार किए जा रहे हैं.

अगर समुद्र ही अपना खारापन छोड़ दे, तो फिर खारापन लाएंगे कहां से.

मैं लंबे समय से यूपी नहीं आया हूं, इसकी एक वजह तो यह है कि मेरे पास वक्त की कमी है, लेकिन असली वजह यह है कि मुझे वहां आने में हिचक होने लगी है. मैं अपने पुराने सहयोगियों के साथ विवाद में पड़ना नहीं चाहता और लेकिन मैं वहां बुरी तरह असहज महसूस करता हूं.

मैं देखता हूं कि जो लोग कभी कांग्रेस के स्तंभ हुआ करते थे, आज सांप्रदायिकता ने उनके दिलो-दिमाग पर कब्जा कर लिया है. यह एक किस्म का लकवा है, जिसमें मरीज को पता तक नहीं है कि वह लकवाग्रस्त है.

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मस्जिद और मंदिर के मामले में जो कुछ भी अयोध्या में हुआ और होटल के मामले में फै़ज़ाबाद में जो हुआ, वह बहुत बुरा है. लेकिन सबसे बुरी बात यह है कि यह सब चीजें हुईं और हमारे अपने लोगों की मंजूरी सी हुईं और वे लगातार यह काम कर रहे हैं.

मुझे लगता है कि कुछ वजहों से बल्कि सियासी वजहों से हम इस बीमारी के बारे में बहुत ज्यादा काहिल हो गए हैं. यह पूरे देश में और हमारे अपने प्रांत में फैल रही है. कई बार मुझे लगता है कि मैं सारे काम छोड़कर इसी मुद्दे पर काम में जुट जाऊं. हो सकता है एक दिन मैं यही करूं.

अगर मैं यह करता हूं तो यह क्रूसेड होगा और मैं अपनी पूरी ताकत से इस काम में लगूंगा.

यूपी में कानून का राज स्थापित हो गया है. कोई घटना सामने नहीं आ रही हैं. यहां से लोगों के जाने का सिलसिला कम हो गया है या लगभग रुक गया है. यह सब बहुत अच्छा है, लेकिन मुझे जो रिपोर्ट मिल रही हैं वह बताती हैं कि भले ही कोई बड़ी घटना न हो रही हो, लेकिन सामान्य माहौल वहां के असली हालात को बताता है.

एक दिन एक मुसलमान एक शहर में सड़क पर चला जा रहा था, उसको तमाचा मारा गया और कहा गया कि पाकिस्तान चले जाओ या फिर उसको थप्पड़ मारा जाता है या उसकी दाढ़ी खींची जाती है.

गलियों में मुसलमान औरतों पर भद्दी टिप्पणियां की जा रही हैं और उन पर ‘पाकिस्तान जाओ’ जैसे फिकरे कसे जा रहे हैं.

हो सकता है कि यह काम कुछ ही लोग कर रहे हों, लेकिन यह बात तो है ही कि हमने एक ऐसे वातावरण का फैलना बर्दाश्त किया, जिसमें इस तरह की चीजें हो रही हैं और दूसरे उन्हें देख रहे हैं और मंजूरी दे रहे हैं.

मेरा दिल कहता है कि जो लोग कांग्रेस में काम कर रहे हैं, उनके दिल अभी भी काफी हद तक मजबूत हैं और उन्हें हम अपनी बात समझा सकते हैं, लेकिन नेतृत्व कमजोर है और वह लगातार गलत चीजों के साथ समझौता कर रहा है. यही वजह है कि हमारे कार्यकर्ता भटक रहे हैं.

हमारी बड़ी-बड़ी बातों से कोई देश हमारे बारे में कुछ भी सोचता रहे, लेकिन हकीकत यही है कि हम पिछड़े हुए लोग हैं, जो संस्कृति के मामले में सबसे ज्यादा पिछड़े हुए हैं. वही लोग संस्कृति के बारे में सबसे ज्यादा बात कर रहे हैं, जिनके अंदर इसका एक कतरा तक नहीं है.

(पत्रकार पीयूष बबेले की किताब नेहरू: मिथक और सत्य का अंश)

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