लोकतंत्र और संविधान से संघ-भाजपा का प्रयोग

लोकसभा चुनावों के बाद अगर मोदी सरकार वापस सत्ता में नहीं भी आती है तो भी राजनीति के मानदंड इतने बिगड़ चुके हैं कि समाज में स्थिरता और शांति आने में लंबा वक़्त लग सकता है.

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(फोटो: पीटीआई)

लोकसभा चुनावों के बाद अगर मोदी सरकार वापस सत्ता में नहीं भी आती है तो भी राजनीति के मानदंड इतने बिगड़ चुके हैं कि समाज में स्थिरता और शांति आने में लंबा वक़्त लग सकता है.

फोटो: पीटीआई
फोटो: पीटीआई

आज़ादी के बाद से भारत में अब तक अलग-अलग हुक्काम आए और इस दौरान तक़रीबन एक-सी धीमी गति से मानव-विकास हुआ. पहले की सरकारें मुल्क में सबके लिए खुशहाली नहीं ला पाईं, तो यह सवाल वाजिब लगता है कि मोदी के नेतृत्व वाली संघ समर्थित सरकार का विरोध क्यों किया जाए.

भारत में तरक्की के संदर्भ में तुलना के लिए चीन को लिया जा सकता है. 1950 में भारत और चीन तक़रीबन एक ही स्थिति में थे. कहा जा सकता है कि जंग और बड़े अकालों की वजह से चीन की हालत बदतर थी. चीन में साम्यवादी इंक़लाब हुआ और तीन दशकों बाद धीरे-धीरे व्यवस्था पूंजीवादी तानाशाही में बदल गई.

भारत में छोटे संपन्न तबकों की नियंत्रित लोकतांत्रिक व्यवस्था बनी, जिसमें कहने को पूरी अवाम शामिल थी, पर सचमुच जनता के हाथ कोई ताक़त कभी नहीं रही. मानव विकास के आंकड़ों में चीन ने भारत से कहीं ज़्यादा तरक्की की.

साक्षरता दर, नवजात बच्चों की मौत, स्त्रियों की स्थिति, तालीम और सेहत आदि क्षेत्रों में चीन भारत से आगे बढ़ता गया. फिर भी भारत की ताक़त इसकी लोकतांत्रिक व्यवस्था में है, जिसमें अभिव्यक्ति की आज़ादी और विरोध की जगह सुरक्षित है.

पिछले 70 साल में जितनी सरकारें आईं, उन्होंने देश और जनता के सर्वांगीण विकास की जगह पूंजीवादी तबकों के हित में काम किया. अमीर ग़रीब की खाई बढ़ती रही. पर लोकतांत्रिक व्यवस्था की वजह से इतनी तरक्की ज़रूर हुई कि मध्य वर्ग की माली हालत बेहतर हुई.

पूंजीवादी विकास के नज़रिये से कई क्षेत्रों में बढ़त दिखलाई देती है, जैसे सड़कें बनीं, या हाल के दशकों में सूचना क्रांति में भारत की भागीदारी है, आदि. हालांकि इसके साथ आर्थिक उदारवाद और निजीकरण की वजह से मज़दूरों के हक़ छीने गए, खेती के क्षेत्र में छोटे किसानों की हालत बहुत बिगड़ गई, यहां तक कि बड़ी तादाद में किसान ख़ुदकुशी करते रहे हैं.

पर सिर्फ़ इतनी बातें कोई वजह नहीं हो सकती कि संघ समर्थित सरकार को हटाने की मुहिम छेड़ी जाए. क्योंकि इनके जाने के बाद कांग्रेस या आंचलिक दलों के गठबंधन से बनी सरकारें इन मुद्दों पर इनसे बेहतर काम करेंगी, ऐसी उम्मीद कम है.

तमाम कामियों के बावजूद अगर भारत की कोई ख़ासियत है तो वह हमारी लोकतांत्रिक संरचना है. संघ समर्थित सरकार ने भारत की इसी ताक़त को कम किया है और आसार यही हैं कि आगे और भी बदहाली आएगी.

मौजूदा सरकार ने भारतीय राजनीति की मुख्यधारा के केंद्रबिंदु को बहुत पीछे की ओर धकेल दिया है. यह स्थिति इनके जाने के बाद भी बनी रह सकती है और इससे उबरने के लिए लोकतांत्रिक ताक़तों को बड़ी लड़ाई लड़नी पड़ेगी.

धरती पर दूसरे जानवरों से अलग इंसान ने अपने ज़ेहन का इस्तेमाल कर अपने अस्तित्व को लगातार बेहतर बनाया है. इस प्रक्रिया में ख़ुद को क़ुदरत का हिस्सा समझना और साथ ही क़ुदरत को अपने बस में रखना, ये दोनों बातें साथ चलती रही हैं.

हिंसा जैसी जैविक प्रवृत्तियों पर रोक लगाने की कोशिश होती रही है तो साथ ही ज़्यादा से ज़्यादा संसाधनों को हथियाने के लिए हिंसा को सामाजिक जामा पहनाकर जायज़ ठहराना भी होता रहा है. आज हम जहां पहुंचे हैं, वहां से हम पिछली सदियों को देखकर पाते हैं कि इंसान लगातार अपनी स्थिति में सुधार के लिए जद्दोजहद में है.

यूरोप की आधुनिकता और कई देशों में आए इंक़लाब दरअसल इंसान की बेहतरी की ओर उठाए गए क़दम ही हैं. पर कहीं न कहीं कोई ऐसा संक्रमण इंसानी ज़ेहन में है, जो इतिहास को बार-बार पीछे की ओर धकेलता है.

आरएसएस या पड़ोस के मुल्कों में तालिबान जैसे संगठनों की राजनीति वही बीमारी है जो इंसान को पीछे धकेल कर अंधेरे युगों की ओर ले जाने की राजनीति है. संघ परिवार ने विचार की जगह दबंगई, हिंसा और विरोधियों को दबाने के लिए प्रशासन के ग़लत इस्तेमाल को राजनीति का केंद्रबिंदु बना दिया है.

ऐसा नहीं है कि दूसरी पार्टियां इस बीमारी से बिल्कुल मुक्त हैं, पर जहां दूसरे दलों ने सामयिक या स्थानीय वर्चस्व के लिए हिंसा को औज़ार की तरह इस्तेमाल किया, संघ ने खुले आम नीतिगत स्तर पर हिंसा को कभी वाज़िब ठहराया है या कभी चुप्पी बनाए रखी है.

साम्यवाद और संघ, दोनों की दृष्टि में हिंसा के राजनीतिक इस्तेमाल की बात है, पर जहां माओवादियों को छोड़कर दूसरे साम्यवादियों में वैचारिक रूप से हिंसा से परहेज करने की बात लगातार मान्य हो चुकी है, वहीं संघ में हिंसा के इस्तेमाल को जायज़ ठहराने की प्रवृत्ति बढ़ी है.

भारत में लोकतंत्र इतना मज़बूत हो चुका है कि इसे उखाड़ पाना इतना आसान नहीं है. इसलिए संघ ने लोकतंत्र का इस्तेमाल करते हुए इसे ख़त्म करने की ठानी है. खतरा यह है कि अगर भाजपा समर्थित सरकार वापस सत्ता में नहीं भी आती है तो भी राजनीति के मानदंड इतने बिगड़ चुके हैं कि समाज में स्थिरता और शांति आने में लंबा वक़्त लग सकता है.

एक ज़माना था जब चुनाव उत्सव की तरह आते थे. फिर पता नहीं कब जैसे माहौल में ज़हर घुल गया. जगह-जगह से चुनावी प्रचार के दौरान हिंसा की ख़बरें आने लगीं.

पहले प्रचार में प्रत्याशी झूठे वादे किया करते थे. अब विरोधियों पर झूठ के हमले होने लगे. झूठ राजनीति का औज़ार है. एक सामान्य झूठ तो संघ परिवार ने लंबे समय से हम सब पर लादा हुआ है, वह यह कि सत्ता में संघ नहीं भाजपा है. अब कोई विरला ही होगा जो इस झूठ को न समझता होगा.

कोई औज़ार जब ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल किया जाए तो उसकी धार कम हो जाती है. आख़िर में वार उल्टे पड़ने लगते हैं. भारतीय जनता पार्टी का इन दिनों यह हाल है. राजनेता दम लगाकर कहता है- विरोधियों के झूठ का पर्दाफाश करो. लोग समझ जाते हैं कि विरोधी इस वक़्त सच बोल रहे हैं.

कई बार तो जो कुछ भी ग़लत वह विरोधियों के साथ कर रहा होता है, उसका दावा यह होता है कि विरोधी उसके साथ ऐसा कर रहे हैं. कहते हैं हिटलर की नात्सी पार्टी के साथ प्रोपेगैंडा मंत्री रहे गोएबल्स ने कहा था कि अपने अपराधों का भांडा दूसरों के सिर फोड़ो. यही हमारे राष्ट्रनेता का मंत्र है.

कर्नाटक चुनावों के प्रचार में मोदी ने झूठ कहा कि फौजी जरनल थिमैया और जनरल करियप्पा के साथ कांग्रेस और नेहरू सरकार ने बदसलूकी की. लोगों ने जान लिया कि नेहरू ने ठीक इसका उल्टा किया और उनका उचित सम्मान किया.

संघ ने झूठ की संस्कृति को प्रतिष्ठित कर दिया है. अब अगर किसी और पार्टी के नेता झूठ बोलें तो उसका विरोध कठिन हो जाता है, क्योंकि संघी राजनीति ने झूठ के ऐसे मानक स्थापित कर दिए हैं, जो बेहद शर्मनाक हैं. आज राजनीति में विमर्श नाम की कोई चीज़ रह गई दिखती नहीं है. हर तरफ़ बस झूठ का व्यापार है.

हमेशा झूठ को सच बनाना आसान काम नहीं है. कई बार दोहराना पड़ता है. पैसा लगाना पड़ता है और प्रचार के लिए झंडाबरदारों के झुंड बनाने पड़ते हैं. लोगों के बीच नफ़रत फैलानी पड़ती है. यह सब आसान नहीं है.

कुछ वक़्त तक तो आम लोग जानकारी के अभाव में सीना-पीटू भाषण से प्रभावित हो जाते हैं, पर ऐसा हमेशा होता ही रहे, यह मुमकिन नहीं है.

केंद्र की भाजपा सरकार वापस सत्ता में न लाने की एक मुख्य वजह उनका झूठ को कलात्मक शिखर तक ले जाना है. सत्ता में बदलाव की यह लड़ाई दरअसल सार्थक विमर्श को वापस लाने की लड़ाई है, जिसमें मुद्दे सरकार के हाथों बिक चुके पत्रकारों और टीवी एंकरों के चिल्लाने से तय न हों, बल्कि अर्थपूर्ण बहसों से हों.

मौजूदा समय में सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर झूठ के तूफानी बवंडर से कायर लोगों की हीन भावनाओं को दबंगई और गुंडागर्दी में बदलने में संघी माहिर साबित हुए हैं. गुंडों का आधार बनाए रखने के लिए शीर्ष राजनेता घटिया स्तर तक उतर आने से भी नहीं चूक रहा.

कर्नाटक चुनावों के प्रचार में नरेंद्र मोदी ने विरोधियों को धमकी तक दे डाली. उनके मुख्य-मंत्री के दावेदार ने कहा कि लोगों के हाथ पैर बंधवाकर अपनी पार्टी को वोट डलवाओ तो राष्ट्रनेता ने विरोधियों को सीमा में रहने का फतवा दे डाला.

एक केंद्रीय मंत्री पहले घोषणा कर चुके हैं कि वे संविधान बदलने के लिए सत्ता में आए हैं.

बुद्धिजीवियों को बेवजह झूठे आरोपों में फंसा कर क़ैद में डाला जा रहा है. कइयों ने सच कहा है कि ऐसे हालात 1975 के आपातकाल में भी न थे, जैसे आज हैं.

जिन पर बाकी झूठ आसानी से काम नहीं करते हैं, उन पर एक और झूठ लादा जाता है. वह यह कि कोई विकल्प नहीं है.

कांग्रेस के ज़माने में खूब भ्रष्टाचार हुए, सपा-बसपा आदि के नेता तो मज़ाक हैं, जैसे झूठ पर हमें आंखें बंद कर लेनी चाहिए और चाहे मुसलमान मरे या दलित, वोट भाजपा को ही देना चाहिए. यह झूठ ख़तरनाक है.

विकल्पहीनता के झूठ के साथ अधिनायकवाद जुड़ा हुआ है जो हमारे संघीय (गणराज्य वाला संघ) संविधान की मूल भावनाओं के ख़िलाफ़ है. ऐसा पहले भी होता रहा है. नेहरू के बाद कौन, इंदिरा के बाद कौन आदि.

सच यह है कि सबसे ज़्यादा अनिश्चित स्थिति में, जब सारे सांसद निर्दलीय हों, फिर भी माहौल फ़िरकापरस्त हिंसा की राजनीति से बेहतर होगा. अगर अधिकतर सांसद बड़ी पार्टियों के न भी हों, तो कोई ख़ास संकट नहीं आने वाला.

विकल्प और भी हैं जिन पर सोचना ज़रूरी है. देश की जनता ने कई बार दिखलाया है कि विकल्प कई हैं. संघी झूठे प्रचार में यह बात आती रहती है कि भाजपा के विरोध का मतलब कांग्रेस का समर्थन है. ज़ाहिर है अब जब मोदी का तिलिस्म रहा नहीं, इस प्रचार से कांग्रेस को फायदा हुआ है, पर यह बात बिल्कुल बकवास है.

संघ की नफ़रत आधारित राजनीति का विरोध करने वाले अधिकतर लोग कांग्रेस की नवउदारवादी आर्थिक नीतियों और फ़िरकापरस्ती का हमेशा ही विरोध करते रहते हैं. वे लोग भी जो संघ के बढ़ते आतंक से घबराकर कांग्रेस के समर्थन में खड़े हो रहे हैं, दरअसल सभी कांग्रेस समर्थक नहीं हैं.

नवउदारवादी आर्थिक नीतियों से अमीर-ग़रीब की खाई और बेरोज़गारी बढ़ी है, ये बातें अब पूंजीवाद के जानकार भी मानते हैं और हाल के वर्षों में विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी कही हैं.

संभावना है कि झूठ, पैसा, ब्लैकमेल, आतंक, ईवीएम से छेड़छाड़, हर तरह के फूहड़पन के बावजूद भाजपा आने वाले चुनावों में जीत हासिल करने की स्थिति में न हो. ऐसी स्थिति में दो बातों की संभावना है.

एक तो यह कि भारत और पाकिस्तान में जंग छेड़ दी जाएगी और दूसरी यह कि संघ परिवार अपनी सारी ताक़त देशभर में फ़िरकापरस्त दंगे भड़काने में लगा देगा. मंदिर-मस्जिद की सियासत को फिर से उभारने की कोशिशें जारी हैं.

संघ को सत्ता से हटाने की मुख्य वजह उनकी यही फासीवादी सोच है. संघ को जीवन जाति-धर्मों के बीच महासंग्राम दिखता है, जहां हिंसा और नफ़रत के अलावा कुछ नहीं है. उनका इतिहास, भूगोल, सब कुछ नफ़रत की ज़मीं पर खड़ा है.

संघ परिवार की सियासत इंसान में असुरक्षा की भावना को भड़का कर हिंसात्मक प्रवृत्तियों को जगाती है. कई लोगों को एक सा डर होने लगे तो वह सामूहिक राजनीतिक औज़ार बन जाता है.

जैसे किसी व्यक्ति में भगवान और शैतान दोनों को जगाया जा सकता है, वैसे ही समुदायों में भी नैतिक संकट के बीज बोए जा सकते हैं और वक़्त आने पर उसके ज़हरीले फल तोड़े जा सकते हैं. इसी का फायदा उठाकर संघ परिवार जैसे गुट सत्ता में आते हैं.

हालात इस क़दर बिगड़ गए हैं कि इस ज़हर से प्रभावित लोगों से किसी भी सामाजिक-आर्थिक मुद्दे पर चर्चा करने पर वह इसे देशद्रोह मानने लगता है. पर दरअसल यह भय और घबराहट से उपजी बौखलाहट ही है.

यह एक ऐसी स्थिति जिसमें बाक़ी सभी असहाय सा बोध करने लगते हैं, क्योंकि इस बीमारी का शिकार इंसान किसी बातचीत के दायरे से दूर जा चुका होता है.

हम आप कुछ न करें तो भारत में हालात वैसे ही हो जाएंगे, जैसे सीरिया, अफगानिस्तान जैसे मुल्कों में हैं. हम सचमुच एक ख़तरनाक दौर से गुज़र रहे हैं और विड़ंबना यह है कि बहुत सारे लोग यह समझते हैं कि यह कोई ख़ास बात नहीं है.

इस ख़तरे को कि दक्षिण एशिया के हुक्काम कभी भी जंग छेड़ सकते हैं, हल्का नहीं लेना चाहिए. अब अगर जंग छिड़े तो कोई नहीं जानता कि वह कहां और कब रुकेगी. ऐसे निहित स्वार्थों की कमी नहीं जो अपनी मुनाफ़ाखोरी के लिए जंगों पर निर्भर हैं. अमेरिका जैसे मुल्कों के वार्षिक निर्यात का बड़ा हिस्सा असलाह की बिक्री है.

हमारे भीतरी ख़तरे भी कम नहीं हैं. संघ की पूरी राजनीति नफ़रत फैला कर सत्ता हासिल करने की है. आज तक यह सही पता नहीं चला है कि गोधरा कांड में सचमुच क्या हुआ था.

मुंबई के आतंकी हमलों के दौरान हेमंत करकरे जैसे अफसरों की जानें कैसे गईं, इस पर आज तक पर्दा पड़ा हुआ है. भीष्म साहनी की रचनाओं पर आधारित ‘तमस’ फिल्म का शुरुआती दृश्य, जिसमें ओम पुरी ने अभिनय किया था, कौन भूल सकता है. सचेत नागरिकों को हर पल जगे रहना होगा कि कभी भी कुछ हो सकता है.

हमारे पास हालात से जूझने के अलावा कोई विकल्प नहीं हैं. एक ओर निश्चित विनाश है, भीतर बाहर हर तरह की जंग लड़ाई का ख़तरा है, दूसरी ओर इकट्ठे आवाज़ उठाने का, बेहतर भविष्य के सपने के लिए पूरी शिद्दत से जुट जाने का विकल्प है.

एक ओर जंगखोरी और लोगों को फ़िरकापरस्ती में उलझा कर मुल्क की संप्रभुता गिरवी रखी जा रही है, दूसरी ओर आम लोगों के लिए बेहतर तालीम और सेहत के मुद्दे हैं. आज हिंदुस्तान जंगी असलाह की आमद पर ख़र्च करने की सूची में सबसे ऊपर है. रक्षा क्षेत्र में मुल्क की संपदा को लगाने में हम पांचवें नंबर पर हैं.

साथ ही यह विडंबना कि मानव विकास सूचकांक में हम 133वें नंबर पर हैं. हमें लोगों को यह समझाना होगा कि हमारी लड़ाई पाकिस्तान या चीन के लोगों से नहीं है, वहां की हुकूमतों से है और साथ ही हमारे अपने मुल्क की मध्य-युगीन मानसिकता वाली हुकूमत से है. सरहद पर मरने वाला सिपाही मरता है तो वह किसी मुल्क का भी हो, उसके बच्चे अनाथ हो जाते हैं.

हाकिम नहीं मरते, साधारण सिपाही मरते हैं और उनको शहीद कहकर या उनके परिवार को राहत का पैसा देकर मरे हुए को वापस नहीं लाया जा सकता है. पर हुक्काम के पास ये सब सोचने की गुंजाइश नहीं है कि जंग किसी के भी भले के लिए नहीं है.

(लेखक कवि और राजनीतिक टिप्पणीकार हैं.)

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