जब बलरामपुर की जनता ने अटल बिहारी वाजपेयी को उनकी अभद्र टिप्पणी के लिए सबक सिखाया

चुनावी बातें: नेताओं की बदज़ुबानी के लिए उन्हें सबक सिखाने में मतदाताओं की उदासीनता भी ज़िम्मेदार है, लेकिन एक वो समय था जब 1962 में उत्तर प्रदेश की बलरामपुर लोकसभा सीट के मतदाताओं ने अटल बिहारी वाजपेयी जैसे वाकपटु नेता की अभद्र टिप्पणी के चलते उनकी जीती हुई बाज़ी पलटकर हार का मज़ा चखा दिया था.

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पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी. (फोटो: रॉयटर्स)

चुनावी बातें: नेताओं की बदज़ुबानी के लिए उन्हें सबक सिखाने में मतदाताओं की उदासीनता भी ज़िम्मेदार है, लेकिन एक वो समय था जब 1962 में उत्तर प्रदेश की बलरामपुर लोकसभा सीट के मतदाताओं ने अटल बिहारी वाजपेयी जैसे वाकपटु नेता की अभद्र टिप्पणी के चलते उनकी जीती हुई बाज़ी पलटकर हार का मज़ा चखा दिया था.

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी. (फोटो: रॉयटर्स)
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी. (फाइल फोटो: रॉयटर्स)

किसी से भी छिपा नहीं कि आज की राजनीति में नेताओं की दुर्मुखता व भाषाई असंयम एक बड़ी बीमारी बन चुके हैं. पार्टियां हैं कि अपने नेताओं की अशोभनीय व ओछी टिप्पणियों का तो भरपूर बचाव करती हैं लेकिन प्रतिद्वंद्वियों की ओर से जैसे को तैसा जवाब मिल जाए तो चुनाव आयोग की दौड़ लगाने लग जाती हैं.

इस पुराने मर्ज के नासूर बनते जाने का एक कारण उनका यह दुरंगापन है तो दूसरा बदजुबान नेताओं को सबक सिखाने में मतदाताओं की उदासीनता भी. लेकिन एक वक्त था जब मतदाता नेताओं व प्रत्याशियों की एक भी अशोभनीय टिप्पणी को बर्दाश्त नहीं करते थे और उन्हें उसका सबक सिखाकर ही मानते थे.

1962 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की बलरामपुर लोकसभा सीट के मतदाताओं ने तो अटल बिहारी वाजपेयी जैसे वाकपटु नेता की अशोभनीय टिप्पणी को भी बर्दाश्त नहीं किया और उनकी जीती हुई बाजी पलटकर उन्हें हार का मजा चखा दिया था.

इससे पहले 1957 के चुनाव में वे कांग्रेस के बैरिस्टर हैदर हुसैन को हराकर इसी सीट से जनसंघ के सांसद निर्वाचित हुए थे. उस हार का बदला लेने के लिए कांग्रेस ने 1962 में अपनी वरिष्ठ महिला नेता सुभद्रा जोशी को उनके मुकाबले में उतारा तो उनकी राह बहुत कठिन बताई जाती थी.

इसलिए वे अपने जनसंपर्क में मतदाताओं से तकिया कलाम की तरह बार-बार कहती थीं कि वे चुनाव जीतीं तो साल के बारह महीने और महीने के तीसों दिन उनकी सेवा को तत्पर रहेंगी. प्रचार अभियान ने जोर पकड़ा तो एक दिन अटल बिहारी वाजपेयी को जाने क्या सूझी कि अपनी एक सभा में सुभद्रा की इस बात को लेकर उन पर लैंगिक आक्षेप पर उतर आए.

यह भी ध्यान नहीं रखा कि जो कुछ वे कह रहे हैं, वह बहुत अशोभनीय है. उपहास करते हुए बोले, ‘सुभद्रा जी कहती हैं कि वे महीने के तीसों दिन मतदाताओं की सेवा करेंगी. मैं पूछता हूं, कैसे करेंगी? महीने में कुछ दिन तो महिलाएं सेवा करने लायक रहती ही नहीं हैं!’

उन दिनों हर छोटी बड़ी बात के लिए चुनाव आयोग में शिकायत करने पहुंच जाने का चलन नहीं था. प्रत्याशी अपने प्रतिद्वंद्वियों का जनता की अदालत में और राजनीतिक तौर पर मुकाबला करने में यकीन करते थे.

उनकी टिप्पणी से आहत सुभद्रा जोशी ने भी ऐसा ही किया और प्रतिक्रिया में इतना ही कहा कि अटल द्वारा की गई इस बेइज्जती का बदला वे नहीं, उनके मतदाता लेंगे.

वाकई ऐसा ही हुआ. अटल जी जीतते-जीतते वह चुनाव हार गये. यह और बात है कि अगले चुनाव में वे फिर मतदाताओं के सामने आए तो उन्होंने उन्हें माफ करके लोकसभा पहुंचा दिया.

जब मतदाताओं ने नाना जी देशमुख के हाथों अपनी महारानी को हार का मुंह दिखाया

1977 में जनसंघ के एक और बड़े नेता नाना जी देशमुख जनता पार्टी के टिकट पर इसी सीट से चुनाव लड़े और जीते. नाना जी की जीत की खास बात यह थी कि उन्होंने बलरामपुर की तेजतर्रार महारानी लक्ष्मी कुंवरि को शिकस्त दी थी.

महारानी उनके विरुद्ध कांग्रेस की प्रत्याशी थीं और वे अपनी हार से इस कारण कुछ ज्यादा ही विचलित हुईं कि वे मानती थीं कि देशव्यापी कांग्रेस विरोधी लहर से उन्हें कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि क्षेत्र के लोगों से उनके राज परिवार के प्रजापालकों जैसे मधुर संबंध हैं और खुद उनकी भी बड़ी प्रतिष्ठा है.

कहते हैं कि इसीलिए चुनाव परिणाम की घोषणा के बाद महारानी ने ‘सारी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल जाने’ के दंश से पीड़ित होकर अपने सारे सार्वजनिक कार्यक्रम रद्द कर दिए और महल में कैद हो गईं. नौकरों से कह दिया कि वे बहुत जरूरी होने पर ही उनके एकांत में बाधा डालें.

लेकिन यह क्या, कुछ ही घंटे बाद उनके एक नौकर ने आकर क्षमा मांगते हुए बताया, ‘महारानी! महल के बड़े दरवाजे पर नानाजी नाम का एक आदमी खड़ा है और कह रहा है कि उसका आज और अभी आपसे मिलना बहुत जरूरी है. वह आपसे मुलाकात का उद्देश्य भी आपके सिवा किसी और को बताने को तैयार नहीं है. बहुत कहा गया कि आज वह लौट जाए और कल या परसों जिस भी समय उसका मन हो, आ जाए, लेकिन वह टलता ही नहीं.’

महारानी यह तो समझ गईं कि आगंतुक उनके प्रतिद्वंद्वी नानाजी देशमुख ही हैं, लेकिन यह नहीं समझ पायीं कि चुनाव हरा देने के बाद अब वे किस अच्छी या बुरी नीयत से उनसे मिलने आए हैं.

वे दिन आज कल जैसी विचारहीन राजनीति और उससे पैदा होने वाली व्यक्तिगत कटुताओं के नहीं थे. तब अपने से असहमत विरोधी को भी समुचित सम्मान दिया जाता था. महारानी ने नौकर को आदेश दिया कि वह आगंतुक को सम्मानपूर्वक बैठाकर जलपान कराये और उनसे कहे कि मैं बस पांच मिनट में तैयार होकर आई.

लेकिन भेंट हुई तो महारानी हार की तल्खी को छिपा नहीं पाईं. तैश में आकर बोलीं, ‘चुनाव तो आप हरा चुके मुझे. अब यहां और क्या लेने आए हैं? जीत की बधाई मैं पहले ही दे चुकी हूं. और क्या चाहते हैं, मुझसे?

नानाजी ने किंचित मुस्कुराकर कहा, ‘महारानी जी, मुझे खुशी हुई कि आपने अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप ही प्रश्न किया. आपके इस प्रश्न ने कम से कम मेरी एक उलझन तो सुलझा दी. संकोच के मारे मैं समझ नहीं पा रहा था कि मुझे जो मांगना है, आपसे कैसे मांगूं? अब मैं निश्चिंत होकर अपनी मांग आपके समक्ष रख सकूंगा.’

महारानी विस्मित-सी उनका मुंह देखती रहीं. बोलीं कुछ नहीं.

कुछ देर की चुप्पी के बाद नानाजी ही बोले, ‘दरअसल, आपकी प्रजा ने मेरे सामने एक बड़ी ही विकट समस्या खड़ी कर दी है. उसने आपकी जगह मुझे अपना सांसद चुन लिया है और अब मेरा फर्ज है कि मैं आपकी ही तरह उसके बीच में रहकर उसके सुख-दुख में भागीदारी करूं. पर क्या बताऊं, आपके राज में न मेरे पास सिर छुपाने की कोई जगह है, न ही इतना धन कि जमीन खरीद कर उस पर चार दीवारें खड़ी करके उन पर छत डलवा सकूं. बैठा सोच रहा था कि इस मामले में कौन मेरी मदद कर सकता है तो अचानक आपका ध्यान आया और मैं भागा चला आया. महारानी हैं तो अपने बहुत से सेवकों को जगह-जमीन और घर दिए होंगे आपने. कृपापूर्वक मुझे अपना सबसे बड़ा सेवक मान लीजिए और मेरी भी मदद कर दीजिए!’

‘अजब प्रतिद्वंद्वी है यह.’ महारानी सोचने लगीं, ‘जीत का किंचित दर्प ही नहीं इसमें! खुद को सबसे बड़ा सेवक बता रहा है तो इसको कोई छोटा-मोटा नहीं, सबसे बड़ा घर ही देना चाहिए. वरना राज परिवार की बड़ी हेठी होगी.’

थोड़ी देर सोचने के बाद उन्होंने एक गांव का नाम लिया और कहा, ‘उस गांव की सारी की सारी खाली जमीन आज से आपकी. जाइए, उस पर मेरे महल से भी बड़ा घर बनवा लीजिए और बनवाने में भी किसी मदद की जरूरत हो तो बताइएगा.’

नाना जी उपकृत होकर लौट आए. वे उस गांव में अपना घर तो क्या बनाते, एक नया गांव ही बसा डाला. उसका नाम रखा जयप्रभा ग्राम. जय यानी लोकनायक जयप्रकाश नारायण और प्रभा यानी उनकी जीवनसंगिनी प्रभावती. जब तक नाना जी इस दुनिया में रहे, इस गांव को अपने आदर्शों के अनुरूप ढालने में लगे रहे.

एक दिन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी जयप्रभा ग्राम में पधारे और वहां की व्यवस्था में लगे कार्यकर्ताओं ने नानाजी से कहा कि कम से कम राष्ट्रपति जी के भोजन की व्यवस्था तो सामान्य ग्रामवासियों से अलग कर देनी चाहिए, तो नाना जी ने ऐसा करने से स्पष्ट तौर पर इनकार कर दिया.

राष्ट्रपति को पता चला तो उन्होंने खुशी-खुशी आम लोगों के साथ पंगत में बैठकर दोने पत्तल में भोजन किया और कहा कि आज नाना जी के कारण उन्हें इस तरह जमीन पर बैठकर एक साथ भोजन करने का नया अनुभव प्राप्त हुआ.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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