क्या मोदी सरकार वाकई उर्दू का भला चाहती है?

मानव संसाधन और विकास मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद ने उर्दू के प्रमोशन के लिए बॉलीवुड के कलाकारों से प्रचार करवाने की बात कही. हालांकि बजट से मालामाल परिषद पर अक्सर यह इल्ज़ाम लगता रहा है कि हाल के सालों में इसने उर्दू भाषा के विकास में कोई अहम रोल अदा नहीं किया.

/

मानव संसाधन और विकास मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद ने उर्दू के प्रमोशन के लिए बॉलीवुड के कलाकारों से प्रचार करवाने की बात कही है. हालांकि बजट से मालामाल परिषद पर अक्सर यह इल्ज़ाम लगता रहा है कि हाल के सालों में इसने उर्दू भाषा के विकास में कोई अहम रोल अदा नहीं किया.

NCPUL Logo
फोटो साभार: urducouncil.nic.in

मानव संसाधन और विकास मंत्रालय (एमएचआरडी) के अंतर्गत राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद (एनसीपीयूएल) उर्दू के प्रचार-प्रसार और विकास को समर्पित संस्थान है. पिछले दिनों इसको लेकर एक ख़बर आई कि निजी संस्थानों, ख़ास तौर पर रेख़्ता– जो जश्न-ए-रेख़्ता जैसे आयोजन करता है और उर्दू के कथित प्रमोशन के लिए साहित्यकारों के अलावा सिनेमा के छोटे-बड़े चेहरों को लाज़मी तौर पर जमा करता, उसी की तर्ज़ पर उर्दू के प्रसार के लिए अब एनसीपीयूएल भी सिनेमा के बड़े चेहरों की मदद लेगा.

ख़बर सोशल मीडिया पर आग की तरह फैली और जिन्होंने ने कभी एनसीपीयूएल का नाम भी नहीं सुना वो भी नाराज़ दिखे. ख़ैर, इस ख़बर में यह भी बताया गया कि अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए एनसीपीयूएल शाहरुख़ ख़ान, सलमान ख़ान और कैटरीना कैफ़ से राब्ते में है और इन लोगों से उर्दू को इंडॉर्स (endorse) करवाने का इरादा रखता है.

यूं तो इस ख़बर में ख़बर जैसी कोई बात नहीं थी, लेकिन सोशल मीडिया पर भारत सरकार की मंशा पर ज़रूरी नहीं ग़ैरज़रूरी सवाल खड़े किए गए. आलोचना और मिली-जुली प्रतिक्रियाओं में कटरीना के हिंदी बोलने को भी मज़ाक़ का विषय बनाया गया और इसी तरह की कई हास्यास्पद बातें इन स्टार्स के बारे में कही गईं.

हालांकि ख़बर में एनसीपीयूएल ने अपनी मंशा साफ़ कर दी थी कि वो इन स्टार्स से कौन सा काम लेना चाहते हैं. एनसीपीयूएल का स्पष्ट कहना है कि वो इन स्टार्स से कुछ लाइनें उर्दू में बोलने के लिए कहेंगे और उनके वीडियोज़ को अपने इवेंट्स में इस्‍तेमाल करेंगे.

ग़ौरतलब है कि एनसीपीयूएल ने रेख़्ता जैसे प्राइवेट प्लेयर्स से प्रतिस्पर्धा मिलने की बात स्वीकारी है. उन्होंने यह भी साफ़ किया कि ये क़दम इसलिए उठा रहे हैं कि युवा वर्ग उर्दू की तरफ़ आकर्षित हो.

इन बातों पर विचार करें तो असल मुद्दे से ध्यान भटकाने की चालाकी में एनसीपीयूएल स्टार्स और फेस्टिवल का हव्वा खड़ा करने में इस तरह सफल रहा कि उसको इस बहाने ठीक-ठाक मीडिया कवरेज मिल गया.

ये और बात है कि तलत अज़ीज़ जैसे प्रतिष्ठित आर्टिस्ट की ग़ज़ल गायकी के सहारे भी उनका वर्ल्ड उर्दू कांफ्रेंस उर्दू मीडिया के अलावा सुर्ख़ियां नहीं बटोर पाता, हालांकि उर्दू मीडिया भी अक्सर इनके विवादों को ही रेखांकित करता है.

दिलचस्प बात ये है कि ऑडियंस की भारी कमी को देखते हुए मुल्क भर की यूनिवर्सिटी से रिसर्च स्कॉलरर्स (क़रीब 80 छात्र) को सिर्फ़ सुनने के लिए बुलाने की परंपरा के बाद भी यहां रेख़्ता वाली रौनक़ नहीं बन पा रही.

ऐसे में ज़्यादा समझदारी का परिचय न देते हुए एनसीपीयूएल ने वही करने की कोशिश की जो निजी संस्थान बड़े पैमाने पर और खुल कर करते हैं. ऐसी हालत में सिनेमा स्टार्स के ज़रिए उर्दू के प्रसार की छोटी सी कोशिश की आलोचना का कोई मतलब नहीं है.

दरअसल बड़ा सवाल ये नहीं है कि किस से काम लिया जा रहा है, उनको उर्दू आती है या नहीं. सवाल तो ये है कि भाषा के विकास को लेकर एनसीपीयूएल के पास कोई नज़रिया है भी या नहीं? गोया मुद्दा ये है ही नहीं कि एनसीपीयूएल क्या कर रहा है? मुद्दा तो ये है कि एनसीपीयूएल है क्या? इसका काम क्या है? और इसने अब तक क्या किया है?

जानने वाली बात ये है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय के तहत स्वायत्त संगठन के तौर पर इसका काम उर्दू के प्रमोशन और प्रचार-प्रसार के लिए उर्दू को साइंस और टेक्नोलॉजी से जोड़ना है, भारत सरकार को उर्दू के विकास के लिए सलाह देना है, उर्दू की शिक्षा और शैक्षणिक संस्थानों की मदद करना है, उर्दू कोर्सेज चलाना है, उर्दू की किताबें तैयार करना है, अनुवाद और आधुनिक उपकरणों के माध्यमों जैसे कंप्यूटर आदि से उर्दू का प्रसार करना है. और यही इसका बुनियादी काम और उद्देश्य है बस.

भारत सरकार इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ठीक-ठाक बजट मुहैया कराती आई है. एक रिपोर्ट की मानें तो मोदी सरकार ने इसके लिए ख़ज़ाना खोला हुआ है. बताया जा रहा है कि 2014-19 के लिए सरकार ने इसको 332.76 करोड़ का बजट दिया था. जबकि, यूपीए-2 में इसका बजट ‘मात्र’ 176.48 करोड़ था.

इसके बावजूद बजट से मालामाल एनसीपीयूएल पर सबसे बड़ा इल्ज़ाम ये है कि हाल के वर्षों में इसने उर्दू भाषा के विकास में कोई अहम रोल अदा नहीं किया, हां उर्दू साहित्य के नाम पर सरगर्मियां हमेशा से जारी हैं.

लेकिन इस मामले में भी साहित्यकारों की शिकायतें हैं और किसी हद तक आरोप भी है कि एनसीपीयूएल ने साहित्य के नाम पर ख़ूब सारी ऊटपटांग किताबों को छपने के लिए सहयोग राशि दी है और ढेर सारी वाहियात किताबों की ख़रीदारी को बढ़ावा दिया है.

साहित्य से अलग भाषा के विकास के नाम पर सालों से कोई अच्छी किताब छापी नहीं गई. उर्दू यहां भी और संस्थानों की तरह साहित्य और उसकी सियासत का नाम है. साहित्यकारों के बीच ये चर्चा भी है कि भाषा के उत्थान को लेकर इसके पास कोई समझ ही नहीं है, इसलिए ये आए दिन घिसे पिटे विषयों पर सेमिनार और सेमिनार के नाम पर आर्थिक मदद देने के अलावा वर्ल्ड उर्दू कांफ्रेंस को ही समुचित समझते हैं.

कुछ लोगों का इल्ज़ाम ये भी है कि पुरानी और नायाब किताबों की रीप्रिंटिंग में भी इनकी बहुत दिलचस्पी नहीं है. इन आरोपों के बीच कई बार इस बात की भी ज़रूरत महसूस की गई है कि एनसीपीयूएल के उद्देश्यों की नए सिरे से विवेचना की जाए.

हाल के दिनों में पूर्व आईएएस अधिकारी और उर्दू के प्रतिष्ठित शायर प्रीतपाल सिंह बेताब ने कई बार ये इल्ज़ाम भी लगाया कि एनसीपीयूएल को पूरी तरह से मुस्लिम संस्थान बना दिया गया है और इसके लिए वो भाजपा और आएसएस की उर्दू दुश्मनी को वजह बताते हैं.

उनके आरोप को किसी हद तक इस बात से बल मिलता है कि इस वक़्त इस संस्थान में ग़ैर मुस्लिमों की नुमाइंदगी नहीं के बराबर है. इन बातों से इतर ये सही है कि एनसीपीयूएल साहित्य के विकास के नाम पर भी कोई उल्लेखनीय काम नहीं कर पा रहा.

सालों से इसकी जो पत्रिकाएं निकलतीं हैं उसमें भी साहित्य ठीक-ठाक है, भाषा और आधुनिक माध्यमों को बस एक कॉलम के तौर पर ही जगह मिलती है. ऐसे में ये भी एक आरोप है कि जहां ये संस्था कुछ साहित्यकारों की जेब भरता है वहीं यूनिवर्सिटी के लोगों को भी अलग-अलग तरीक़े से फायदा पहुंचाता है. कुल मिला कर इससे अवाम को सिर्फ़ इतना फायदा है कि वो कुछ कोर्सेज के लिए यहां से प्रमाणपत्र हासिल कर सकते हैं.

ऐसे में ज़रूरी है कि भारत सरकार की अपनी चिंता होगी कि कैसे इससे सियासी तौर पर लाभान्वित हुआ जा सकता है. ज़ाहिर है इस मामले में सरकार को बैठे बिठाए जश्न-ए-रेख़्ता जैसा एक उदाहरण मिल गया, जिसके पास उर्दू के नाम पर एक पूरा बाज़ार है.

ख़ैर इन नामों में सलमान ख़ान की जहां तक बात है तो शायद इसमें मोदी सरकार के प्रेम को इस तरह देखा जा सकता है कि मोदी जी की आधिकारिक उर्दू वेबसाइट का विमोचन भी सलमान ख़ान के पिता सलीम ख़ान ने किया था.

16 अप्रैल 2014 को शुरू हुई इस वेबसाइट पर ये जानकारी मौजूद है और ये भी बताया गया है कि प्रधानमंत्री ने इसके लिए सलीम ख़ान का ख़ास तौर पर शुक्रिया अदा किया था.

सलीम ख़ान ने उस वक़्त कहा था, ‘मुझे भी उर्दू पसंद है. मैंने ही मोदीजी को वेबसाइट की सलाह दी थी और यह मुस्लिम वोटरों को आकर्षित करने के लिए भाजपा की रणनीति नहीं है.’

मोदीजी मुसलमानों के लिए सलीम साहब की सलाह पर अलग से उर्दू में वेबसाइट बना सकते हैं, उर्दू और मुसलमान को जोड़ कर देख सकते हैं तो मुस्लिम वोटरों को आकर्षित करने के लिए ‘भाजपा की रणनीति’ नहीं होने के बावजूद सलमान खान एनसीपीयूएल के प्लेटफार्म से दो बोल बोल भी जाएं तो कौन सी आफ़त आ जाएगी.

यूं भी मोदीजी का उर्दू प्रेम बहुत पुराना है कि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और अब प्रधानमंत्री के नाम से उर्दू ट्विटर हैंडल भी मौजूद है. ये कितना ऑफीशियल है, वो एक सवाल हो सकता है, लेकिन मोदीजी ख़ुद इस हैंडल को फॉलो करते हैं.

अब रही बात शाहरुख़ की तो शायद ये संयोग नहीं है कि एक वक़्त में मोदीजी के चहेते और अब बाग़ी हो चुके बिजनेसमैन ज़फर सरेशवाला के मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी का चांसलर बनते ही शाहरुख़ को डॉक्टरेट की मानद उपाधि दी गई थी.

उस वक़्त शाहरुख़ ने कहा था, ‘मेरे वालिद बहुत ख़ूबसूरत उर्दू और पर्शियन बोलते थे. और मुझे जो कुछ भी इल्म है बातचीत का सलीक़ा है वो उन्हीं की वजह से है. उन्होंने ये भी कहा था कि मैं अपने काम के ज़रिए उर्दू और दूसरी ज़बानों के लिए जो कर सकता हूं वो करता रहूंगा.

ऐसे में ये तो सवाल भी नहीं है कि शाहरुख़ को उर्दू आती है या नहीं क्योंकि भारत सरकार की अपनी उर्दू यूनिवर्सिटी से न सिर्फ़ उनको उपाधि मिल चुकी है बल्कि वो इशारा भी दे चुके हैं कि भारतीय भाषाओं के उत्थान के लिए कोशिश करते रहेंगे.

और ये भी कोई संयोग नहीं है कि जैसे पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने मतदाताओं में जागरूकता के लिए सोशल मीडिया पर बहुत से स्टार्स और दूसरे लोगों को अपनी ट्विटर मुहिम में शामिल किया था वैसे ही उर्दू के प्रसार के लिए भारत सरकार की ये संस्था इन स्टार्स से राब्ते में है जो शायद मतदाताओं को अप्रत्यक्ष रूप से कोई ‘बड़ा पैग़ाम’ भी दे दे.

मुझे इस बात से इनकार नहीं कि एनसीपीयूएल का ये क़दम राजनीति से प्रेरित हो, लेकिन इसके नाम पर हम उन लोगों का मज़ाक नहीं बना सकते जो किसी न किसी तरह से भारतीय भाषाओं के लिए काम कर रहे हैं.

और ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने पहले स्टार्स नहीं बुलाए, एक ज़माने में फ़ारूक़ शेख़, मुज़फ़्फ़र अली जैसे मशहूर नाम उनके कार्यक्रमों का हिस्सा हुआ करते थे, लेकिन उनके होने से एनसीपीयूएल के उर्दू को अवाम से जोड़ने के मक़सद को कोई कामयाबी मिली नहीं दिखी.

इसलिए एनसीपीयूएल का ये क़दम सियासी हो न हो इन स्टार्स से काम लेने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन ये विडंबना ही है कि उर्दू के लिए इतनी बड़ी संस्था है लेकिन सरकार के पास न नीयत है न नियति.

किसी से प्रतिस्पर्धा करने के बजाय संस्था को अपनी नज़र के साथ आना होगा तभी ‘विकास’ सही मानों में विकास होगा. और शायद तब सरकार ये भी पैग़ाम दे पाए कि उर्दू दहशतगर्दों की ज़बान नहीं है और उर्दू के नाम पर कांग्रेस की तरह मुसलमानों के तुष्टीकरण की सियासत भी ज़रूरी नहीं है.

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq