चुनावी मौसम में मज़दूर राजनीतिक विमर्श से ग़ायब क्यों हैं?

किसी भी राष्ट्र के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा जहां करोड़ों मज़दूरों की दुर्दशा राष्ट्रीय चेतना और राजनीतिक विमर्श का हिस्सा ही नहीं है.

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Village women work at a dry pond under the Mahatma Gandhi National Rural Employment Guarantee Act (MNREGA) in a village on the outskirts of Kolkata, 11 February 2014. (Photo: Reuters)

किसी भी राष्ट्र के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा जहां करोड़ों मज़दूरों की दुर्दशा राष्ट्रीय चेतना और राजनीतिक विमर्श का हिस्सा ही नहीं है.

Village women work at a dry pond under the Mahatma Gandhi National Rural Employment Guarantee Act (MNREGA) in a village on the outskirts of Kolkata, 11 February 2014. (Photo: Reuters)
(फोटो: रॉयटर्स)

चुनावी मौसम का रंग पूरी तरह से चढ़ गया है. सारी पार्टियां जनता से लोकलुभावन वायदे और घोषणाएं कर रही हैं. चुनावी समर वायदों और नारों से पटा पड़ा है. पुलवामा और राष्ट्रवाद के बीच रोज़ीरोटी का सवाल भी चुनावी बहसों के केंद्र में आ गया है.

भाजपा के राष्ट्रवाद के सामने कांग्रेस ने न्याय (न्यूनतम आय योजना) का दांव खेला है. इस योजना के तहत साल में कम से कम 72,000 रुपये की न्यूनतम आय 20 प्रतिशत गरीब परिवारों के लिए सुनिश्चित करने की घोषणा की है.

कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीएम) ने भी अपने चुनावी घोषणा पत्र में न्यूनतम आय 18,000 रुपये प्रतिमाह तक करने की घोषणा की है लेकिन सवाल ये है कि जिस बंगाल पर कम्युनिस्टों का 40 साल एकछत्र राज रहा वहां अब भी न्यूनतम आय मात्र 245 रुपये क्यों है? जो महीने का सात हज़ार भी नहीं होता है. केरल में कम्युनिस्टों की हुकूमत है वहां न्यूनतम मज़दूरी से आधी दरों पर मनरेगा में मज़दूरी क्यों दी जाती है?

यही सवाल कांग्रेस पर भी वाज़िब है आख़िर उसने अपने हुकूमत में गरीबों के साथ न्याय क्यों नहीं किया. न्यूनतम आय को सुनिश्चत क्यों नहीं किया? जो उसे अब न्याय करने की ज़रूरत पड़ रही है.

भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में किसानों की आय वर्ष 2022 तक दोगुनी करने का संकल्प लिया है और हर एक को पक्का घर देने का वायदा भी किया है. गौरतलब ये है कि जो सरकार न्यूनतम मजदूरी नहीं दे पाई वह पक्का घर कहां से देगी.

घोषणा पत्र में आगे दर्ज है कि हर भारतीय का बैंक में एकाउंट होगा लेकिन बेरोज़गार नौजवान और बदहाल मज़दूर इस एकाउंट का करेंगे क्या? भाजपा के वायदे और ज़मीनी हक़ीक़त के बीच में बहुत चौड़ी खाई है.

फिलहाल पार्टी चुनावी अभियान में राष्ट्रवाद के एजेंडे पर ही फोकस कर रही है. किसी भी पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में मज़दूर को उचित मज़दूरी का वायदा नहीं किया है. मज़दूर इस चुनावी विमर्श से गायब है.

मज़दूर जो खेत-खलियानों, कारखानों, घरों में काम करता है वह अब भी चुनावी मुद्दों में हाशिये पर ही दिख रहा है. मज़दूरों की दुर्दशा चुनाव की गरमागर्म बहसों में नदारद हैं जैसे मज़दूरों को लेकर सरकार का कोई सरोकार ही नहीं है.

सरकार की महत्वाकांक्षी योजनाओं में से एक महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना (मनरेगा) में मज़दूरी और मज़दूरों की आर्थिक स्थिति पर राजनीतिक गलियारों में कोई विमर्श नहीं हो रहा है.

कांग्रेस ने न्याय योजना के साथ मनरेगा में 100 दिन की जगह 150 दिन तक रोज़गार देने का वायदा अपने घोषणा पत्र में ज़रूर किया है लेकिन यथार्थ के धरातल पर ये घोषणाएं टिक पाएंगी, ये बड़ा सवाल है.

ज़मीनी सच्चाई कुछ और ही हक़ीक़त बयां करती हैं. बीते एक अप्रैल को मनरेगा को पूरे देश में लागू किए हुए 11 साल गुजर चुके हैं, लेकिन मनरेगा में काम करने वाले मज़दूर आज भी बदहाल हैं. न्यूनतम आय उनके लिए सुनहरे सपने जैसा है.

आज भी 33 राज्यों और केंद्र शाषित प्रदेशों में मनरेगा में मज़दूरी ग्रामीण न्यूनतम मज़दूरी से बहुत कम है कई राज्यों में ये आधा से थोड़ा ज़्यादा है. अभी हाल ही में ग्रामीण विकास मंत्रालय ने मनरेगा में प्रतिदिन मज़दूरी को बढ़ाने के लिए एक अधिसूचना भी जारी की है जिसे चुनाव आयोग की भी मंज़ूरी मिल गयी है लेकिन इसकी दरें एक से दो फीसदी बढ़कर ही सिमट कर रह गई हैं.

बिहार में पहले मनरेगा मज़दूरी 168 रुपये प्रतिदिन थी, वह बढ़कर मात्र 171 रुपये ही प्रतिदिन हो पाई है. जहां महंगाई बेतहाशा बढ़ रही है, वहीं मज़दूरों की कमाई सिर्फ 2 से 3 रुपये एक साल में बढ़ती है, लेकिन इस ओर किसी का ध्यान नहीं है.

बिहार में आज न्यूनतम मज़दूरी 268 रुपये है और मनरेगा की बढ़ी हुई मज़दूरी न्यूनतम मज़दूरी से अब भी 97 रुपये कम है. मनरेगा मज़दूरी न्यूनतम मजदूरी का केवल 63 प्रतिशत ही है.

ये वही बिहार है जो समाजवाद की पहली प्रयोगशाला बना, जिसका सिद्वांत था कि वेतन में अधिक असमानता नहीं होनी चाहिए लेकिन बिहार ने मज़दूरों को कभी उसका सही मेहनाताना नहीं दिया.

मज़दूरों के श्रम का शोषण सबसे अधिक किया गया और ये बादस्तूर जारी है. आज भी मनरेगा में सबसे कम मज़दूरी बिहार और झारखंड में ही दी जाती है. मज़दूरों को उनका हक़ दिए बिना ही सामाजिक न्याय का दावा किया जा रहा है.

मनरेगा में देश में औसत मज़दूरी केवल 210 रुपये ही है जो आज की महंगाई के हिसाब से मुनासिब नहीं है. नगालैंड एकमात्र राज्य है जहां मनरेगा में मिलने वाली मज़दूरी न्यूनतम मज़दूरी से अधिक है.

सबसे अधिक मज़दूरी हरियाणा में 284 रुपये है लेकिन ये भी न्यूनतम मज़दूरी से 55 रुपये कम है. वहीं केरल में न्यूनतम मज़दूरी 600 रुपये है लेकिन मनरेगा में केवल 271 रुपये प्रतिदिन ही मजदूरी है जो कि न्यूनतम मज़दूरी का आधा भी नहीं है.

देश के सबसे विकसित कहे जाने वाले गुजरात में भी मनरेगा की मज़दूरी केवल 199 रुपये है, जो कि ग्राम पंचायत में अधिकृत न्यूनतम मज़दूरी 312 रुपये से बहुत कम है. दिलचस्प बात ये है कि ये राज्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कर्मभूमि भी है.

सरकार गुजरात में मज़दूर को न्यूनतम मज़दूरी भी नहीं दे रही है. फिर भी ये राज्य देश में विकास का मॉडल है जहां मजदूरों के शोषण की अधिकारिक पुष्टि ख़ुद सरकारी आंकड़े कर रहें हैं.

MNREGA Data

आख़िर मज़दूर न्यूनतम मज़दूरी से वंचित क्यों हैं? सरकार ख़ुद अपने बनाए हुए क़ानून को नहीं लागू कर रही है. ऐसे में जो मज़दूर असंगठित या निजी क्षेत्रों में काम कर रहे हैं उनका शोषण तो स्वाभाविक है.

गौरतलब है कि भारत में अलग-अलग तरह की आय निर्धारित की गई है न्यूनतम आय (मिनिमम वेज), मामूली आय (नॉमिनल वेज) और उचित आय (फेयर वेज). न्यूनतम आय में ऐसी आय को परिभाषित किया गया है, जो किसी भी व्यक्ति को जीवित रखने के लिए दी जाने वाली सबसे कम आय है. कई मज़दूर नेताओं ने न्यूनतम आय के मानकों को ही सही नहीं माना है और इसमें कई ख़ामियों को गिनाया है.

हिंद मज़दूर सभा के महासचिव और ट्रेड यूनियन लीडर हरभजन सिंह सिद्धू कहते हैं, ‘भारत में राष्ट्रीय न्यूनतम आय जैसा कोई क़ानून या प्रावधान नहीं है. हर राज्य अपने हिसाब से न्यूनतम आय तय करता है. ईमानदारी से सही पैमाने से न्यूनतम आय को केंद्र सरकार तय करे तो यह कम से कम 28,000 रुपये प्रतिमाह होना चाहिए.’

सिद्धू कहते हैं, ‘सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मज़दूर की न्यूनतम आय को 25 प्रतिशत बढ़ाकर तय करनी चाहिए क्योंकि मज़दूर का परिवार होता है, ज़िम्मेदारियां होती हैं लेकिन सरकार ने कभी भी मज़दूर को उचित मज़दूरी के लायक नहीं समझा. पिछले पांच सालों में सरकार का रवैया मज़दूरों के प्रति पहले की सरकारों से भी ज़्यादा उदासीन रहा है. इसके अलावा ऐसे क़ाननू बनाए और संशोधन किए गए जो मज़दूरों के हित के ख़िलाफ़ हैं.’

न्यूनतम मज़दूरी के अलावा मनरेगा में मज़दूरी समय पर नहीं मिलना, रोज़गार मिलने के दिनों में लगातार कमी होना, जैसी चुनौतियां भी हैं, जिससे आम मज़दूर जूझ रहा है.

कई अध्ययनों की रिपोर्ट बताती है कि मनरेगा में साल में औसतन 50 दिन का भी रोज़गार नहीं मिल पाता है. बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में ये आंकड़े और भी कम है.

देश में मज़दूरों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है. पिछले कुछ दशकों में गरीब और अमीर के बीच की खाई और गहरी हुई है. भारत में संसाधन कुछ हाथों तक सीमित होता जा रहा है और बड़ी आबादी रोज़मर्रा की बुनियादी चीजों से भी महरूम है. हाल के वर्षों में आए कृषि संकट ने इसे और ज़्यादा भयावह बना दिया है.

मज़दूर आज ख़ुद भूखे हैं. उसके शोषण की अधिकारिक पुष्टि ख़ुद सरकार कर रही है. जहां तय की गई न्यूनतम मज़दूरी को सरकार ख़ुद नहीं मान रही है. किसी भी राष्ट्र के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा जहां करोड़ों मज़दूरों की दुर्दशा राष्ट्रीय चेतना और राजनीतिक विमर्श का हिस्सा ही नहीं है.

(लेखक जामिया मिलिया इस्लामिया में शोधार्थी हैं.)