मध्य प्रदेश: तीसरे चरण में जिन सीटों पर चुनाव हो रहे हैं क्या कांग्रेस वहां अपना प्रदर्शन सुधार पाएगी

विशेष रिपोर्ट: मध्य प्रदेश में तीसरे चरण के लिए 8 सीटों पर होने वाले मतदान में चंबल क्षेत्र की चार (ग्वालियर, गुना, मुरैना, भिंड), मध्य क्षेत्र की तीन (भोपाल, विदिशा, राजगढ़) और बुंदेलखंड की एक (सागर) सीट शामिल हैं. गुना को छोड़कर बाकी की सात सीटों पर भाजपा का क़ब्ज़ा है.

Bhopal: Congress Madhya Pradesh President Kamal Nath and AICC General Secretary Digvijay Singh arrive to chair Madhya Pradesh Congress Coordination Committee meeting at PCC Headquarters, in Bhopal, on Thursday. (PTI Photo) (PTI5_24_2018_000029B)
Bhopal: Congress Madhya Pradesh President Kamal Nath and AICC General Secretary Digvijay Singh arrive to chair Madhya Pradesh Congress Coordination Committee meeting at PCC Headquarters, in Bhopal, on Thursday. (PTI Photo) (PTI5_24_2018_000029B)

विशेष रिपोर्ट: मध्य प्रदेश में तीसरे चरण के लिए 8 सीटों पर होने वाले मतदान में चंबल क्षेत्र की चार (ग्वालियर, गुना, मुरैना, भिंड), मध्य क्षेत्र की तीन (भोपाल, विदिशा, राजगढ़) और बुंदेलखंड की एक (सागर) सीट शामिल हैं. गुना को छोड़कर बाकी की सात सीटों पर भाजपा का क़ब्ज़ा है.

Bhopal: Congress Madhya Pradesh President Kamal Nath and AICC General Secretary Digvijay Singh arrive to chair Madhya Pradesh Congress Coordination Committee meeting at PCC Headquarters, in Bhopal, on Thursday. (PTI Photo) (PTI5_24_2018_000029B)
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ के साथ भोपाल से भाजपा के उम्मीदवार दिग्विजय सिंह. (फोटो: पीटीआई)

लोकसभा चुनावों के पांच चरण समाप्त हो चुके हैं जबकि मध्य प्रदेश में दो चरणों में 13 सीटों पर मतदान हो चुका है. देश में छठे चरण का और मध्य प्रदेश में तीसरे चरण का मतदान 12 मई को है.

राज्य की 8 सीटों पर होने वाले मतदान में चंबल क्षेत्र की चार (ग्वालियर, गुना, मुरैना, भिंड), मध्य क्षेत्र की तीन (भोपाल, विदिशा, राजगढ़) और बुंदेलखंड की एक (सागर) सीट शामिल हैं.

प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और मालेगांव बम धमाके की आरोपी रहीं प्रज्ञा सिंह ठाकुर के बीच के बहुचर्चित मुकाबले में भी मतदान इसी चरण में है.

इसके अलावा दिग्गज कांग्रेसी नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया, केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और 2 अप्रैल 2018 के ‘भारत बंद’ में हुई हिंसा का भंडाफोड़ कर सुर्खियों में आए देवाशीष जरारिया की किस्मत भी इसी दिन ईवीएम में लॉक होगी.

वर्तमान में इन 8 में से 7 सीटों पर भाजपा काबिज है. केवल गुना सीट है जिस पर कांग्रेस के ज्योतिरादित्य सिंधिया सांसद हैं. यह सीट भी किसी पार्टी से अधिक ग्वालियर रियासत के सिंधिया घराने की मानी जाती है.

हालांकि 2014 की तरह इस बार भाजपा के लिए राह इतनी आसान नहीं है. हालिया संपन्न विधानसभा चुनावों में उसे इन सीटों पर भारी नुकसान उठाना पड़ा है.

2014 में जीती सात में से चार सीटों पर पार्टी कांग्रेस से पिछड़ गई है. सिंधिया की गुना सीट पर जरूर उसने बढ़त बनाई है. इस तरह मुकाबला इन आठ सीटों पर 4-4 की बराबरी पर आ गया है. भोपाल, विदिशा, गुना और सागर भाजपा के हिस्से में तो राजगढ़, ग्वालियर, मुरैना और भिंड में कांग्रेस को बढ़त दिख रही है.

जिन चार सीटों पर भाजपा बढ़त में दिख रही है उन पर भी 2014 की अपेक्षा बढ़त का अंतर आसमान से जमीन पर आ गया है.

इसका असर भाजपा के टिकट आवंटन पर भी दिखा है और 2014 में जीतीं 7 सीटों में से 6 पर चेहरे बदल दिए हैं. जबकि 5 सांसदों के टिकट काटे हैं.

ग्वालियर सांसद नरेंद्र सिंह तोमर को इस बार सीट बदलकर मुरैना से उतारा गया है. हारी हुई गुना सीट पर भी इस बार नया चेहरा दिया गया है. केवल राजगढ़ सीट से सांसद रोडमल नागर को भाजपा ने दोहराया है. इस तरह देखें तो भाजपा ने इन 8 सीटों पर 7 चेहरे बदले हैं.

यहां तक कि उन भिंड, भोपाल, विदिशा, सागर और मुरैना सीट पर भी चेहरे बदले हैं जो दशकों से भाजपा का मजबूत गढ़ हैं. भिंड, भोपाल और विदिशा में भाजपा 1989 से लगातार जीतती आ रही है, वहीं सागर और मुरैना में 1996 से उसकी जीत का क्रम जारी है.

भोपाल से भाजपा की उम्मीदवार प्रज्ञा ठाकुर और कांग्रेस के उम्मीदवार दिग्विजय सिंह. (फोटो: पीटीआई)
भोपाल से भाजपा की उम्मीदवार प्रज्ञा ठाकुर और कांग्रेस के उम्मीदवार दिग्विजय सिंह. (फोटो: पीटीआई)

इस तरह देखें तो इन 8 में से 5 सीटें भाजपा की पारंपरिक सीटें बन गई हैं. ग्वालियर सीट भी भाजपा 2007 के उपचुनाव से लगातार तीन बार जीत चुकी है.

जैसा ऊपर कहा गया है कि गुना सीट किसी पार्टी की नहीं, सिंधिया घराने की है इसलिए वर्तमान में यह कांग्रेस के पास जरूर है लेकिन जब इस सीट पर ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया चुनाव लड़ती थीं तो यह भाजपा के पास रहती थी.

राजगढ़ सीट के बारे में भी यही थ्योरी लागू होती है क्योंकि इस सीट पर भी कांग्रेस से अधिक दिग्विजय सिंह का प्रभाव दिखता है. 1984 से अब तक हुए 10 चुनावों में 2 बार दिग्विजय सिंह और 5 बार उनके भाई लक्ष्मण सिंह विजेता रहे हैं. 4 बार लक्ष्मण कांग्रेस के टिकट पर तो एक बार भाजपा के टिकट पर भी जीते हैं.

तो कुल मिलाकर इन सीटों पर कांग्रेस के लिए खोने से अधिक पाने के लिए बहुत कुछ है. तीन लोकसभा चुनावों के बाद प्रदेश में उसकी सरकार है जिससे पार्टी और कार्यकर्ताओं का विश्वास भी चरम पर है.

बहरहाल, कांग्रेस ने भी इन सीटों पर अपने चेहरे बदले हैं. 2014 के 6 चेहरों को इस बार नहीं दोहराया है. हालांकि इसका एक कारण यह भी है कि उन छह में से चार तो विधानसभा चुनाव जीतकर राज्य सरकार में कैबिनेट मंत्री बन गए हैं.

भाजपा के प्रभाव वाली सीटों से शुरुआत करें तो सागर 1996 से भाजपा के पास है. दोनों ही दलों ने इस बार नए चेहरों पर दांव खेला है.

भाजपा से राजबहादुर सिंह तो कांग्रेस से प्रभु सिंह ठाकुर मैदान में हैं. राजबहादुर चार बार पार्षद रहे हैं तो प्रभु सिंह दिग्विजय सरकार में विधायक और मंत्री.

भाजपा ने यहां से सांसद लक्ष्मीनारायण यादव का टिकट काटा है. सांसद समर्थकों ने इसके खिलाफ मोर्चा खोलते हुए राजबहादुर का पुतला तक जला दिया. उनके यादव समर्थकों ने कांग्रेस का साथ देने की घोषणा की है.

वहीं, सांसद लक्ष्मीनारायण यादव ने प्रेस से बातचीत में पार्टी पर प्रत्याशी चयन में मापदंड न अपनाए जाने के भी आरोप लगाए और कहा कि सर्वे रिपोर्ट को अनदेखा कर उनका टिकट काटा गया है, वे पार्टी के लिए प्रचार नहीं करेंगे.

भाजपा की इस सुरक्षित सीट पर कांग्रेस के लिए यही राहत की बात है. वरना विधानसभा चुनावों में सरकार बनाने के बावजूद इस सीट पर वह 79544 मतों से पिछड़ गई. क्षेत्र की 8 में से 7 विधानसभा सीटों पर उसकी हार हुई है.

कुछ ऐसे ही हालात विदिशा सीट के हैं. भाजपा ने 2018 के विधानसभा चुनावों में यहां भी 103157 मतों की बढ़त कायम रखी है. 8 में से 6 विधानसभा सीटों पर उसे जीत मिली.

हालांकि 2014 में भाजपा के लिए सुषमा स्वराज ने यह सीट 410698 मतों के बड़े अंतर से जीती थी. 2013 के विधानसभा चुनावों में उसे 164748 मतों की बढ़त थी. इसलिए कह सकते हैं कि उसकी बढ़त का अंतर पिछली बार से कम तो हुआ है लेकिन जीतने की स्थिति में वह अभी भी बनी हुई है.

हालांकि भाजपा से इस बार सुषमा स्वराज उम्मीदवार नहीं हैं. पार्टी ने पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के करीबी रमाकांत भार्गव को टिकट दिया है.

इस सीट पर टिकट के लिए काफी घमासान मचा था. शिवराज अपनी पत्नी साधना सिंह के लिए टिकट चाहते थे लेकिन स्थानीय भाजपा नेता इसके खिलाफ थे. काफी मशक्कत के बाद वे रमाकांत भार्गव को टिकट दिलाने में सफल रहे.

पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ विदिशा से भाजपा प्रत्याशी रमाकांत भार्गव.(फोटो साभार: फेसबुक)
पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ विदिशा से भाजपा प्रत्याशी रमाकांत भार्गव.(फोटो साभार: फेसबुक)

कांग्रेस ने यहां से हाल ही में विधानसभा चुनाव हारे पूर्व विधायक शैलेंद्र पटेल को उतारा है. शैलेंद्र 2013 में इछावर से विधायक चुने गए थे. कांग्रेस ने जातिगत समीकरण बैठाते हुए टिकट दिया है. वे ओबीसी समुदाय से हैं और क्षेत्र में करीब 40 प्रतिशत ओबीसी मतदाता हैं.

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, शिवराज सिंह चौहान और सुषमा स्वराज जैसे चेहरों को संसद में पहुंचाने वाली इस हाई प्रोफाइल सीट पर भाजपा का एकदम नया चेहरा होने से भी कांग्रेस को उम्मीदें हैं. 1989 से विदिशा में भाजपा अपराजित है.

वहीं, 1989 से भाजपा के कब्जे वाली भोपाल पर देश भर की निगाहें हैं. यहां कांग्रेस से पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और मालेगांव बम धमाके की आरोपी प्रज्ञा सिंह ठाकुर आमने-सामने हैं. तीन दशक से अधिक समय से पराजय झेल रही कांग्रेस ने इस बार दिग्विजय सिंह पर दांव खेला है.

हालांकि दिग्विजय अपनी पारंपरिक सीट राजगढ़ से चुनाव लड़ना चाहते थे लेकिन कमलनाथ ने उन्हें भोपाल भिजवा दिया. इसे दिग्विजय के खिलाफ कमलनाथ की साजिश कहा गया. लेकिन, दिग्विजय के आने से उनके कद का भाजपा पर दबाव पड़ा और उन्होंने सांसद आलोक संजर का टिकट काटकर आनन-फानन में प्रज्ञा ठाकुर को भाजपा जॉइन कराई और चुनाव मैदान में उतार दिया.


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2014 में भाजपा ने भोपाल में 370696 मतों से जीत दर्ज की थी. हाल के विधानसभा चुनाव में उसकी बढ़त 63517 ही रह गई है. भाजपा आठ में से केवल 5 विधानसभा जीत पाई है.

2018 के विधानसभा चुनावों की 2013 के विधानसभा चुनावों से तुलना करें तो तब आठ में से 7 सीटें भाजपा जीती थी. उसे कांग्रेस से 2,53,771 मत अधिक मिले थे. आंकड़ों में इसी बढ़त के कारण कांग्रेस एक बड़ा चेहरा उतारकर भोपाल जीतने के ख्वाब देख रही है.

1989 से ही भाजपा के कब्जे वाली एक अन्य सीट भिंड अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है. लेकिन विधानसभा चुनावों में भाजपा बुरी तरह यहां पिछड़ गई है. कांग्रेस क्षेत्र की 8 में से 5 सीटें जीतने में सफल रही है. वहीं, 94492 मतों की बढ़त उसे मिली है. 2014 के लोकसभा में 159961 मतों से जीतने वाली इस सीट पर भाजपा ने करीब ढाई लाख मतों का नुकसान उठाया है.

इसी कारण सांसद भागीरथ प्रसाद का टिकट भाजपा ने काटा है. भागीरथ प्रसाद वही हैं जो 2009 में कांग्रेस से सांसद थे और 2014 लोकसभा चुनाव के ऐन पहले भाजपा में शामिल हो गए. टिकट कटने से वे नाराज हैं और संगठन पर सवाल तक उठा चुके हैं. उनके टिकट कटने से मुरैना महापौर अशोक अर्गल को टिकट मिलने की उम्मीद थी लेकिन भाजपा ने एक नये चेहरे संध्या राय को लाकर खड़ा कर दिया.

अशोक अर्गल चार बार मुरैना और एक बार भिंड से सांसद रहे हैं. टिकट न मिलने से वे भी खफा हैं. वहीं संध्या राय का स्थानीय पार्टी कार्यकर्ताओं में भी विरोध देखा जा रहा है. संध्या राय मूल रूप से मुरैना सीट के अंतर्गत आने वाले दिमनी क्षेत्र की हैं. इसलिए उन्हें बाहरी बताया जा रहा है.

कांग्रेस भी उनके बाहरी होने को प्रचारित कर रही है. हालांकि कांग्रेस के प्रत्याशी को भी बाहरी बताया जा रहा है लेकिन पार्टी का तर्क है कि प्रत्याशी का परिवार मूल रूप से भिंड का ही रहने वाला रहा है.

कांग्रेस ने यहां से जेएनयू के छात्र रहे और 2 अप्रैल के ‘भारत बंद’ में हुई हिंसा का भंडाफोड़ करने वाले देवाशीष जररिया पर दांव खेला है. वे लोकसभा चुनाव 2019 के सबसे कम उम्र के प्रत्याशी हैं.

चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस उम्मीदवार देवाशीष जररिया. (फोटो साभार: फेसबुक)
चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस उम्मीदवार देवाशीष जररिया. (फोटो साभार: फेसबुक)

राह देवाशीष के लिए भी आसान नहीं है. कुछ ही माह पहले बसपा छोड़कर कांग्रेस में आए 28 वर्षीय देवाशीष का क्षेत्र के पुराने पार्टी कार्यकर्ता तो विरोध कर ही रहे हैं, साथ ही भाजपा उन्हे जेएनयू के कन्हैया कुमार का साथी बताकर टुकड़े-टुकड़े गैंग के सदस्य के तौर पर प्रचारित कर रही है.

वहीं, ‘भारत बंद’ से खफा सवर्ण वर्ग भी जररिया के खिलाफ प्रचार कर रहा है. गौरतलब है कि ‘भारत बंद’ के दौरान भिंड देश के सर्वाधिक हिंसाग्रस्त क्षेत्रों में शुमार था. यहां तीन लोगों की मौत हुई थी.

अपने ऊपर लग रहे आरोपों का खंडन जररिया को प्रेस कॉन्फ्रेंस करके करना पड़ रहा है. वे भाजपा पर अपने खिलाफ दुष्प्रचार का आरोप लगा रहे हैं.

मुरैना के भी भिंड जैसे ही हाल हैं. 1996 से भाजपा जीत रही है लेकिन विधानसभा चुनावों में बुरी तरह पिछड़ गई है. क्षेत्र की 8 में से 7 विधानसभा सीटें वह हारी है. 2014 में जहां मुरैना सीट 132931 मतों से वो जीती थी, विधानसभा चुनाव में 126842 मतों से पिछड़ गई है.

नतीजतन सांसद अनूप मिश्रा का टिकट काटा गया है. उनके स्थान पर नरेंद्र सिंह तोमर को लाया गया है. तोमर 2014 में ग्वालियर से सांसद चुने गये थे जबकि 2009 में वे मुरैना से पहली बार संसद में पहुंचे थे.

2014 में मुरैना में विरोध बढ़ता देख उन्होंने ग्वालियर पलायन कर लिया था. कांग्रेस ने रामनिवास रावत को टिकट दिया है. रावत हाल ही में विधानसभा चुनाव में विजयपुर सीट से हार गए थे. 2009 में भी इस सीट पर यही दोनों उम्मीदवार आमने-सामने थे.

बहरहाल, तोमर ग्वालियर में अपना विरोध बढ़ता देख मुरैना पहुंचे हैं. तोमर बाहुल्य इस इलाके में उन्हें सजातीय वोट मिलने की उम्मीद है. हालांकि, विधानसभा चुनाव में भाजपा की यहां बुरी फजीहत हुई है तब भी तोमर 2009 की तरह कुछ वैसे ही चमत्कार की उम्मीद में हैं जब विधानसभा चुनावों में पार्टी मुरैना में पचास हजार से अधिक वोटों से पिछड़ गई थी, बावजूद इसके तोमर ने लोकसभा चुनाव जीत लिया था.

क्षेत्र में बाह्मणों का भी अच्छा-खासा वर्चस्व है और टिकट कटने से अनूप मिश्रा नाराज होकर घर बैठ गए हैं. वहीं, भिंड से टिकट न मिलने पर महापौर अशोक अर्गल भी पार्टी के खिलाफ बगावती दिख रहे हैं. कहीं न कहीं इसका खामियाजा तोमर को उठाना पड़ सकता है.

चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा उम्मीदवार विवेक नारायण सेजवलकर. (फोटो साभार: फेसबुक)
चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा उम्मीदवार विवेक नारायण सेजवलकर. (फोटो साभार: फेसबुक)

बात ग्वालियर सीट की की जाए तो जैसा ऊपर बताया कि सांसद नरेंद्र सिंह तोमर ग्वालियर से मैदान छोड़कर भाग गए हैं. पार्टी ने महापौर विवेक नारायण शेजवलकर को उनका उत्तराधिकारी चुना है. शेजवलकर के पिता यहां से दो बार सांसद रह चुके थे. वहीं, कांग्रेस ने तीन बार से सांसद का चुनाव हार रहे अशोक सिंह पर फिर से दांव खेला है.


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यहां मुकाबला बराबरी का दिख रहा है. शेजवलकर शहरी क्षेत्र में तो अशोक सिंह ग्रामीण क्षेत्र में मजबूत हैं. वहीं, दोनों ही प्रत्याशी पार्टी के अंदर ही भीतरघात के शिकार हैं.

तोमर के पलायन के बाद ग्वालियर से भाजपा में पूर्व सांसद और प्रदेश सरकार में मंत्री रहीं माया सिंह का नाम भी चला, शिवपुरी से विधायक और पूर्व सांसद यशोधरा राजे भी दावेदार थीं. मुरैना से टिकट कटने पर अनूप मिश्रा ग्वालियर की ओर देख रहे थे. लेकिन आम सहमति शेजवलकर के नाम पर बनी. शेजवलकर का संघ के करीबी होना उनके काम आया.

लेकिन क्षेत्रीय नेताओं में पूर्व सांसद और प्रदेश सरकार में मंत्री रहे जयभान सिंह पवैया, नारायण सिंह कुशवाह, माया सिंह, अनूप मिश्रा सहित कई स्थानीय दिग्गज नेता शेजवलकर के प्रचार से दूरी बनाए हुए हैं.

वहीं, अशोक सिंह के साथ भी यही हाल है. सिंधिया यहां से अपनी पत्नी प्रियदर्शिनी राजे के लिए टिकट चाहते थे. इसके लिए जिला कांग्रेस की ओर से एक प्रस्ताव पास करके राहुल गांधी को भी भेजा गया था लेकिन बात नहीं बनी. उनका स्वयं का नाम भी यहां से चल रहा था.

वहीं, सिंधिया विरोधी खेमे की ओर से अशोक सिंह का नाम आगे कर दिया गया. जिसकी काट के लिए सिंधिया ने अपनी ओर से भी कुछ नाम आगे बढ़ाए. अंतत: टिकट अशोक सिंह को ही मिला.

स्थानीय जनता और पत्रकारों में कुछ समय पहले तक यह चर्चा आम थी कि अशोक सिंह को सिंधिया का समर्थन नहीं है. अशोक सिंह के खेमे के नेता तो मंच से खुलेआम सिंधिया की आलोचना करते देखे गये. हालांकि, सिंधिया का समर्थन पाने के लिए अशोक सिंह स्वयं जाकर उनसे मिले भी हैं.

सिंधिया ने अशोक सिंह के लिए ग्वालियर में सभा भी ली है. लेकिन फिर भी सिंधिया खेमे के नेता-विधायक अशोक सिंह के प्रचार से दूरी बनाए हुए हैं.

2014 लोकसभा में यह सीट भाजपा 29699 मतों से जीती थी. लेकिन हाल के विधानसभा चुनावों में ग्वालियर लोकसभा सीट पर कांग्रेस को 118468 मतों की बढ़त हासिल हुई है. यहां की 8 में से 7 विधानसभा सीटें वह जीती है.

गुना कांग्रेस या किसी पार्टी से ज्यादा सिंधिया घराने की सीट है. 1967 से सिंधिया घराना यहां से जीतता आ रहा है. राजमाता विजयाराजे सिंधिया, माधवराव सिंधिया निर्दलीय से लेकर, जनसंघ, भाजपा और कांग्रेस के टिकट पर यहां से जीतते रहे हैं. 2002 से ज्योतिरादित्य सिंधिया सांसद हैं.


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पिछले चुनाव में उन्होंने यह सीट 120792 मतों के बड़े अंतर से जीती थी. लेकिन इस बार विधानसभा चुनावों में सिंधिया को झटका लगा है. 16439 मतों से कांग्रेस पिछड़ गयी है. हालांकि क्षेत्र की 8 में से 5 सीटें कांग्रेस जरूरी जीती है. शायद यही कारण रहा कि सिंधिया ग्वालियर से चुनाव लड़ने में रुचि दिखा रहे थे.

भाजपा ने उनके सामने पेशे से डॉक्टर केपी यादव को उतारा है. वे कुछ ही समय पहले कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए हैं. गुना में वे सिंधिया के लिए ही काम करते थे. लेकिन मुंगावली उपचुनाव के टिकट के लिए उनकी अनदेखी ने उन्हें दल बदलने प्रेरित किया. उनके पिता अशोकनगर जिला कांग्रेस अध्यक्ष रहे हैं.

चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस उम्मीदवार ज्योतिरादित्य सिंधिया. (फोटो साभार: फेसबुक)
चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस उम्मीदवार ज्योतिरादित्य सिंधिया. (फोटो साभार: फेसबुक)

भाजपा ने उन्हें इस बार विधानसभा चुनाव में मुंगावली से टिकट दिया था लेकिन वो जीत नहीं सके.

भाजपा पिछले चुनावों में सिंधिया के सामने नरोत्तम मिश्रा और जयभानसिंह पवैया जैसे दिग्गज उम्मीदवार उतार चुकी है. इसलिए इस बार केपी यादव की उम्मीदवारी से क्षेत्र में चर्चा है कि कमजोर उम्मीदवार उतारकर पार्टी ने गुना में पहले ही हार मान ली है.

अंत में बात राजगढ़ सीट की. इसे भी दिग्विजय सिंह के प्रभाव वाली सीट मानी जाती है. पिछले 10 में से 7 बार दिग्विजय या उनके भाई लक्ष्मण सिंह यहां से जीते हैं. लक्ष्मण एक बार भाजपा के टिकट पर भी जीते हैं.

2014 में भाजपा ने यह सीट 228737 मतों के अंतर से जीती थी. लेकिन इस बार विधानसभा चुनावों में 109206 मतों के भारी अंतर से पिछड़ गई है. क्षेत्र की 8 में से केवल 2 सीटें ही वह जीत पाई. 337913 मतो का नुकसान उठाने वाली भाजपा ने फिर भी यहां से अपने सांसद रोडमल नागर पर फिर से भरोसा जताया है.

भरोसे के पीछे का एक कारण नागर का शिवराज सिंह चौहान का करीबी होना है. यही कारण है कि दिग्विजय के इस क्षेत्र में शिवराज नागर के समर्थन में समर्पित नजर आ रहे हैं.

कांग्रेस ने मोना सुस्तानी पर भरोसा जताया है. मोना दो बार जिला पंचायत सदस्य रही हैं और उनके ससुर गुलाब सिंह सुस्तानी दो बार राजगढ़ सीट से विधायक रहे थे.

एक स्थानीय पत्रकार बताते हैं, ‘मोना धाकड़ समाज से हैं. भाजपा के मौजूदा सांसद भी धाकड़ समाज से ही हैं. ओबीसी बहुल इस इलाके में धाकड़ों वोट बैंक सबसे मजबूत है. इसलिए मोना पर दांव खेला गया है.’

वे आगे बताते हैं, ‘वर्तमान स्थिति पर बात करें तो प्रदेश सरकार की अधूरी किसान कर्ज माफी से ग्रामीण तबके में नाराजगी है. वहीं, मतदाता रोडमल नागर से नाराज तो है लेकिन मोदी के नाम पर वोट डालने की बात कर रहा है.’

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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