फिल्म केसरी का भगवा रंग

फिल्में जितने लोगों तक पहुंचती हैं, कोई इतिहास की किताब नहीं पहुंचती. तो केसरी के बाद सारागढ़ी के युद्ध की जो रूपरेखा इस फिल्म दिखाई गई है, वही सार्वजनिक कल्पना में इतिहास का स्थान ले लेगी.

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फिल्में जितने लोगों तक पहुंचती हैं, कोई इतिहास की किताब नहीं पहुंचती. तो केसरी के बाद सारागढ़ी के युद्ध की जो रूपरेखा इस फिल्म दिखाई गई है, वही सार्वजनिक कल्पना में इतिहास का स्थान ले लेगी.

Kesari Poster Fb Dharma Productions
केसरी फिल्म का पोस्टर (साभार: फेसबुक/Dharma Productions)

आज कल एक नया चलन सा चल गया है जिसके तहत राजनीतिक या सांप्रदायिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए इतिहास को बदलने की कोशिश की जाती है और ग़ौर किया जाए तो देखेंगे जाएगा कि ज़्यादातर इतिहास को बदला जाता है इस्लाम को बदनाम करने के लिए या मुसलमानों के भारत के इतिहास में योगदान को नकारने लिए.

इसी मुहिम की नयी कड़ी है पिछले दिनों रिलीज़ हुई करन जौहर की फिल्म ‘केसरी.’ इस फिल्म के निर्माता यह दावा करते हैं कि यह फिल्म इतिहास पर आधारित है मगर वास्तव में इतिहास से कुछ घटनाएं और पात्र लेकर उन्हें इस प्रकार से एक मनगढ़ंत कहानी में प्रस्तुत किया है कि जिसका उद्देश्य केवल इस्लाम और मुसलमानों को ख़राब रोशनी में दर्शाना और दर्शकों के सामने उनकी ग़लत छवि प्रस्तुत करना है.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि 1897 में हुई सारागढ़ी के युद्ध में 36 सिख रेजीमेंट 21 सैनिकों की वीरता और बलिदान सराहनीय है. इस लेख का उद्देश्य उनके साहस और बलिदान का अपमान करना नहीं है बल्कि सही ऐतिहासिक घटनाओं को दर्शाना है.

सबसे पहले तो यह स्पष्ट करना अनिवार्य है कि सारागढ़ी का युद्ध जिसे अंग्रेज़ इतिहासकारों ने उत्तर पश्चिमी सीमा के विद्रोह का नाम दिया था, वास्तव में ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध भारतवासियों के द्वारा लड़ा गया एक स्वतंत्रता संग्राम था.

सारागढ़ी का युद्ध, जिसको केसरी में दर्शाया गया, जिस क्षेत्र में लड़ा गया था वह आज के पाकिस्तान के उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत में स्थित है लेकिन याद रखा जाए 1897 में पाकिस्तान का कोई अस्तित्व नहीं था. यह क्षेत्र अविभाजित भारत का ही एक प्रांत था.

औरकज़ई और आफरीदी पठान जिन्होंने सारागढ़ी पर आक्रमण किया था वह इस ही प्रांत की तिरह घाटी के निवासी थे और उतने ही भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे जितने कि खान अब्दुल ग़फ़्फ़ार खान, जिन्होंने इस युद्ध के 14 वर्ष बाद गांधी जी के साथ मिलकर इस प्रांत में सत्याग्रह किया और सरहदी गांधी के नाम से जाने गए. और जिन्हें भारत के इतिहास में एक महान स्वतंत्रता सेनानी के रूप में याद किया जाता है.

पाकिस्तान की मांग पहली बार सारागढ़ी के युद्ध के 36 साल बाद 1933 में चौधरी रेहमत अली ने तीसरी राउंड टेबल कांफ्रेंस में रखी थी और इस युद्ध के समय किसी ने पाकिस्तान की कल्पना भी नहीं की थी.

1891 में, इस युद्ध से 6 वर्ष पूर्व अंग्रेजों ने ‘मीरनज़ई एक्सपेडिशन’ के नाम से एक सैन्य अभियान चलाया था जिसके अंतर्गत उन्होंने इस क्षेत्र के पठानों को क़ाबू में करने के लिए उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत में समाना नमक पर्वतीय श्रृंखला पर अपना अधिकार स्थापित किया था.

इस अभियान के दौरान सारागढ़ नामक एक पठानों की बस्ती, जो कुछ ऊंचाई पर स्थित थी पर अंग्रेज़ों ने आक्रमण कर नष्ट कर दिया और उसके स्थान पर सारागढ़ी नामक एक किले का निर्माण किया.

फिर अंग्रेजों ने सारागढ़ी और उसके आसपास के किलों की सुरक्षा के लिए पास के सभी पठान गांवों और बस्तियों को भी खत्म कर दिया. अपनी मातृभूमि को अंग्रेज़ों से आज़ाद कराने के लिए 1897 में पठानों ने यह युद्ध लड़ा था.

मीरनज़ई अभियान और सारागढ़ी और आसपास के किलों की सुरक्षा के लिए अंग्रेज़ों द्वारा सिखों के चयन की ब्रिटिश इतिहासकार दो कारण बताते हैं.

सिख रेजीमेंट के सैनिक
सिख रेजीमेंट के सैनिक

पहला यह कि अंग्रेज़ों की सेना के पठान सैनिक अपने क़बीले के विरुद्ध तलवार उठाने पर विद्रोह को प्राथमिकता देते थे जबकि सिख सैनिकों ने 1857 में ही अंग्रेज़ों के प्रति अपनी वफादारी का प्रमाण दे दिया था. जब बाकी भारतीय सैनिकोंं ने अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था तब सिख सैनिकोंं ने उनका साथ नहीं दिया था.

विभिन्न अंग्रेज़ी इतिहासकारों ने इस बात का उल्लेख किया है कि क्योंकि 1857 में सिख सैनिकोंं ने विद्रोहियों का साथ नहीं दिया था इसलिए उसके बाद से अंग्रेज़ों ने पंजाब को अपनी सेना की भर्ती का मुख्य केंद्र बनाया और इसी पॉलिसी के अंतर्गत 36 सिख रेजीमेंट का गठन हुआ.

दूसरा कारण यह था कि सिखों और पठानों की पुरानी दुश्मनी थी. पंजाब के सीमावर्ती क्षेत्रों में महाराजा रणजीत सिंह के समय से ही सिखों और पठानों के कई युद्ध हुए थे, इसीलिए फूट डालो और राज करो की नीति के अंतर्गत अंग्रेज़ों ने पठानों से लड़ने के लिए सिखों का चयन किया था.

सिखों की वफ़ादारी और पठानों से दुश्मनी के कारण ब्रिटिश सेना में सिखों की भर्ती के बारे में लिखने वाले ब्रिटिश इतिहासकारों में एक नाम ब्रिटिश सेना के एक नवयुवक अफसर सेकेंड लेफ्टिनेंट विंस्टन चर्चिल का भी है, जो आगे चलकर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने.

यह परिस्थिति थी जिसमें पठान और सिख सिपाहियों ने सरगढ़ में 1897 में एक-दूसरे को आमने सामने पाया. इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का कोई विवरण दिए बिना फिल्म केसरी में इस युद्ध का कारण एक मनगढ़ंत घटना दिखाई गयी है, जिसके अनुसार ईशर सिंह (अक्षय कुमार) ने पठान क़बीले के एक मुल्ला के चंगुल से क़बीले की एक लड़की को बचाया.

शरीयत का उल्लंघन करने के अपराध में मुल्ला उस लड़की को मृत्युदंड देना चाहता था और ईशर सिंह ने उस लड़की को अपनी जान पर खेलकर बचा लिया. अपने आंतरिक मामले में हस्तक्षेप का बदला लेना के लिए पठानों ने सारागढ़ किले पर आक्रमण कर दिया.

फिल्म में युद्ध का आरंभ भी इस प्रकार होता है कि वही मुल्ला अब पठान लश्कर का नेतृत्व करते हुए उसी लड़की को घसीटते हुए किले के सामने लाता है और उसका सिर धड़ से अलग कर देता है. इन दोनों अवसरों पर यह दिखाया गया है कि मुल्ला यह बर्बर कार्य करते समय सूरा-ए-फातिहा पढ़ता है.

सूरा-ए-फातिहा क़ुरान की पहली सूरत है जिसमें अल्लाह से सही रास्ता दिखाने की दुआ की जाती है और मुसलमान इसे हर नमाज़ में पढ़ते हैं. इस सूरत का दर्शाए गए घटनाक्रम से कोई संबंध नहीं है और इससे केवल इसलिए दिखाया गया है कि इससे दर्शकों पर यह प्रभाव पड़े कि यह बर्बरता और अत्याचार क़ुरान के आदेशानुसार हो रहा है.

इस प्रकार फिल्म निर्माता ने इस युद्ध की भूमिका ही बदल दी. देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले पठान अत्याचारी और पथभ्रष्ट बना दिए गए और अंग्रेजों के लिए लड़ने वाले सिख सत्य के मार्ग पर चलते दर्शाए गए.

इसके अतिरिक्त युद्ध में घटी घटनाओं को भी बदल दिया गया है. ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार युद्ध के दौरान पठानों ने सिखों की कम संख्या को देखते हुए कई बार उनको किला छोड़कर चले जाने का अवसर दिया, पर वीर सिख सैनिकों ने किला छोड़ने से इनकार कर दिया.

फिर किले की ऊंचाई का लाभ उठाकर उसकी सुरक्षित दीवारों की आड़ लेकर सिखों ने अपनी तदआधुनिक हेनरी-मार्टीनी बंदूकों से पठानों पर गोलियां बरसाईं. आज़ादी के मतवाले पठान अपनी तलवारें और देसी ‘जज़ैल’ राइफलें लेकर आगे बढ़ते रहे और गोलियों का शिकार होते गए.

लगभग 200 पठान सैनिक इस प्रकार शहीद हुए. आखिर दो पठान गोलियों से बचते हुए किले की दीवार तक जा पहुंचे और अपने नंगे हाथों से मिट्टी खोदकर किले की दीवार के नीचे गड्ढा कर दिया. नींव के तले की धरती हट जाने से दीवार गिर गयी.

दीवार के गिरते ही पठान सेना किले में घुस गयी. किले में तैनात सभी सिख सैनिक बहादुरी से लड़ते हुए शहीद हुए. चूंकि सिख सैनिकों में से कोई भी जीवित नहीं रहा, इसलिए यह स्वाभाविक है कि लड़ाई के दौरान हुई घटनाओं के विवरण में फिल्म निर्माता को कुछ रचनात्मक स्वतंत्रता लेनी होगी.

मगर यह फिल्म तो जो ऐतिहासिक स्रोत उपलब्ध हैं, उनके भी विपरीत है. जैसे कि 36 सिख रेजीमेंट के कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टिनेंट कर्नल जॉन हॉटन ने पूरी लड़ाई का विवरण अपनी डायरी में लिखा था, जिसे उनके गुजर जाने के बाद उनके जूनियर अफसर मेजर एसी येट्स ने सन 1900 में प्रकाशित हुई हॉटन की जीवनी में शामिल किया है.

फिल्म केसरी में इतिहास के विपरीत पठानों के किला छोड़ने के अवसर को धोखा दिखाया गया है, जिसकी आड़ लेकर दो पठान किले की दीवार तक पहुंचकर उसे बारूद से उड़ा देते हैं.

फिल्म में एक काल्पनिक घटनाक्रम और जोड़ दिया गया जिसमें अक्षय कुमार अपने जवानों से झूठ बोलते हुए यह कहते हैं कि अंग्रेज़ अफसरों ने उन्हें किला छोड़कर पीछे हटने का आदेश दिया है. दर्शकों को बताया जाता है कि उसने ऐसा इसलिए किया ताकि सिख सैनिक अंग्रेज़ों की ग़ुलामी के बंधन से आज़ाद हो जाएं और आज़ाद सैनिकोंं की भांति मौत मुंह में उतरने का निर्णय अपनी मर्ज़ी से लें.

यहां से सिख सैनिकोंं के संवाद में ‘आज़ादी,’ ‘अपनी मिट्टी’ और ‘क़ौम’ जैसे शब्द बार-बार आते हैं. एक तो पठानों से स्वतंत्रता सेनानी होने का श्रेय ले लिया गया, उस पर विडंबना यह है कि अंग्रेजी सेना के सैनिक आज़ादी की भाषा बोल रहे हैं!

इस युद्ध के इतिहासकार जय सिंह सोहल लिखते हैं कि 36 सिख रेजीमेंट की टुकड़ी के आखिरी जीवित बचे सैनिक सिग्नलमैन गुरुमुख सिंह ने सिग्नलिंग टावर में अपनी गोलियां ख़त्म होने पर आखिरी गोली से आत्महत्या कर ली थी. लेकिन फिल्म में जलता हुआ गुरुमुख टावर से निकलता है और ओरकज़ईयों के सरदार गुल बादशाह को पकड़ लेता है और उसके बारूद की पोटली में आग लगा देता है जिससे दोनों धमाके में मारे जाते हैं.

अक्षय कुमार मरते-मरते दुष्ट मुल्ला को मौत के घाट उतार देता है. वास्तव में न तो गुल बादशाह लड़ाई में मारा गया था और न ही मुल्ला हाड्डा, वह आलिम जिसने 1897 में अंग्रेज़ों के विरुद्ध जिहाद का फ़तवा दिया था.

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1904 में बना सारागढ़ी मेमोरियल गुरुद्वारा (फोटो साभार: RameshSharma1 CC BY 2.0)

जिहाद शब्द फिल्म में बार-बार आता है और इसका प्रयोग इस्लाम को खराब रोशनी में दिखाने के लिए किया गया है. दुष्ट मुल्ला इस शब्द का प्रयोग फिल्म में बार-बार करता है और एक दृश्य में तो यहां तक कह देता है कि जिहाद तो केवल मेरे हाथ में एक हथियार है.

पहली बात तो यह भी याद रखा जाए कि 1857 के विद्रोह का नेतृत्व मुस्लिम उलेमा या मौलवियों ने किया था, जिन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ जिहाद का फतवा दिया था और विद्रोह असफल पर उन्होंने अपने खून से इसका भुगतान किया था.

ऐसा कहा जाता है कि दिल्ली से कलकत्ता तक ग्रैंड ट्रंक रोड पर ऐसा एक भी पेड़ नहीं था, जिस पर अंग्रेज़ों की विजय के बाद किसी अलिम का शव लटका नहीं हो.

दूसरी बात यह कि हर सेना अपने भगवान का नाम लेकर रणभूमि में उतरती है जैसे की सिखों का नारा ‘जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’ और मराठों का ‘जय भवानी’ और ‘हर हर महादेव.’ यह प्रथा भारतीय सेना में आज तक चली आ रही है.

तो प्रश्न यह उठता है कि यह फिल्म चिंता का विषय क्यों है. आप कहेंगे कि फिल्में तो मनोरंजन लिए बनाई जाती हैं और यह फिल्म निर्माता के द्वारा उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रयोग है, जो उसे संविधान ने प्रदान की है.

यह फिल्म चिंता का विषय इसलिए है क्योंकि यह इस्लाम और मुसलमानों को बदनाम करती है. यह फिल्म एक ऐतिहासिक घटना को लेकर उसके इर्दगिर्द एक झूठी कहानी बुनती है, जिसमें मुसलमान शत्रु है और इस्लाम कटघरे में खड़ा है.

संवैधानिक दृष्टि से भी विभिन संप्रदायों के बीच नफ़रत पैदा करने वाले भाव भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दंडनीय अपराध होने के फलस्वरूप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में नहीं आता. ऐसी अभिव्यक्ति से भेदभाव की भावना बढ़ती है और यह असंवैधानिक है.

अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब कोई फिल्म यह दावा करती है कि वह ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित है तो उसके निर्माताओं पर यह उत्तरदायित्व है कि वह इतिहास को सही प्रकार से प्रस्तुत करें. बताया जा रहा है कि केसरी ने 200 करोड़ रुपये कमाए हैं. इसका मतलब लगभग एक करोड़ दर्शकों ने इस फिल्म को थिएटर में जाकर देखा है.

आने वाले दिनों में करोड़ों लोग इसको टेलीविजन पर भी देखेंगे. फिल्में जितने लोगों तक पहुंचती हैं, कोई इतिहास की किताब नहीं पहुंचती. तो इस फिल्म के प्रदर्शन के बाद सारागढ़ी के युद्ध की जो रूपरेखा इस फिल्म दिखाई गयी है वही सार्वजनिक कल्पना में इतिहास का स्थान ले लेगी.

पठानों का स्वतंत्रता संग्राम और उनका देश की आज़ादी की लड़ाई में योगदान हमेशा के लिए इतिहास के पन्नों से मिट जाएगा. सार्वजनिक कल्पना में इसके बाद से सारागढ़ी में लड़ने वाले पठान दुष्ट, बर्बर विदेशी आक्रमणकारियों के रूप में याद रखे जाएंगे.

मुझे लगता है कि समय आ गया है कि हमारी अदालतें सूचना और शिक्षा के अधिकार में से ही इतिहास से छेड़छाड़ के खिलाफ कोई कानून लाएं, खासकर आने वाली पीढ़ियों के लिए, जो ऐसी बेबुनियाद बातों को इतिहास मानते हुए बड़ी होंगी.

ऐसा नहीं हो सकता कि अकबर ने हल्दीघाटी का युद्ध जीता था या हारा, वह इस बात से निश्चित हो कि इस लड़ाई के करीब 450 साल बाद कौन सी पार्टी चुनाव जीती थी!

(लेखक सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं.)

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