क्या एक्ज़िट पोल पर भरोसा किया जा सकता है?

एक एक्ज़िट पोल में पश्चिम बंगाल में भाजपा को 4 से लेकर 22 सीटों तक का आकलन दिया, जिसमें 5 गुने का फर्क है. तमिलनाडु में एनडीए को 2 से 15 सीटें दी गईं, जिसमें सात गुने का फर्क है. एक चैनल ने पंजाब में भाजपा को उतनी सीटें दीं, जितनी वह लड़ ही नहीं रही. उत्तराखंड में उस आम आदमी पार्टी को भी कुछ प्रतिशत वोट दिला दिए जो वहां चुनाव मैदान में ही नहीं है.

(फाइल फोटो: पीटीआई)

एक एक्ज़िट पोल में पश्चिम बंगाल में भाजपा को 4 से लेकर 22 सीटों तक का आकलन दिया, जिसमें 5 गुने का फर्क है. तमिलनाडु में एनडीए को 2 से 15 सीटें दी गईं, जिसमें सात गुने का फर्क है. एक चैनल ने पंजाब में भाजपा को उतनी सीटें दीं, जितनी वह लड़ ही नहीं रही. उत्तराखंड में उस आम आदमी पार्टी को भी कुछ प्रतिशत वोट दिला दिए जो वहां चुनाव मैदान में ही नहीं है.

फोटो: पीटीआई
फोटो: पीटीआई

गत रविवार को लोकसभा चुनाव के एग्जिट पोल्स के नतीजे आने के बाद से ही उन्हें लेकर जितने मुंह उतनी ही बातें हो गई हैं. ‘सबसे बड़े सैंपल’ और ‘सर्वथा वैज्ञानिक विवेचना’ के चैनलों के बड़े-बड़े दावों के बीच इन नतीजों की विश्वसनीयता का ध्वंस तो उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू द्वारा गुंटूर में अपने शुभचिंतकों के बीच की गई अनौपचारिक टिप्पणी से ही हो गया.

उन्होंने कहा कि एग्जिट पोल वास्तविक परिणाम नहीं होते और हमें समझना चाहिए कि 1999 से अब तक उनमें से अधिकतर गलत ही सिद्ध हुए हैं. लेकिन उपराष्ट्रपति से भी ज्यादा मजेदार बात लोकप्रिय कवि कुमार विश्वास ने कही.

एक ट्वीट में उन्होंने लिखा-‘ये एग्जिट पोल वाले भी बहुत बदमाश हैं. कम से कम 23 मई तक तो चैन से सोने देते. शैतान कहीं के.’ इस ट्वीट में उनका कविसुलभ अंदाज यह साफ करने में कोई कोताही नहीं बरतता कि एग्जिट पोल्स के नतीजों को गंभीरता से लेने के बजाय चैनलों की बालसुलभ शैतानियों के तौर पर ही देखना चाहिए.

वैसे भी देश में यह महसूस करने वालों की कमी नहीं है कि हमारे न्यूज चैनल तेजी से मनोरंजन चैनलों में बदल गए हैं. फिर भी इन्हें गंभीरता से लेने वालों की कमी नहीं है. कोई कह रहा है कि इनके पीछे सट्टा बाजार का ‘खेल’ है तो किसी को इनमें चैनलों पर विपक्ष को ‘टोन डाउन’ करने के लिए डाला गया सरकारी दबाव नजर आ रहा है.

ऐसा कहने वाले भी कम नहीं हैं कि इस दबाव को आत्मविश्वास से भरे विपक्ष द्वारा वास्तविक नतीजे आने से पहले ही शुरू कर दी गई अपनी एकता व सरकार बनाने की कवायदों के विरुद्ध मनोवैज्ञानिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया गया है, जिसका उद्देश्य अस्पष्ट जनादेश की हालत में विपक्ष को दावेदारी पेश करने का मौका दिए बिना नई मोदी सरकार को शपथ दिलाने का रास्ता साफ करना है.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तो इसे चैनलों का गाॅसिप करार देते हुए इसके पीछे हजारों ईवीएमों में गड़बड़ी करने या उन्हें बदलने का भाजपा का ‘गेम प्लान’ भी देखती हैं. उन्होंने समूचे विपक्ष से इसके खिलाफ एकजुट संघर्ष की अपील भी कर डाली है.

लेकिन इनमें से किसी की कोई बात न मानी जाए तो भी एग्जिट पोल नतीजों की कम से कम दो बातें कतई समझ में नहीं आतीं. पहली यह कि ये सारे एग्जिट पोल केवल इसी एक निष्कर्ष पर क्यों एकमत हैं कि भाजपा के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बहुमत के पार या उसके करीब पहुंच जाएगा?

सर्वथा अलग-अलग, यहां तक कि परस्परविरोधी राज्यवार नतीजे देने के बावजूद वे अंततः अलग-अलग रास्तों से समुद्र में जा गिरने वाली नदियों की तरह भाजपा के निकट ही क्यों पहुंच जा रहे हैं?

इस बात को देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की मार्फत समझना चाहें तो सपा-बसपा व रालोद गठबंधन को राज्य की अस्सी में से 58 सीटें देने वाले एबीपी-नील्सन ने भी राजग को बहुमत के पास पहुंचा दिया है, जबकि इसके सर्वथा उलट राज्य की 58 सीटों पर भाजपा की जीत की भविष्यवाणी करने वाले टाइम्स नाउ-वीएमआर ने भी आखिरकार राजग की ‘जय हो’ का गान कर डाला है.

भारत जैसे नाना प्रकार की विविधता, बहुलता व ऊंच-नीच वाले देश के चुनावों के ये नतीजे वाकई किसी वैज्ञानिक पड़ताल का नतीजा हैं तो इनमें देश के सबसे बड़े राज्य तक के निष्कर्षों में ऐसा बैर-विरोध क्यों है कि एक को सही मानिए तो दूसरा गलत सिद्ध होने लगता है?

क्यों किसी चैनल को भाजपा उत्तर प्रदेश में 58 सीटें जीतती नजर आती है तो किसी को 52, किसी को 46 और किसी को 34? इसी तरह क्यों किसी पोल में सपा-बसपा-रालोद गठबंधन 56 सीटों पर विजय-पताका फहराता प्रदर्शित किया जाता है तो किसी में 42, किसी में 32 और किसी में 25, किसी में 20.

यह इन चैनलों का अपने दर्शकों को सच से वाकिफ कराना है या नये भ्रमों के हवाले करना? कई बार इन एग्जिट पोल्स का बचाव करने वाले कहते हैं कि इनसे सही नतीजों का न सही, सही रुझानों का पता चल जाता है. लेकिन उत्तर प्रदेश के संदर्भ में इनके आकलन इतना-सा संकेत देकर क्यों रह जा रहे हैं कि भाजपा को 2014 के मुकाबले सीटों का नुकसान मुमकिन है.

लेकिन कितना? अगर इसके जवाब न सिर्फ अलग-अलग बल्कि परस्परविरोधी हैं तो उनमें से किसी को भी सच के नजदीक कैसे माना जा सकता है? उनके आधार पर बहुमत व अल्पमत का ठीक-ठीक आकलन भी कैसे किया जा सकता है?

प्रसंगवश, बीबीसी की हिन्दी वेबसाइट पर प्रकाशित अपने विश्लेषण में सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता विराग गुप्ता ने भी इन एग्जिट पोल नतीजों के विरोधाभास गिनाये और इनकी पूरी प्रक्रिया पर सवाल उठाए हैं.

उनके अनुसार ‘इस बार के आम चुनावों में न्यूजएक्स ने भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को 242 सीटें दी हैं तो आज तक ने 352 सीटें. इन दोनों आकलनों में 110 सीटों का फर्क है, जो 45 फीसदी से ज्यादा है. दूसरी ओर, न्यूज-18 ने कांग्रेस के संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को 82 सीटें दी हैं जबकि न्यूजएक्स ने 164 सीटें और इन दोनों के आकलनों में दो गुने का फर्क है.’

उन्होंने एग्जिट पोल में विसंगतियों की कुछ और बानगियां पेश की हैं, जो इस प्रकार हैं: पश्चिम बंगाल में भाजपा को 4 से लेकर 22 सीटों तक का आकलन, जिसमें 5 गुने का फर्क है. तमिलनाडु में एनडीए को 2 से 15 सीटें दी जा रही हैं, जिसमें सात गुने का फर्क है.

उन्होंने पूछा है कि निष्कर्षों में इतने बड़े फर्क को कैसे तर्कसंगत ठहराया जा सकता है? साथ ही इनके रहते कैसे कहा जा सकता है कि ये नतीजे किसी वैज्ञानिक प्रक्रिया से निकल कर आए हैं?

तिस पर एक चैनल ने तो कमाल ही कर दिया. उसने पंजाब में भारतीय जनता पार्टी को आगे दिखाने के लिए उसे उतनी सीटें दे डालीं, जितनी वह लड़ ही नहीं रही है. इसी तरह उसने उत्तराखंड में उस आम आदमी पार्टी को भी कुछ प्रतिशत वोट दिला दिए जो वहां चुनाव मैदान में ही नहीं है.

क्या इसके बाद भी इन निष्कर्षों के बारे में कहने को कुछ बचता है? दूसरे पहलू पर जाएं तो एक सच्चाई यह भी है कि इन पोल्स के नतीजों को लेकर इसलिए भी भ्रम फैलता या बात का बतंगड होता है कि इन्हें संपादित करने या कराने वाली एजेसियां व चैनल इनकी बाबत पूरा सच नहीं बताते.

यह तक नहीं कि जिन्हें वे एग्जिट पोल्स के नतीजे बताकर प्रचारित कर रहे हैं, वे वास्तव में चुनाव बाद सर्वेक्षणों के नतीजे हैं क्योंकि एग्जिट पोल्स की तो चुनाव आयोग इजाजत ही नहीं देता.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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