क्या कांग्रेस के लिए वरदान साबित होगा राहुल गांधी का इस्तीफ़ा?

राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देने के महीने भर बाद भी पार्टी में अध्यक्ष पद को लेकर किसी का चुनाव नहीं हो सका है. आने वाले महीनों में चार राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में अध्यक्ष चुनने में हो रही देरी पार्टी को भारी पड़ सकती है.

//
Rahul Gandhi, President of India's main opposition Congress party, looks up before releasing his party's election manifesto for the April/May general election in New Delhi, India, April 2, 2019. REUTERS/Adnan Abidi/File Photo

राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देने के महीने भर बाद भी पार्टी में अध्यक्ष पद को लेकर किसी का चुनाव नहीं हो सका है. आने वाले महीनों में चार राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में अध्यक्ष चुनने में हो रही देरी पार्टी को भारी पड़ सकती है.

Rahul Gandhi, President of India's main opposition Congress party, looks up before releasing his party's election manifesto for the April/May general election in New Delhi, India, April 2, 2019. REUTERS/Adnan Abidi/File Photo
राहुल गांधी (फोटो: रॉयटर्स)

नई दिल्ली: ‘हम ही नहीं, उत्तर प्रदेश का हर एक कार्यकर्ता चाहता है कि राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बने रहें, क्योंकि एक वही हैं जो इस माहौल में पार्टी को संभाल सकते हैं और देश को भाजपा के चंगुल से आजाद करा सकते हैं. कमी हर किसी में होती है लेकिन अगर वह अपना मन बना चुके हैं तो कांग्रेस कार्य समिति जो फैसला लेगी, वह हमें मंजूर होगा.’

उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के कांग्रेस जिलाध्यक्ष वीरेंद्र प्रताप पांडेय ने राहुल गांधी के इस्तीफे को लेकर चल रही चर्चा के बीच यह बात कही. पांडेय पिछले तीन दशक से राजनीति और कांग्रेस दोनों से जुड़े हैं और पिछले छह साल से कांग्रेस जिलाध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं.

उनके नाना कमलापति त्रिपाठी कांग्रेस सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे थे जबकि उनके पिता सुरेंद्र प्रताप नारायण पांडेय उर्फ कोट साहब हरैया से तीन बार कांग्रेस विधायक रहे थे.

वीरेंद्र प्रताप पांडेय आगे कहते हैं, ‘जो भी नया अध्यक्ष बने वह युवा हो और साथ में उसके पास पार्टी चलाने और संगठन में काम करने का भी अनुभव हो. सरकार चलाने और संगठन चलाने में अंतर होता है. सरकार चलाने के लिए आपको पूरी मशीनरी मिलती है लेकिन संगठन चलाने के लिए आपको एक मशीनरी तैयार करनी पड़ती है.’

23 मई को आए लोकसभा चुनाव 2019 के नतीजों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने 2014 से भी अधिक सीटें हासिल की और इसके साथ ही कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी को एक बड़ी हार का सामना करना पड़ा था.

देश की 134 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी को लगातार दूसरे आम चुनाव में 10 फीसदी से भी कम सीट मिलीं. 2014 में पार्टी 44 सीटों पर सिमट गई थी, जबकि 2019 में 52 सीटों से ही संतोष करना पड़ा. चुनाव के नतीजों के बाद 25 मई को हुई कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में हार की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी ने इस्तीफे की पेशकश कर दी, जिसे कांग्रेस कार्य समिति ने सिरे से खारिज कर दिया.

उस समय ऐसा कहा गया कि राहुल गांधी ने यह फैसला महज खानापूर्ति के लिए लिया है और जल्द ही वे इसे वापस ले लेंगे. हालांकि ऐसा होते हुए नहीं दिखा. एक तरफ जहां राहुल गांधी अपने इस्तीफे के फैसले पर अडिग रहे, वहीं कांग्रेस आगे बढ़ने के बजाय राहुल की तरफ टकटकी लगाए देखती रही.

नतीजा यह हुआ कि इस्तीफे पर एक महीने बाद भी कोई फैसला न होते देख 3 जुलाई को राहुल ने न सिर्फ इस्तीफा वापस न लेने की बात सार्वजनिक तौर पर साफ कर दी बल्कि अगला अध्यक्ष चुनने में हो रही देरी पर नाराजगी भी जाहिर की.

नया अध्यक्ष चुनने में हो रही देरी से पार्टी के वरिष्ठ नेता भी अपनी नाराजगी जाहिर कर रहे हैं. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री कर्ण सिंह ने बीते हफ्ते कहा कि जल्द से जल्द कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्ल्यूसी) की बैठक बुलाकर निर्णय किए जाएं. उन्होंने कहा कि 25 मई को गांधी के इस्तीफे की पेशकश करने के बाद पार्टी में जो असमंजस की स्थिति पैदा हुई उससे वह परेशान हैं

वहीं, पार्टी के वरिष्ठ नेता जनार्दन द्विवेदी ने कहा कि गांधी को पद छोड़ने से पहले नए अध्यक्ष को लेकर कोई व्यवस्था बनानी चाहिए थी.

नए अध्यक्ष के चुनाव में हो रही देरी पर स्थानीय स्तर के कांग्रेस नेताओं में भी आक्रोश है.  

80 के दशक से पार्टी से जुड़े हुए बदायूं कांग्रेस जिलाध्यक्ष साजिद अली कहते हैं, ‘हम बस इतना चाहते हैं कि जो भी फैसला करना है वह जल्दी किया जाए. यह देरी पार्टी के लिए अच्छी बात नहीं है.’

राहुल गांधी के इस्तीफे को लेकर जितनी तरह की आवाजें कांग्रेस पार्टी के अंदर से आ रही हैं, राजनीतिक विश्लेषक भी उसे उतने ही तरीके से देख रहे हैं. राहुल गांधी के इस्तीफे पर वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक राशिद किदवई कहते हैं, ‘सैद्धांतिक रूप से एक हारा हुआ नेता जिम्मेदारी लेता है तो यह स्वागतयोग्य है.’

वे कहते हैं, ‘व्यावहारिक रूप से बात करें तो नरेंद्र मोदी ने नामदार और कामदार का जो नारा दिया, युवाओं ने उस पर विश्वास किया. कांग्रेस ने जो मुद्दे उठाए वे सभी मौजूदा परिस्थितियों को सामने रख रहे थे लेकिन लोगों ने उस पर ध्यान इसलिए नहीं दिया क्योंकि उसे राहुल गांधी कह रहे थे.’

किदवई की बात से सहमति जताते हुए वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक नीरजा चौधरी सैद्धांतिक रूप से दिए गए राहुल गांधी के इस्तीफे को अच्छी परंपरा के तौर पर देखती हैं. वहीं, कांग्रेस पार्टी के रवैये पर नाराजगी जाहिर करते हुए कहती हैं, ‘लेकिन उसके बाद कांग्रेस ने जो किया है उससे राहुल गांधी के इस्तीफे से जो फायदा हो सकता था वह सब बर्बाद हो गया है.’

Congress Reuters
फोटो: रॉयटर्स

राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद कांग्रेस के कई महासचिवों और प्रदेश प्रभारियों ने अपना इस्तीफा दिया है. इनमें हरीश रावत, मिलिंद देवड़ा, ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे नाम शामिल हैं.

कांग्रेस महासचिव दीपक बावरिया समेत ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के साथ विभिन्न राज्यों के करीब 150 कांग्रेस नेताओं ने भी अपने पदों से इस्तीफा दे दिया है. इनमें दिल्ली कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष राजेश लिलोठिया, हरियाणा प्रदेश महिला कांग्रेस अध्यक्ष सुमित्रा चौहान, तेलंगाना कांग्रेस उपाध्यक्ष पूनम प्रभाकर शामिल हैं.

राहुल के इस्तीफे के बाद कांग्रेस में लगी इस्तीफों की झड़ी पर चौधरी ने कहा, ‘सात हफ्ते बाद भी इतनी बड़ी पार्टी राहुल गांधी के इस्तीफे पर कोई फैसला नहीं ले सकी है. 400 लोगों के इस्तीफे करा दिए लेकिन एक अंतरिम अध्यक्ष तक नहीं बना सके.’

उन्हें लगता है कि कहीं न कहीं राहुल गांधी कांग्रेस में परिवारवाद के आरोपों को लेकर गंभीर हुए हैं. वह कहती हैं, ‘यंग इंडिया (युवा) को परिवारवाद की राजनीति पसंद नहीं आ रही है और इसको देखते हुए राहुल गांधी ने इस्तीफा दिया.’

नीरजा कहती हैं, ‘परिवारवाद का कोई चेहरा नहीं है बल्कि काम करने का तरीका है जिससे कांग्रेस को हटना पड़ेगा और लोकतांत्रिक होना पड़ेगा. हालांकि, यह भी सही है कि परिवार के बिना पार्टी बिखर जाएगी. जिस तरह से आरएसएस का रिश्ता भाजपा के साथ है, उसी तरह से नेहरू-गांधी परिवार के साथ कांग्रेस पार्टी का रिश्ता है.’

हालांकि वरिष्ठ पत्रकार उमाशंकर सिंह राहुल गांधी के इस्तीफे को अन्य राजनीतिक विश्लेषकों की तरह सैद्धांतिक न मानकर मजबूरी में दिया गया मानते हैं.

वे कहते हैं, ‘राहुल गांधी ने एक परिस्थिति का शिकार होकर इस्तीफा दे दिया लेकिन जिस उद्देश्य से उन्होंने इस्तीफा दिया उनकी वह मंशा पूरी होती नहीं दिख रही है. उनकी मंशा ये रही होगी कि मेरा अनुसरण करते हुए बाकी लोग भी इस्तीफा देंगे, खासकर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत. दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने इस भरोसे के साथ राज्य के सत्ता की जिम्मेदारी ली थी कि वे लोकसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करके देंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं.’

राहुल गांधी का भविष्य

राहुल गांधी के राजनीतिक भविष्य को लेकर राशिद किदवई कहते हैं, ‘विफलता एक बहुत ही दुखद अध्याय होता है. मेरे अपने आकलन में अब राहुल गांधी का वापस आना मुश्किल है. फेल होने के बाद राहुल गांधी को दोबारा अपनी साख जमाने में समय लगेगा. कांग्रेस में राहुल गांधी का अध्याय खत्म हो चुका है और वह धीरे-धीरे धुंधला होता जाएगा.’

साल 2003 में कांग्रेस पार्टी के साथ अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत करने वाले राहुल गांधी पार्टी के अंदर विभिन्न पदों और जिम्मेदारियों को निभाते हुए आगे बढ़े. पार्टी में आते ही उनके प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष बनने की बातें लगातार चलती रहीं.

आखिरकार, लंबे इंतजार के बाद साल 2017 में उन्हें पार्टी अध्यक्ष बनाया गया, लेकिन दो साल से भी कम समय में उन्होंने पद छोड़ने का ऐलान कर दिया है.

किदवई कहते हैं, ‘कांग्रेस पार्टी और नेहरू-गांधी परिवार का रिश्ता बहुत ही पवित्र है और कोई भी इसमें खोट या कड़वाहट नहीं चाहता है. अगर राहुल के खिलाफ कोई विद्रोह या विरोध शुरू हो जाता तो कांग्रेस पार्टी से नेहरू-गांधी परिवार के रिश्ते में दरार आ जाती.’

वहीं, उमाशंकर सिंह का मानना है कि कांग्रेस पार्टी में राहुल गांधी की भूमिका अब सीमित हो जाएगी.  उनका कहना है, ‘वे पार्टी के एक नेता, सोनिया गांधी के बेटे और प्रियंका गांधी के भाई के रूप में मौजूद रहेंगे. वे नाकाबिल नहीं, बल्कि परिस्थिति का शिकार हैं. उन्होंने अपनी टीम लेकर आगे बढ़ने की कोशिश की लेकिन असफल रहे.’

हालांकि, नीरजा चौधरी राहुल गांधी के भविष्य को लेकर आशंकित नजर नहीं आतीं. उनका मानना है, ‘ऐसा किसी के बारे में नहीं कहना चाहिए कि उसका भविष्य खत्म हो गया है. नरसिम्हा राव राजनीति छोड़कर घर जा रहे थे लेकिन अचानक से वे प्रधानमंत्री बन गए थे. कांग्रेस के हालात अच्छे होने पर राहुल गांधी के दोबारा उभरकर सामने आने से इनकार नहीं किया जा सकता.’

कांग्रेस का भविष्य

देश की आजादी के आंदोलन में योगदान देने वाली 134 साल पुरानी पार्टी कांग्रेस कई बार नेतृत्व संकट से गुजर चुकी है लेकिन इस बार एक तरफ जहां उसके सामने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के रूप में एक संगठित कैडर खड़ा है, वहीं नरेंद्र मोदी के रूप में एक लोकप्रिय नेता. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस पार्टी एक बार फिर खुद को संकट से निकालने में सफल हो पाएगी?

कांग्रेस के भविष्य को लेकर किदवई कहते हैं, ‘कांग्रेस एक निर्णायक दौर से गुजर रही है. अगर वह अपना राजनीतिक अस्तित्व बचा लेती है और गुजरात, कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और पंजाब की तरह एक विकल्प के रूप में उभरती है तो यह उसके लिए संजीवनी होगी. उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां अपने बुरे दौर से गुजर रही हैं तो यहां से शुरुआत करना कांग्रेस के भविष्य के लिए अच्छा संकेत होगा.’

1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1985 में राजीव गांधी कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री बने. हालांकि, 1989 के चुनाव में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई. 1991 में 10वीं लोकसभा के लिए चुनाव हुए और वोटिंग के दौरान ही राजीव गांधी की हत्या हो गई.

इसके बाद 1991-98 तक पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव और सीताराम केसरी पार्टी अध्यक्ष रहे और सोनिया गांधी ने 1998 में पार्टी की कमान संभाली. 2004 में उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने जीत हासिल की लेकिन इसके बाद भी वह प्रधानमंत्री नहीं बनीं.

वहीं साल 2004 से ही कांग्रेस सांसद बनने वाले राहुल गांधी ने भी 2004-14 की कांग्रेस सरकार में कोई भूमिका नहीं निभाई.

किदवई कहते हैं, ‘आप 1989 को याद करेंगे तो जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे तब से लेकर आज तक नेहरू-गांधी परिवार का कोई प्रधानमंत्री, मंत्री या मुख्यमंत्री नहीं बना है. फिर भी उनकी राजनीति पर पूरी पकड़ रही है. अब कांग्रेस वही मॉडल अपनाने का प्रयास कर रही है जिसके तहत पार्टी में तो वह महत्वपूर्ण होंगे लेकिन कोई पद नहीं लेंगे.’

Sonia Gandhi, Chief of India's ruling Congress party, walks to address her party workers at the All India Congress Committee (AICC) meeting in New Delhi January 17, 2014. REUTERS/Adnan Abidi (INDIA - Tags: POLITICS) - GM1EA1H1OUK01
सोनिया गांधी (फाइल फोटो: रॉयटर्स)

चुनावी इतिहास में झांकें तो दिखता है कि विकल्पों की कमी और दुविधा का दौर सिर्फ कांग्रेस तक ही सीमित नहीं रहा है. 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी को पूरा भरोसा था कि एक ‘कठपुतली’ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बजाय जनता उन्हें चुनना पसंद करेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

तब 205 सीटें हासिल करने वाली कांग्रेस गठबंधन के सहारे दोबारा मनमोहन सिंह के नेतृत्व में सरकार बनाने में कामयाब रही. यूपीए गठबंधन को कुल 262 सीटें मिली थीं.

वहीं, चुनाव के बाद समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल जैसी पार्टियों ने यूपीए को समर्थन दिया था. दूसरी ओर 2004 की तुलना में 136 सीटों के बजाय भाजपा 116 सीटों पर सिमट गई थी.

इस तरह 2004 में इंडिया शाइनिंग के विफल होने के बाद 2009 में भाजपा का हिंदुत्व कार्ड भी फेल हो गया था. इसके बाद ऐसा माना जाने लगा कि अब भाजपा को यहां से निकालकर वापस सत्ता में ला पाना नामुमकिन है.

ऐसे समय में संघ ने आगे आते हुए आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे वरिष्ठ नेताओं को किनारे कर ‘गुजरात मॉडल’ से मशहूर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को आगे लाने का काम किया.

किदवई कहते हैं, ‘2009 में भाजपा बहुत बुरी तरह से हारी थी और उनका भविष्य भी खतरे में नजर आ रहा था. उसके बाद पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को किनारे करके एक राज्य के मुख्यमंत्री (नरेंद्र मोदी) को आगे लाया गया. जोशी और आडवाणी जैसे राजनीतिक में सक्रिय लोगों को किनारे करना आसान काम नहीं था. उसी तरह कांग्रेस भी अपने तरीके से बदलाव लाने की कोशिश कर रही है.’

हालांकि, कांग्रेस पार्टी के भविष्य को लेकर उमाशंकर सिंह उत्साहित नजर नहीं आते और पार्टी में मोदी और शाह जैसे करिश्माई नेताओं की कमी महसूस करते हैं.

वे कहते हैं, ‘मुझे कांग्रेस का कोई भविष्य नजर नहीं आता है. कांग्रेस में ऐसे नेतृत्व की कमी नजर आती है जो जनता या पत्रकार के साथ-साथ अपनी पार्टी के नेताओं से सीधा संवाद करने की क्षमता रखती हो. ऐसा कोई नेता ही नहीं है जो अपने दम पर आगे बढ़ सके.’

उन्होंने कहा, ‘सोनिया गांधी की तरह राहुल गांधी को भी कुछ लोगों ने घेर लिया. कांग्रेस पार्टी के भविष्य की बात करें तो मोदी और शाह की तुलना में देखें तो सलाहकार मोदी के भी होंगे लेकिन वे सिर्फ सलाह लेते होंगे जबकि यहां सलाहकार ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए जबकि नेतृत्व कमजोर होता गया.’

कांग्रेस में नेतृत्व और रणनीति की कमी देखते हुए नीरजा चौधरी का मानना है कि मौजूदा संकट से निकलकर कांग्रेस पार्टी भविष्य के लिए तभी तैयार हो सकती है जब वह पार्टी के अंदर लोकतंत्र को मजबूत करे और राज्यों में अपनी पकड़ दोबारा से बनाए.

2014 में लोकसभा चुनाव में हार के बाद कई राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए लेकिन कांग्रेस के प्रदर्शन में कोई बदलाव नहीं दिखा.

Congress Headquater PTI5_20_2019_000127B
दिल्ली स्थित कांग्रेस मुख्यालय. (फोटो: पीटीआई)

बदलाव की तस्वीर 2017 में सामने आई जब पंजाब विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 117 सीटों में 77 सीटें जीतीं, जबकि अकाली-भाजपा गठबंधन को महज 18 सीटें हासिल हुईं. आम आदमी पार्टी को 20 और लोक इंसाफ पार्टी को 2 सीटें मिली थीं.

इसके बाद 2017 के अंत में हुए गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 182 में से 99 और कांग्रेस ने 77 सीटों पर जीत दर्ज की. एनसीपी के 1, भारतीय ट्राइबल पार्टी को 2 और 3 निर्दलीय उम्मीदवार को जीत हासिल हुई.

इसके ठीक एक साल बाद दिसंबर 2018 में हुए 199 सीटों वाले राजस्थान विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 99 सीटों पर जीत मिली, जबकि भाजपा को 73 सीटों से ही संतोष करना पड़ा.

इसी के साथ हुए मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 114 सीटें हासिल कर बसपा के 2, सपा के 1 और 4 निर्दलीय उम्मीदवारों के सहारे 230 सीटों वाले विधानसभा में सरकार बनाने में सफल रही. भाजपा को 109 सीटें मिली थीं.

दिसंबर 2018 में ही छत्तीसगढ़ में 90 सीटों वाली विधानसभा में कांग्रेस ने 68 सीटें हासिल कर सरकार बनाई. वहां भाजपा को 15 सीटें मिली थीं.

नीरजा कहती हैं, ‘पिछले साल कांग्रेस ने दिखाया कि जहां राहुल गांधी के सामने नरेंद्र मोदी नहीं थे वहां कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन किया और कई राज्यों में जीत हासिल की. महाराष्ट्र, झारखंड, हरियाणा, दिल्ली, पश्चिम बंगाल और बिहार के चुनाव आ रहे हैं तो कांग्रेस को वहां पर मजबूती से लड़ना चाहिए.’

उनका कहना है कि पार्टी को हिम्मत नहीं खोनी चाहिए. वह कहती हैं, ‘यह पार्टी राहुल गांधी के इस्तीफे को लेकर पस्त हो गई, उन्हें राहुल का इस्तीफा मंजूर करके आगे बढ़ना चाहिए. तत्काल किसी को अध्यक्ष बना देना चाहिए और फिर नए सिरे से असली चुनाव कराना चाहिए. कांग्रेस के अंदर एक नई हवा को बहने देना चाहिए.’

क्या प्रियंका होंगी कांग्रेस का भविष्य?

साल 1998 में कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद जब 1999 में सोनिया गांधी पहली बार अमेठी से लोकसभा चुनाव में उतरीं, तब पहली बार उनकी बेटी प्रियंका गांधी ने राजनीति में कदम रखते हुए उनके लिए चुनाव प्रचार किया था.

2004 में प्रियंका ने अपने भाई राहुल के लिए भी अमेठी में चुनाव प्रचार किया. इसके बाद अमेठी और रायबरेली में चुनाव भले ही राहुल गांधी और सोनिया गांधी लड़ते रहे हों, लेकिन वहां चुनाव प्रचार की बागडोर प्रियंका गांधी के हाथ में ही रही.

कांग्रेस और उसके बाहर भी प्रियंका गांधी के प्रशंसक उनमें कांग्रेस की करिश्माई नेता और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की छवि देखते हैं. उनका मानना है कि प्रियंका की सहजता, लोगों से मिलने-जुलने का ढंग और साफगोई सब उनकी तरह ही है.

यही कारण है कि उत्तर प्रदेश से लगातार ऐसी आवाजें आती रहती हैं कि प्रियंका को पार्टी की कमान सौंपी जाए या उन्हें प्रमुख भूमिका में सामने लाया जाए. इसी कारण राहुल के इस्तीफे के बाद ऐसी संभावनाएं जताई जाने लगी हैं कि प्रियंका गांधी कांग्रेस का भविष्य हो सकती हैं.

Priyanka Gandhi Varanasi rally PTI
लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान वाराणसी में प्रचार करती प्रियंका गांधी (फोट: पीटीआई)

बस्ती में कांग्रेस के जिलाध्यक्ष वीरेंद्र प्रताप पांडेय कहते हैं, ‘प्रियंका गांधी के अंदर गुण है. उन्हें राजनीति की समझ है. उन्हें पता है कि कार्यकर्ताओं के साथ किस तरह से व्यवहार किया जाना चाहिए.’ बदायूं के जिलाध्यक्ष साजिद अली भी वीरेंद्र की बात से सहमति जताते हैं.

वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई का कहना है कि पार्टी के पक्ष में सकारात्मक परिस्थितियां बनने के बाद प्रियंका गांधी एक महत्वपूर्ण भूमिका में सामने आ सकती हैं. या तो कांग्रेस का और बुरा दौर आएगा और अनेक छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियां बनेंगी लेकिन अगर कांग्रेस दोबारा उभर पाने में कामयाब होती है तो प्रियंका गांधी को सक्रिय भूमिका में देखा जा सकेगा.

वे कहते हैं, ‘कांग्रेस नेताओं का मानना है कि अगर वह अपनी शैली में काम करेंगी तो अभी भी उनमें दमखम हैं. वो कांग्रेस की हालत में सुधार कर सकती हैं. यूपी में प्रियंका की नाकामी के बहुत कारण थे लेकिन सबसे बड़ा कारण यह था कि वह राहुल गांधी के रास्ते में नहीं आना चाहती थीं.’

नीरजा चौधरी भी प्रियंका गांधी को भविष्य के नेता के रूप में देखती हैं. उनका भी यही मानना है कि वह अभी तक राहुल गांधी के रास्ते में नहीं आना चाहती थीं लेकिन अब राहुल के इस्तीफे के बाद वह खुलकर सामने आ सकती हैं.

उमाशंकर सिंह भी मानते हैं कि मीडिया से संपर्क करने के मामले में राहुल गांधी के बजाय प्रियंका गांधी अधिक सहज हैं. अपना अनुभव साझा करते हुए वे कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में चुनाव कवर करने के दौरान मैंने देखा कि जब प्रियंका गांधी आईं तो उन्होंने टीवी या अखबारों को छोटा ही सही इंटरव्यू देना शुरू किया. पेशेवर पत्रकार होने के कारण इससे हमारा नेता के साथ एक जुड़ाव हो जाता है. राहुल गांधी के साथ ऐसा नहीं है.’

वे कहते हैं, ‘राहुल गांधी का विफल होना प्रियंका गांधी के लिए एक वरदान की तरह है. प्रियंका बहुत करिश्माई नेता भले ही नहीं हो लेकिन वह बाकी लोगों के मुकाबले अच्छी हैं. वहीं, कांग्रेस में इस फॉर्मूले पर भी विचार हो रहा है कि दो साल तक किसी को वरिष्ठ नेता को कमान सौंपकर काम चलाया जाएगा और फिर प्रियंका गांधी को कमान सौंप दी जाएगी.’

युवा या अनुभवीकिसे मिलेगी पार्टी की ज़िम्मेदारी

साल 2003 में जब राहुल गांधी ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की तब माना जाने लगा कि कांग्रेस पार्टी में अब युवाओं का दौर आ गया है और धीरे-धीरे पार्टी में महत्वपूर्ण पदों पर युवा काबिज होते जाएंगे. हालांकि, पार्टी में लगातार बदलाव की बातें होती रहीं और कई मौकों पर छोटे से लेकर बड़े बदलाव हुए लेकिन पुराने और वृद्ध नेताओं का दबदबा कायम रहा और युवा नेता हाशिये पर पड़े रहे.

ऐसा माना जाता है कि पार्टी में सक्रिय भूमिका में आने के बाद राहुल गांधी ने युवाओं को आगे लाने का प्रयास किया भी लेकिन उसमें उन्हें सफलता नहीं मिल पाई.

सितंबर, 2007 में कांग्रेस महासचिव नियुक्त होने के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस पदाधिकारियों का चयन करने के बजाय उनका चुनाव कराने पर जोर दिया था. इसके लिए उन्होंने साक्षात्कार करने की भी योजना तैयार की थी. वह कांग्रेस को परिवारवाद की बेड़ियों से मुक्त करना चाहते थे.

वहीं, 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले राहुल गांधी पूरे जोश के साथ युवाओं को साथ लेकर चलते दिख रहे थे. इनमें मीनाक्षी नटराजन, अशोक तंवर, शनीमोल उस्मान, कनिष्क सिंह, अजय माकन, संजय निरुपम, दिव्या स्पंदना, सुष्मिता देव, शर्मिष्ठा मुखर्जी, मिलिंद देवड़ा, सचिन पायलट, जितेन प्रसाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे युवा नेताओं को शामिल किया गया था.

2014 के आम चुनाव से पहले राहुल भ्रष्टाचारियों को टिकट देने के सख्त खिलाफ थे लेकिन आदर्श घोटाले के आरोपी महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चह्वाण को टिकट दिया गया. एक साल बाद उन्हें राज्य इकाई का अध्यक्ष बनाया गया.

2017 उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव से पहले जहां एक ओर शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री के चेहरे के बतौर लाया गया, वहीं राहुल के चहेते रणनीतिकारों मधुसूदन मिस्त्री और प्रदेश अध्यक्ष निर्मल खत्री को हटाकर गुलाम नबी आजाद और राज बब्बर जैसे पुरानी पीढ़ी के नेताओं को सामने लाया गया.

वर्तमान में भी पार्टी में मोतीलाल वोरा, अहमद पटेल, गुलाम नबी आजाद, पी. चिंदबरम, शीला दीक्षित जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता महत्वपूर्ण पदों पर काबिज हैं.

Jaipur: Congress President Rahul Gandhi with AICC General Secretary Ashok Gehlot and RPCC President Sachin Pilot during a party meeting at Ramlila Maidan in Jaipur on Saturday, Aug 11, 2018. (PTI Photo) (PTI8_11_2018_000209B)
अशोक गहलोत और सचिन पायलट के साथ राहुल गांधी (फोटो: पीटीआई)

पार्टी में नए और पुराने के बीच की खींचतान का ताजा उदाहरण पिछले साल तब सामने आया जब राजस्थान और मध्य प्रदेश में क्रमश: सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री न बनाकर क्रमश: अशोक गहलोत और कमलनाथ को पद सौंप दिया गया.

इससे पहले पंजाब में भी कैप्टन अमरिंदर सिंह को भी पहले अध्यक्ष और फिर मुख्यमंत्री बना दिया गया. ऐसे में यह देखने वाली बात होगी कि पार्टी में अगर गांधी परिवार से बाहर का सदस्य अध्यक्ष बनता है तो पार्टी की कमान युवा या अनुभवी किसके हाथ आएगी.

किदवई कहते हैं, ‘कांग्रेस में पुराने और नए नेताओं के बीच खींचतान अभी भी जारी है. सक्रिय राजनीति में इस तरह के पावर ग्रुप चलते रहते हैं. अभी जो परिस्थिति है उसमें खड़गे जैसे किसी अनुभवी और वरिष्ठ नेता को जिम्मेदारी सौंपी जाएगी और सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया और मिलिंद देवड़ा जैसे युवाओं को उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है, जो राहुल गांधी के विजन पर काम करेंगे.’

वहीं, उमाशंकर सिंह कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि पहले जो ओल्ड गार्ड और न्यू गार्ड की एक लड़ाई चली थी, वह एक बार फिर से नए रूप में शुरू हो गई है और राहुल गांधी ने उसी परिस्थिति में फंसकर इस्तीफा दे दिया. अभी जो भी फैसला होगा वह पुराने नेताओं की मर्जी से ही होगा चाहे किसी युवा को ही कमान सौंपने की बात हो. फिलहाल, मल्लिकार्जुन खड़गे और मुकुल वासनिक का नाम अध्यक्ष पद के लिए चल रहा है लेकिन यह एक चलताऊ व्यवस्था होगी. मतलब कि जो भी अध्यक्ष बनेगा वह बोतल में बंद जिन्न की तरह होगा.’

हालांकि, नीरजा चौधरी नए और पुराने नेताओं के बीच जारी खींचतान को बड़ी बात नहीं मानती हैं. वह कहती हैं, ‘हर बड़ी पार्टी में ओल्ड और न्यू की लड़ाई चलती रहती है. हर जगह पुराने लोग नए लोगों को आगे नहीं आने देते हैं, इसलिए तब तक समन्वय बनाकर चलना पड़ता है जब तक आप ताकतवर नहीं बन जाते हैं.’

चौधरी कहती हैं, ‘मोदी और शाह आज पावरफुल हो गए हैं लेकिन पिछले पांच सालों में उन्हें कई ऐसे लोगों को मंत्री बनाना पड़ा, जिन्हें वो नहीं बनाना चाहते थे.’