अब सुनने में आता है कि हर पांच मिनट में एक भारतीय लेखक का जन्म हो रहा है: अनीता देसाई

तीन बार बुकर पुरस्कार के लिए नामित और 17 से ज़्यादा किताबों की लेखक अनीता देसाई को हाल ही में इंटरनेशनल लिटरेरी ग्रैंड प्राइज़ से सम्मानित किया गया है.

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तीन बार बुकर पुरस्कार के लिए नामित, कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित और 17 से ज़्यादा किताबों की लेखक अनीता देसाई को पिछले महीने कनाडा में ब्लू मेट्रोपोलिस लिटरेरी फेस्टिवल में इंटरनेशनल लिटरेरी ग्रैंड प्राइज़ से सम्मानित किया गया है.

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10,000 कनाडाई डॉलर का यह पुरस्कार वर्ष 2000 से हर साल एक विश्व प्रसिद्ध लेखक को उसके जीवनभर की साहित्यिक उपलब्धियों के लिए दिया जाता है.

देसाई से पहले इस पुरस्कार को पाने वालों की फेहरिस्त में नॉर्मन मेलर, मार्गरेट एटवुड, एएस बायएट, अमिताव घोष शामिल हैं. बॉमगार्टनर्स बॉम्बे, क्लियर लाइट ऑफ डे और इन कस्टडी  जैसी किताबों की मशहूर लेखिका अनीता देसाई से बातचीत.

हाल ही इंटरनेशनल लिटरेरी ग्रैंड प्राइज़ मिला, इससे पहले 2003 में बेन्सन मेडल और 2014 में पद्मभूषण. आपके लिए ये सम्मान क्या अहमियत रखते हैं या ये केवल लिखने के साथ घट जाने वाला संयोग मात्र हैं?

(मुस्कुराते हुए) इस एक पुरस्कार (इंटरनेशनल लिटरेरी ग्रैंड प्राइज़) ने मुझे बताया है कि मैं एक पड़ाव पार कर चुकी हूं और अब एक ऐसी उम्र में हूं, जहां मुझे कुछ निश्चित सम्मान तो दिए ही जा सकते हैं. वैसे यह तो है कि पुरस्कार संयोग होते हैं. वे अप्रत्याशित होते हैं, आप उनको ध्यान में रखकर काम नहीं करते. बिल्कुल नहीं.

आपकी नज़र में साहित्य का मक़सद क्या है? इन दिनों साहित्य की उपयोगिता पर सवाल उठाए जा रहे हें, ख़ासतौर पर कनाडा में.

कोई लेखक दो स्तरों पर काम करता है. अवचेतन स्तर पर, जहां वह किसी एजेंडे के तहत काम नहीं करता. वह कहानी सुनाने, शब्दों को काग़ज़ पर उतारने, किसी चीज को गुम होने से बचाने के दबाव में लिखता है. और हां, इसमें आप किसी भाषा को इस्तेमाल करने की खुशी को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते.

वहीं चेतना के स्तर पर किसी कृति को लिख चुकने के बाद कभी-कभी वह आपको हैरत में डाल देती है. आप ख़ुद से कहते हैं, ओह! क्या यह सब इसी के लिए था?

किताब के पूरा होने पर आप कहते हैं, अच्छा इतने दिनों तक इसके मेरे दिमाग में रहने की यही वजह थी! इसे लिखने की वजह क्या है?और इस बात में कोई दो राय नहीं है कि इसका हमेशा एक ही कारण रहा है, वो है सच बयां करना, भले ही उसे घुमा-फिराकर कहा जाए या थोड़े विद्रोही ढंग से. आप हमेशा खुलकर ऐसा नहीं कर पाते, इसलिए कई बार किसी रहस्यमयी तरीके का सहारा लेना पड़ता है.

आप कई दशकों से लिख रही हैं. आपकी ही लिखी कोई ऐसी क़िताब जो पसंदीदा है और अब तक आपके साथ बनी रही है?

देखिए, अक्सर किताबों के साथ यह होता है कि उन्हें पूरा करने के बाद एक अजीब-सी निराशा महसूस होती है. आपके ऊपर यह एहसास तारी हो जाता है कि आप जो करना चाहते थे, यह वो नहीं है, ऐसा लगता है कि रास्ते में कहीं कोई गलत मोड़ ले लिया.

क्या ऐसा हर बार होता है?

हां, कमोबेश हर बार. ऐसी किताबें बहुत कम रही हैं, जब मुझे दूसरे किस्म का एहसास हुआ, जैसे मेरी एक शुरुआती किताब थी फायर ऑन द माउंटेन. वह पहला मौका था, जब मुझे अपनी आवाज़ का एहसास हुआ था.

तब तक मैं तीन या चार किताबें लिख चुकी थी और तब मुझे एहसास हुआ कि अब तक मैं बस दूसरे लेखकों की नकल कर रही थी, किसी दूसरे की तरह होने की कोशिश कर रही थी. इस किताब से मुझे लगा कि ये मेरी अपनी आवाज़ है, ये मेरा तरीका है, ये है मेरे लिखने का ढंग.

कई दूसरे मील के पत्थर भी रहे जैसे इन कस्टडी  लिखना. तब तक मुझ पर एक महिला लेखक, एक नारीवादी लेखक होने का लेबल लगाया जाता था और मुझे यह मानना भी पड़ता था कि हां, मैं औरतों और उनकी ज़िंदगी के बारे में लिखती हूं.

इसलिए मैंने जान-बूझकर कर एक ऐसी किताब लिखी, जिसके किरदार मर्द थे, जो उर्दू शायरी की उस दुनिया में रहते हैं, जो सिर्फ मर्दों के लिए मानी जाती है, जहां बेहद कम औरतें पहुंची थीं.

जब मैंने यह किताब लिखी, तब मुझे यह महसूस हुआ कि मैं कम से कम उस घरेलू दुनिया से आज़ाद हो गई हूं, जहां मैंने ख़ुद को बाहर की दुनिया के डर से क़ैद कर रखा था. यह वो दुनिया थी, जिसे मैं अच्छी तरह से जानती थी. मेरे लिए ये एक चुनौती थी.

इसके लिए आपने किस तरह की रिसर्च की थी?

मैंने कोई रिसर्च नहीं की थी. मगर उस वक़्त मैं दिल्ली में रहा करती थी. यह एक ऐसा समय था जब लोगों में भाषा और कवियों के प्रति गहरा सम्मान का भाव था. इसे आप फ़िज़ाओं में महसूस कर सकते थे.

मैं उर्दू सुनते हुए बड़ी हुई हूं. बातचीत में अक्सर उर्दू शायरी का हवाला दिया जाता था. एक हद तक तो कुछ इस भाषा का ग्लैमर भी था. दूसरी तरफ यह चुनौती भी थी कि इसे अंग्रेज़ी में किस तरह से ढाला जाएगा. इसलिए जब मैं औरों के हिसाब से क़िताब शायरी के नमूने पेश कर रही थी दे रही थी, तब दरअसल मैं ही उन्हें लिख भी रही थी.

मैं उर्दू शायरी की लय, उसके अंदाज़-ए-बयां को पकड़ने की कोशिश कर रही थी. (हंसते हुए) और फिर जब क़िताब पढ़ने के बाद एक व्यक्ति मेरे पास आया और शिकायत की कि आपने इस किताब में शायरों के नामों का ज़िक्र क्यों नहीं किया, तब मुझे ख़ुद पर काफी गर्व हुआ.

ऐसी ही एक चुनौती का सामना मैंने अपनी किताब बॉमगार्टनर्स बॉम्बे को लिखने के दौरान किया था. तब मैं दो बेहद अलहदा दुनिया, दो बेहद अलहदा ज़बानों, दो मुख्तलिफ़ इतिहासों यानी जर्मन और हिंदुस्तान को एक साथ लाने की कोशिश कर रही थी.

इसकी कहानी का समय दूसरे विश्वयुद्ध के ठीक बाद यानी भारत की आज़ादी के शुरुआती सालों का था. इस किताब के लिए मैंने काफी रिसर्च की, इतिहास और उस दौर को समझने की और उन्हें आपस में जोड़ने की और आखिरकार कहानी कह सकने में कामयाब हुई.

मेरी मां जर्मन थीं और हम घर में जर्मन बोलते हुए ही बड़े हुए थे. मेरे पिता भी जर्मन बोलते थे. एक तरह से यह हमारे परिवार की भाषा थी.

जब मैं अंग्रेज़ी में लिख रही थी, मैं यह हमेशा सोचती रहती थी कि यहां कुछ छूट रहा है, जिसे अंग्रेज़ी में नहीं समझाया जा सकता, इसलिए मुझे अपने विरसे में मिली जर्मन को यहां लाना ही होगा.

तो इस तरह हर किताब के पास सुनाने को अपनी एक अलग कहानी है.

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इन तीन किताबों ने आपमें एक उपलब्धि का भाव जगाया. क्या ऐसी भी किताबें रहीं, जिनसे आप निराश हुईं?

अब जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूं तो मुझे लगता है कि ऐसी कई किताबें हैं, जिन्हें छापने की इजाज़त मुझे प्रकाशक को नहीं देनी चाहिए थी. अपनी पहली तीन या चार किताबों के बारे में मुझे ऐसा ही लगता है.

तो क्या आप इसे लेखन की ट्रेनिंग के बतौर नहीं देखती हैं?

हां, वो तो है लेकिन मुझे लगता है कि किताब छपवाने की हड़बड़ी नहीं करनी चाहिए. ऐसा कोई दबाव नहीं होना चाहिए कि आप जो भी लिखें, वो सब छप जाए. कुछ चीजों को अपने पास ही रहने देना चाहिए. काश! मैं ऐसा कर पाई होती.

मैंने आपकी शुरुआती किताबों में से एक वॉयसेज इन द सिटी  पढ़ी है और मुझे पसंद आई. इसमें एक कच्चापन है, मगर इसमें आपकी आवाज़ और प्रतिभा की झलक है. इसकी शैली आपकी बाद में लिखी गई किताबों से बिल्कुल अलग है.

शुक्रिया. यह ओवररिटन यानी बहुत ज़्यादा कहने वाली किताब थी. समय के साथ मेरी शैली में एक मितव्ययिता आई है. अब मैं बेहद ज़रूरी बातें ही लिखती हूं. शायद इसका संबंध बढ़ती उम्र के साथ कम हो रही ऊर्जा से हो.

क्या ज़िंदगी के प्रति वक़्त के साथ बदलते आपके नज़रिये का असर आपके लेखन पर हुआ है?

बिल्कुल. जब आप जवान होते हैं, तब स्वाभाविक है कि आप अपने अनुभवों, भावनाओं, अपने जीवन में चल रहे घटनाक्रमों में लिखते हैं.

लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, आप बातों को थोड़ी दूर से देखने की, निजी अनुभव से अलग हटकर उसे समझने की सलाहियत हासिल कर लेते हैं. ऐसे किरदारों और इतिहास को भी लिख पाते हैं, जो ज़रूरी नहीं है कि आपके अपने ही हों.

आपकी पिछली किताब- द आर्टिस्ट ऑफ डिसअपीयरेंस तीन छोटे उपन्यास हैं. यह उपन्यास का नया फॉर्म है.

हां, उम्र के इस पड़ाव पर इस तरह की किताबें मेरे लिए मुफ़ीद बैठती हैं. मैं अब कोई बड़ा, महान उपन्यास नहीं लिख सकती. इसके लिए बहुत कुछ देना पड़ता है. न केवल वक़्त बल्कि बहुत सारी ऊर्जा भी. अब मैं अपेक्षाकृत छोटे फ़लक वाले कथानकों को बेहतर ढंग से लिख सकती हूं.

हमने लेखन से जुड़े संघर्ष और इसकी प्रक्रिया के बारे में बात की. अपने अनुभवों को कैसे देखती हैं?

मुझे लगता है कि मैं भी उन सारे अनुभवों से गुज़री हूं, जिनसे हर युवा लेखक को गुज़रना पड़ता है. अपनी आवाज़ पहचानकर कुछ ऐसा लिख पाना, जो आपको ख़ुशी दे, एक मुश्किल काम है.

फिर प्रकाशक और पाठक को खोजना भी काफी कठिन है. (भारत की) आज़ादी के बाद के शुरुआती साल काफी कठिन थे, जब प्रकाशक सिर्फ ब्रिटिश या अमेरिकी किताबों को ही दोबारा छापना चाहते थे.

और यही वो वक़्त था, जब मैं लिख रही थी. यहां तक कि आरके नारायण जैसे महान लेखक को भी अपनी किताब ख़ुद प्रकाशित करनी पड़ी थी, अपना ख़ुद का प्रेस शुरू करना पड़ा था. कितने कई दशकों बाद उन्हें पहचान मिली! सबसे बड़ा बदलाव 1980 के दशक में सलमान रुश्दी केमिडनाइट्स् चिल्ड्रेन  के छपने के बाद आया.

और अब तो मानो किताबें बरस रही हैं!

हां, सुनते हैं कि हर पांच मिनट में एक भारतीय लेखक का जन्म हो रहा है.

बिल्कुल! आपके मुताबिक़ लेखन का सुख क्या है? कई लेखक सिर्फ पीड़ा के बारे में ही बात करते हैं.

निश्चित तौर पर इसमें सुख है. अगर ऐसा नहीं होता तो कोई यह ख़ामोश, गुमनामी भरा जीवन कोई क्यों चुनता? आप अपनी मेज़ पर चुपचाप बैठे हैं, आपकी हौसलाअफज़ाई करने वाला कोई नहीं है. लेकिन इसमें भाषा को इस्तेमाल करने का सुख है.

कुछ ऐसा लिखना जो सार्थक है, कुछ ऐसा जो पूरे साहस से लिखा गया. वो दिन जब आप कुछ अच्छा लिख लेते हैं, उस रोज़ उससे बड़ी खुशी कोई नहीं होती. पर ये मौका कभी-कभी ही आता है, हर रोज़ नहीं.

यानी लिखने के सुख का रिश्ता अंदरूनी खुशी से है न कि इस लिखे हुए की तारीफ सुनने या उसके बारे में लोगों से बात करने में.

हां, ऐसा ही है. इन दिनों राइटिंग क्लास में दाखिला लेना काफी लोकप्रिय हो गया है, लेकिन मैंने कभी ऐसी क्लास नहीं ली. जब मैंने इसे पढ़ाना शुरू किया, तब मैंने खुद से सवाल किया कि तुम्हारी जुर्रत कैसे हुई ऐसा कुछ करने की?

तुम यह अच्छी तरह से जानती हो कि लेखन सिखाया नहीं जा सकता. लेकिन इसकी उपयोगिता इस बात में है कि इससे युवा लेखकों को काम करने के लिए समय और जगह मिलती है और इस तरह से यह अपने आप को सही साबित कर लेता है. और कुछ नहीं तो बस दूसरे लेखकों के साथ रहना ज़रूर हौसला बढ़ाने वाला होता होगा, जो किसी भी लिखने वाले की मनोस्थिति के लिए अच्छा होता है.

क्या विदेश आकर बसने से कोई बदलाव आया?

जब मैं विदेश में आ बसी, तब मेरा संपर्क उस चीज़ से छूट गया, जिसे आप रॉ मटेरियल कह सकते हैं. वो सब जिसे मैं बहुत अच्छे-से जानती हूं, जिसके बारे में पूरे आत्मविश्वास से लिख सकती थी कि मुझे पता होता था कि मैं बातों या स्थितियों को सही से पकड़ पा रही हूं.

सफ़र करना और विदेश में रहना, दोनों अलग हैं, किसी को भी लगता है कहीं न कहीं कुछ ठीक नहीं है. पर आप बस सोचते रह जाते  हैं. ऐसे रॉ मटेरियल को खोना एक बहुत बड़ी बात होती है.

मैं हिंदुस्तान आती-जाती रहती हूं. मेरा परिवार है वहां. पर अब मुझे लगता है कि जैसे एक खाई-सी बन गई है, जो बढ़ती ही जा रही है.

और मुझे ऐसा लगता है कि मुझे वहां के लोगों के, उनकी ज़िंदगियों के बारे में बोलने का कोई अधिकार नहीं है, यह ठीक वैसे ही है जैसे वे नहीं जानते कि मैं यहां (विदेश में) किन अनुभवों से गुज़री हूं.

इसका दूसरा पहलू यह है कि यह अदला-बदली एक ज़्यादा बड़ी दुनिया के लिए है. यह अच्छे या ख़राब के लिए हो सकता है. एक व्यक्ति अपने कंफर्ट ज़ोन से बाहर निकल गया है. यह कभी चुनौती भरा तो कभी रोमांचक होता है.

डायस्पोरा यानी प्रवासियों पर लिखने के बारे में आप क्या सोचती हैं? या आपके उपन्यास उसी दौर के होंगे जिसे आपने देखा और जिया है?

अतीत के बारे में लिखना काफी जोखिम भरा होता है. यहां नॉस्टेल्जिया के जाल में फंसने का खतरा है. यह एक विकृति है; यह सच्चा या सटीक नहीं है.

आप भावुकता या स्मृति में भीगे हुए होते हैं. लिखते वक्त बेहद दृढ़ बने रहने की ज़रूरत होती है. जहां तक डायस्पोरा का संबंध है, दुनिया में बड़े पैमाने पर हो रहे माइग्रेशन के कारण,  जो अब तक के इतिहास में सबसे ज़्यादा है, यह काफी लोकप्रिय विषय बन कर उभरा है.

लेकिन मैं अब तक इसमें सहज महसूस नहीं करती. यह मुझे आकर्षित करता है, लेकिन यह मेरा विषय नहीं बन पाया है. लंबे समय के निर्वासन के बारे में लिख पाना, जैसा कि नॉयपॉल ने किया है, आसान काम नहीं है. विदेशी होने या अजनबी होने के एहसास के बारे में बिना अच्छी तरह से जाने इस पर लिखना मुमकिन नहीं है.

पश्चिम में रहते कितना वक़्त हो गया?

25 साल हो गए. लेकिन पूरी तरह से नहीं. पहले मैंने यहां पढ़ाना शुरू किया. मैं किसी अजनबी की कहानी लिखने जैसे विषय की ओर आकर्षित तो होती हूं, लेकिन मैं यहां कोई अजनबी हूं इस पर कभी नहीं.

मैंने एक किताब लिखी थी द ज़िगज़ैग वे, यह मैक्सिको में रह रहे कुछ उस ज़मीन से अनजान लोगों के बारे में थी, जो वहां अपने परिवार के अतीत को खोज रहे हैं. मैं किसी जड़ से उखड़े व्यक्ति की तरह यह कर सकती हूं.

मैंने कहीं पढ़ा था था कि मैक्सिको आपको घर जैसा लगा था.

हां, कई मायनों में यह हिंदुस्तान जैसा है. मैक्सिको भी एक प्राचीन देश है, वहां भी हर पत्थर का अपना इतिहास है. यहां अमेरिका में ऐसा नहीं मिलेगा. यहां दुनिया के कई हिस्सों से लोग आकर बसे हुए हैं, इनमें से कुछ तो यहां बिना इरादे के आए थे.

एक सवाल जो आपसे कई बार पूछा गया होगा पर मैं फिर भी पूछूंगी- लेखकों को क्या सलाह देना चाहेंगी?

लेखकों को दुनिया से एक निश्चित फासला बनाकर रखना चाहिए. कुछ भी अभिव्यक्त करने से पहले, दुनिया से जुड़ने से पहले तलाशें कि अंदर क्या है. ये जानें कि आपके अंदर क्या है, आप क्या कहना चाहते हैं और आप उसे कैसे लिखना चाहेंगे.

यहां मैं मेरी बेटी (किरन देसाई) के बारे में बताना चाहूंगी. उसने अपनी क़िताब द इनहेरिटेंस ऑफ लॉस  10 साल में लिखी थी. और अगली क़िताब में उसे 7 साल लगे हैं. मुझे लगता है शायद वो पूरी होने वाली होगी. तो कहने का अर्थ बस इतना ही है कि अपने अंदर एक दुनिया ज़रूर बनाएं.

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