चुनाव प्रचार में भाषा का गिरता स्तर लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण का संकेत है

आजकल जिस भाषा में सत्ताधारी नेता चुनाव प्रचार कर रहे हैं, वो दिखाता है कि हम लोकतंत्रिक प्रणाली के लायक विकसित ही नहीं हुए हैं. क्योंकि दुनिया का कोई भी सभ्य व लोकतांत्रिक राष्ट्र ऐसी भाषा को स्वीकार नहीं कर सकता है, जो समाज में नफ़रत और हिंसा के उत्प्रेरक के तौर पर काम करे.

हामिद अंसारी पर हमले: ज़रूरत चेहरा साफ करने की है, आईने नहीं

देश के लिए निराशा की बात है कि उसके पूर्व उपराष्ट्रपति तक को उसके धर्म के आधार पर देखा जाने लगा है और उनके कथनों से सबक लेने और आईने में हक़ीक़त की शक्ल देखने के बजाय उनसे ठकुरसुहाती की उम्मीद की जा रही है!

इतिहास से सत्ताधीशों की बदले की कार्रवाइयों को कैसे दर्ज करेगा इतिहास

इस बहुरंगी देश को इकरंगी बनाने की क़वायदें अब गणतांत्रिक प्रतीकों व विरासतों को नष्ट करने के ऐसे अपराध में बदल गई हैं कि उन्हें इतिहास से बुरे सलूक की हमारी पुरानी आदत से जोड़कर भी दरकिनार नहीं किया जा सकता.

उत्तर प्रदेश चुनाव: योगी आदित्यनाथ की अयोध्या से हिजरत के मायने क्या हैं

उत्तर प्रदेश भाजपा में विधानसभा चुनाव के सिलसिले में जो कुछ भी ‘अघटनीय’ घट रहा है, वह दरअसल उसके दो नायकों द्वारा प्रायोजित हिंदुत्व के दो अलग-अलग दिखने वाले रूपों का ही संघर्ष है. योगी आदित्यनाथ को अयोध्या से दूर किए जाने से साफ है कि अभी तक प्रदेश में योगी की आक्रामकता से मात खाता आ रहा मोदी प्रायोजित हिंदुत्व अब खुलकर खेलने की तैयारी कर रहा है.

कोरोना काल में चुनाव: बड़े होते जा रहे निष्पक्षता से जुड़े सवाल

चुनाव आयोग से न सिर्फ स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव कराने बल्कि यह सुनिश्चित करने की भी अपेक्षा की जाती है कि केंद्र व प्रदेशों में सत्तारूढ़ दलों को सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग कर अपनी स्थिति मजबूत करने के अनैतिक व अवांछनीय मौके न मिलें. हालांकि कोरोना के दौर में हुए चुनावों में लगातार इस पहलू पर सवाल ही उठे हैं.

प्रचार प्रक्रिया में बदलाव चुनाव प्रक्रिया बदलना है, पर क्या चुनाव आयोग को ऐसा करने का हक़ है

चुनाव आयोग का इलेक्ट्राॅनिक व डिजिटल प्रचार पर निर्भरता को विकल्पहीन बनाना न्यायसंगत नहीं है. दूर-दराज़ के कई क्षेत्रों में अब भी बिजली व इंटरनेट का ठीक से पहुंचना बाकी है, ऐसी जगहों के वंचित तबके के मतदाताओं के पास इतना डेटा कैसे होगा कि वे हर पार्टी के नेता के चुनावी भाषण सुन सके? क्या कोरोना के ख़तरे की आड़ में ऐसे सवालों की अनसुनी की जा सकती है?

प्रधानमंत्री की सुरक्षा में हुई चूक को क्या चुनावी ‘इवेंट’ में बदला जा रहा है

सुरक्षा में चूक को लेकर ख़ुद प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी जिस तरह उसी क्षण से इस घटना को सनसनीखेज़ बनाकर राजनीतिक लाभ उठाने में लग गए हैं, उससे ज़ाहिर है कि वे घटना की गंभीरता को लेकर कम और उससे मुमकिन चुनावी फायदे के बारे में ज़्यादा गंभीर हैं.

क्या राम के नाम पर अयोध्या कॉरपोरेटी विकास की मिसाल बनती जा रही है…

राम मंदिर क्षेत्र के पास रसूख़दारों द्वारा ज़मीनों की ख़रीद-फ़रोख़्त के गोरखधंधे में घिरी अयोध्या की एक चिंता यह भी है कि सत्ता समर्थित मूल्यहीन भव्यता के हवाले होती-होती वह राम के लायक भी रह पाएगी या नहीं?

बेअदबी के नाम पर मॉब लिंचिंग: धार्मिक कट्टरताएं बेकाबू हो जाएं, तो गिरावट की कोई सीमा नहीं रहती

सभ्य, लोकतांत्रिक और आधुनिक समाजों में मॉब लिंचिग जैसी बर्बरताओं की कोई जगह नहीं है- धर्मग्रंथों व प्रतीकों की बेअदबी के नाम पर भी नहीं.

राजेंद्रनाथ लाहिड़ी: वो क्रांतिकारी, जिन्हें विश्वास था कि उनकी शहादत व्यर्थ नहीं जाएगी…

पुण्यतिथि विशेष: अगस्त 1925 में अंग्रेज़ों का ख़ज़ाना लूटने वाले क्रांतिकारियों में से एक राजेंद्रनाथ लाहिड़ी भी थे. 1927 में इंसाफ़ के सारे तक़ाज़ों को धता बताते हुए अंग्रेज़ों ने उन्हें तयशुदा दिन से दो रोज़ पहले इसलिए फांसी दे दी थी कि उन्हें डर था कि गोंडा की जेल में बंद लाहिड़ी को उनके क्रांतिकारी साथी छुड़ा ले जाएंगे.

बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद का क़ानूनी पटाक्षेप अंत नहीं महज़ शुरुआत था…

अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद जिन सदाशयी लोगों को लगता था कि इसके बहाने होने वाले सांप्रदायिक विद्वेष की बला अब उनके सिर से हमेशा के लिए टल जाएगी, उसका राजनीतिक दुरुपयोग बंद हो जाएगा, देश-प्रदेश का राजनीतिक नेतृत्व उनकी भोली उम्मीदों पर पानी फेरने को तैयार है.

मुनव्वर फ़ारूक़ी के साथ खड़े होना कलाकारों की अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्षधरों का कर्तव्य है

‘हिंदुत्ववादी’ संगठनों की अतीत की अलोकतांत्रिक करतूतों के चलते उनकी कार्रवाइयां अब किसी को नहीं चौंकातीं. लेकिन एक नया ट्रेंड यह है कि जब भी वे किसी कलाकार के पीछे पड़ते हैं, तब लोकतांत्रिक होने का दावा करने वाली सरकारें, किसी भी पार्टी या विचारधारा की हों, कलाकारों की अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्ष में नहीं खड़ी होतीं, न ही उन्हें संरक्षण देती हैं.

कांग्रेस की समस्या सलमान ख़ुर्शीद या मनीष तिवारी की किताबें नहीं आंतरिक लोकतंत्र है

कोई नहीं कह सकता कि नेता के तौर पर मनीष तिवारी या सलमान ख़ुर्शीद की कोई महत्वाकांक्षा नहीं है या उसे पूरा करने के लिए वे किताब लिखने समेत जो करते हैं, उसे लेकर आलोचना नहीं की जानी चाहिए. लेकिन उससे बड़ा सवाल यह है कि क्या कांग्रेस के नेताओं के रूप में उन्हें अपने विचारों को रखने की इतनी भी आज़ादी नहीं है कि वे लेखक के बतौर पार्टी लाइन के ज़रा-सा भी पार जा सकें?

कंगना ने जो कहा वो उनका विचार है या वो महज़ ज़रिया हैं

कहते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हज़ार भुजाएं और हज़ार-हज़ार मुंह हैं. इन 'हज़ार-हज़ार मुंहों' में भाजपा सांसद वरुण गांधी को छोड़ दें तो कंगना के मामले पर चुप्पी को लेकर गज़ब की सर्वानुमति है. फिर इस नतीजे तक क्यों नहीं पहुंचा जा सकता कि कंगना का मुंह भी उन हज़ार मुंहों में ही शामिल है?

जिन्ना के ‘महिमामंडन’ के सवाल पर भाजपा के खाने के दांत और हैं, दिखाने के और

अगर जिन्ना, जो कम से कम 1937 तक देश के साझा स्वतंत्रता संघर्ष का हिस्सा थे, की प्रशंसा करना अपराध है तो हमारे निकटवर्ती अतीत में भाजपा के कई बड़े नेता ऐसे अपराध कर चुके हैं.

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