अयोध्या: मीडिया 1992 की तरह एक बार फिर सांप्रदायिकता की आग में घी डाल रहा है

अयोध्या में 1990-92 में प्रिंट मीडिया का प्रभुत्व था, अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने उसे पीछे धकेलकर सांप्रदायिक पत्रकारिता का परचम उससे छीन लिया है और ख़ुद को राम मंदिर आंदोलन का अघोषित प्रवक्ता बना लिया है.

चमचमाती सुर्ख़ियों के पीछे की अयोध्या सहानुभूति की पात्र है

धार्मिक पर्यटन बढ़ाने के नाम पर दिव्य दीपावली समेत कई सरकारी आयोजनों में भावनाओं के दोहन के लिए भारी-भरकम योजनाओं के बड़े-बड़े ऐलानों द्वारा लगातार ऐसा प्रचारित किया जा रहा है जैसे अयोध्या में स्वर्ग उतारकर हर किसी के लिए लाल गलीचे बिछा दिए गए हैं, लेकिन ज़मीनी सच्चाई इसके एकदम उलट है.

के. रामाराव, जो मानते थे कि पत्रकारों को हमेशा सरकार के विरोध में रहना चाहिए

विशेष: नेशनल हेराल्ड अख़बार के संस्थापक संपादक र​हे के. रामाराव ने लोकतंत्र और स्वतंत्रता के लिए लड़ रहीं ताक़तों के समर्थन की अपनी प्रतिबद्धता से कभी समझौता नहीं किया.

इलाहाबाद में प्रयाग का अस्तित्व था लेकिन प्रयागराज में इलाहाबाद की कोई जगह नहीं बची

दीन-ए-इलाही के प्रवर्तक अकबर ने देश में किसी नाले तक का नाम बदलने का प्रयास नहीं किया, तो उसे प्रयाग से क्योंकर कोई चिढ़ हो सकती थी?

सत्ताधीश ‘नमामि गंगे’ का सब्ज़बाग दिखाते रहे और प्रो. जीडी अग्रवाल की बलि चढ़ गई

पर्यावरणविद् प्रो. जीडी अग्रवाल ने 100 से ज़्यादा दिनों तक अपना अनशन जारी रखा तो सिर्फ इसलिए क्योंकि सरकारों की असंवेदनशीलता के बावजूद उनके दिलोदिमाग में लोकतंत्र को लेकर कोई न कोई उम्मीद ज़रूर बाकी रही होगी. उनके जाने का दुख इस अर्थ में कहीं ज़्यादा सालता है कि ऐसा अनशन के अस्त्र के प्रणेता महात्मा गांधी के जन्म के एक 150वें वर्ष में हुआ है.

लोहिया को उनके अनुयायियों से कौन बचाए?

समाजवादियों ने उनके समाजवाद का कॉरपोरेटीकरण कर उसे भाई-भतीजावादी पूंजीवाद का सगा बनाकर, उसे अस्मिता, जाति, वंश व परिवार के कॉकटेल में बदल आमजन के लिए वैसे ही निरर्थक कर डाला है, जैसे संकीर्णतावादियों ने गांधी के रामराज्य को.

गुजरात में प्रवासी मज़दूरों पर हमला: क्या यही मोदी का ‘​न्यू इंडिया’ है?

जब प्रधानमंत्री अपने 2019 के चुनावी मंसूबों को नए-नए पंख लगाने के फेर में हैं, उनके गृहराज्य गुजरात के उपद्रवी तत्व एक बच्ची से बलात्कार का बदला लेने के बहाने उनके ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे की हवा निकाल देने में लगे हुए है.

चुनाव आयोग का सिर्फ निष्पक्ष होना ही नहीं बल्कि नज़र आना भी ज़रूरी है

पांच राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना और मिजोरम के विधानसभा चुनाव कार्यक्रम के ऐलान के लिए बुलाये गए संवाददाता सम्मेलन को लेकर मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस द्वारा उठाए गए सवाल गंभीर हैं.

क्या स्मार्ट सिटी का सपना देख रहे भारत में लोकनायक के गांव की सुध लेना वाला कोई नहीं?

लोकनायक जयप्रकाश नारायण का पैतृक गांव सिताब दियारा देश के विभिन्न गांवों की बदहाली और सरकारों के उपेक्षापूर्ण रवैये की बड़ी मिसाल है. आदर्श ग्राम योजना के तहत भाजपा सांसद राजीव प्रताप रूडी द्वारा इसे गोद लेने के बावजूद इसकी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है.

मोदी सरकार किसानों का विश्वास क्यों नहीं जीत पा रही है?

किसानों को फंसाने के लिए मोदी सरकार भले ही बड़ी-बड़ी योजनाएं घोषित कर दे, लेकिन उन पर ईमानदारी से अमल नहीं करती. 2022 तक उनकी आय दोगुनी करने का वादा हो या फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों से भी ज़्यादा करने का दावा, इस बात की नज़ीर हैं.

डराने की राजनीति करने वाले दरअसल ख़ुद डरे हुए हैं

अब तक हमारे लोकतंत्र का इतिहास यही र​हा है कि जिसने भी सत्ता के मद में ख़ुद को मतदाताओं से बड़ा समझने की हिमाक़त की, मतदाता उसे सत्ता से बेदख़ल करके ही माने. साफ़ है कि वोट की ऐसी राजनीति से मतदाताओं को नहीं, उन्हें ही डर लगता है जो डराने की राजनीति करते हैं.

क्या देश की राजनीति हमेशा ऐसी ही मूल्यहीनता और लूट-खसोट की पर्याय रही है?

देश में अरबपतियों की तेज़ी से बढ़ती संख्या के बीच आप रोते रहिए कि राजनीति का पतन हो गया है और अब वह समाजसेवा या देशसेवा का ज़रिया नहीं रही, इन बहुमतवालों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि उन्होंने इस स्थिति को सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यता भी दिला दी है.

भागवत जी! पहले अपनी परंपरागत सोच के दायरों से तो बाहर निकल आते, फिर संवाद करते

संवाद का भ्रम रचकर बहुत कुछ हासिल करने की संघ की ताज़ा महत्वाकांक्षा की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि वह अपने घर का दरवाज़ा चौड़ा और ऊंचा करने को तैयार नहीं है.

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