साल 2010 में शिक्षा का अधिकार कानून के लागू होने के बाद पहली बार सरकारों की कानूनी जवाबदेही बनी कि वे 6 से 14 साल सभी बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करें. लेकिन इसी के साथ ही इस कानून की सबसे बड़ी सीमा यह रही है कि इसने सावर्जनिक और निजी स्कूलों के अन्तर्विरोध से कोई छेड़-छाड़ नहीं की.
सरकारी स्कूलों को बहुत ही प्रायोजित तरीके से निशाना बनाया गया है. प्राइवेट स्कूलों की समर्थक लॉबी की तरफ से बहुत ही आक्रामक ढंग से इस बात का दुष्प्रचार किया गया है कि सरकारी स्कूलों से बेहतर निजी स्कूल होते हैं और सरकारी स्कूलों में सुधार की कोई गुंजाइश नहीं बची है.
यह सर्वेक्षण शिक्षा क्षेत्र में काम करने वाले एक एनजीओ इंडस एक्शन ने किया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि 13 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के पास आरटीई के तहत स्कूलों में दाखिला प्राप्त छात्रों की संख्या के बारे में सूचना उपलब्ध नहीं है.
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग का यह अध्ययन दिल्ली के 650 स्कूलों द्वारा स्कूली पढ़ाई बीच में छोड़ने वाले बच्चों के विषय में दिए गए वर्षवार आंकड़े पर आधारित है.
शिक्षा के अधिकार अधिनियम को पिछले सात साल में ठीक ढंग से लागू किया गया या नहीं, इसका आकलन किसी ने नहीं किया. सभी ने अपनी नाकामी को बच्चों पर थोप दिया और बच्चों की किसी ने पैरवी तक नहीं की.
सरकार की छात्रों को आठवीं तक फेल नहीं करने की नीति पर अब विराम लग जाएगा. कैबिनेट ने बुधवार को ‘नो डिटेंशन नीति’ ख़त्म करने के प्रस्ताव को मंज़ूरी दे दी है.