कोरोना महामारी की दूसरी लहर के दौरान गंगा में बहते शवों को देखकर गुजराती कवियत्री पारुल खक्कर ने एक कविता लिखी थी. गुजरात साहित्य अकादमी के आधिकारिक प्रकाशन में इसे लेकर कहा गया है कि शब्दों का उन ताकतों द्वारा दुरुपयोग किया गया, जो केंद्र और उसकी राष्ट्रवादी विचारधारा की विरोधी हैं.
पारुल खक्कर की कविता एक पारंपरिक गुजराती हिंदू मन का विस्फोट है. उसमें तात्कालिकता का आवेग है, कविता रचने का कोई कलात्मक प्रयास नहीं. वह शोक गीत है, मर्सिया है. गुजरात के समाज में ऐसी कविता अगर फूट पड़े तो अस्वाभाविक लगना ही स्वाभाविक है.
गंगा में बहे शवों को देखकर व्यथित हुई गुजराती कवियत्री पारुल खक्कर ने अपने दुख को चौदह पंक्तियों की की कविता की शक्ल दी, जिसे लेखकों के साथ-साथ आमजनों ने भी पसंद किया. हालांकि इसके बाद मूल रूप से गैऱ राजनीतिक पारुल सत्तारूढ़ भाजपा की ट्रोल आर्मी के निशाने गईं.