आज़ादी के 72वें साल में लोकतंत्र पर भीड़तंत्र हावी हो गया

एक सोची-समझी साज़िश के तहत जनता को एक बिना सोच-समझ वाली भीड़ में बदल दिया गया है. अब ऐसी भीड़ देश के हर क़स्बे -गांव में घूम रही है, जो एक इशारे पर किसी को भी पीट-पीटकर मार डालने को तैयार है.

लोकतंत्र और आज़ादी के असल मायने आदिवासी समाज से सीखने होंगे

विश्व आदिवासी दिवस: आदिवासियों की अपनी बोलचाल की भाषा और आम चर्चा में लोकतंत्र या आज़ादी शब्द का कोई स्थान नहीं है. किसी आदिवासी से इन शब्दों के बारे में पूछें तो वो शायद चुप रहे, लेकिन इसके असली मायने का एहसास उन्हें स्वाभाविक रूप से है.

आपातकाल: नसबंदी से मौत की ख़बरें न छापी जाएं

आपातकाल के 44 साल बाद इन सेंसर-आदेशों को पढ़ने पर उस डरावने माहौल का अंदाज़ा लगता है जिसमें पत्रकारों को काम करना पड़ा था, अख़बारों पर कैसा अंकुश था और कैसी-कैसी ख़बरें रोकी जाती थीं.

‘उच्च शिक्षा पर हमला करने का मकसद सरकारों से सवाल पूछने वालों को ख़त्म करना है’

मानवाधिकारों से जुड़े समूह पीपुल्स कमीशन ऑन श्रिंकिंग डेमोक्रेटिक स्पेस ने देश में शिक्षा व्यवस्था का हाल जानने के लिए 17 राज्यों में 50 शैक्षणिक संस्थानों के छात्र-छात्राओं और शिक्षकों से बात कर रिपोर्ट जारी की है.

द वायर बुलेटिन: एक महीने में टीवी चैनलों ने नरेंद्र मोदी को 722 घंटे दिखाया, जबकि राहुल गांधी को सिर्फ़ 251 ​घंटे

जम्मू कश्मीर के बांदीपोरा में तीन साल की बच्ची से बलात्कार के बाद विरोध प्रदर्शन समेत दिनभर की महत्वपूर्ण ख़बरों का अपडेट.

साल 2019 के लोकसभा चुनाव क्यों भारतीय लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण हैं

वीडियो: ये लोकसभा चुनाव भारतीय लोकतंत्र के लिए क्यों महत्वपूर्ण हैं, बता रहे हैं दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद और द वायर के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन.

भाजपा को आतंकवाद और राष्ट्रवाद पर गाल बजाना बंद करना चाहिए

कांग्रेस ने अपने घोषणा-पत्र में आफ्स्पा और राजद्रोह क़ानून में बदलाव की बात कही है, जिस पर प्रधानमंत्री मोदी का कहना है कि आफ्स्पा में सुधार से सेना का मनोबल गिरेगा. सोचने वाली बात है कि अगर सैनिकों के अधिकारों पर यह सीमा तय हो कि किसी भी नागरिक को सिर्फ शक़ के बिना पर मारने, गायब करने या किसी महिला के साथ यौन हिंसा की शिक़ायत होने पर उन्हें क़ानूनी संरक्षण नहीं मिलेगा तो इसमें सेना का मनोबल कैसे

क्यों राम जन्मभूमि की रट लगाने वाली जमातें अयोध्या की हनुमानगढ़ी का नाम नहीं लेतीं?

अयोध्या की ऐतिहासिक हनुमानगढ़ी ने आज़ादी के पहले से ही अपनी व्यवस्था में लोकतंत्र और चुनाव का ऐसा अनूठा और देश का संभवतः पहला प्रयोग कर रखा है, जिसका ज़िक्र तक करना सांप्रदायिक घृणा की राजनीति करने वालों को रास नहीं आता.

लोकतंत्र और संविधान से संघ-भाजपा का प्रयोग

लोकसभा चुनावों के बाद अगर मोदी सरकार वापस सत्ता में नहीं भी आती है तो भी राजनीति के मानदंड इतने बिगड़ चुके हैं कि समाज में स्थिरता और शांति आने में लंबा वक़्त लग सकता है.

आशीष जोशी का निलंबन सार्वजनिक जीवन में अभद्रता के ख़िलाफ़ राय रखने वालों की बड़ी हार है

सरकार ने संदेश दिया है कि गाली और धमकियां देने वाले हमारे लोग हैं. इनको कुछ नहीं होना चाहिए. उसकी यह कार्रवाई एक ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ अफसर को हतोत्साहित करती है और लंपटों की जमात को उत्साहित करती है.

आज़ादी के सत्तर साल बाद भी एक बीमार देश राष्ट्रवाद की ऊर्जा की तलाश में भटक रहा है

कश्मीर, आतंकवादी, वामपंथी, जेएनयू और जेएनयू टाइप, राष्ट्रवाद, दुर्गा, सब कुछ घालमेल हो जाता है. देश जैसे एक विक्षिप्तता में बड़बड़ा रहा है. सन्निपात से उसे होश में लाना नामुमकिन हो रहा है.

क्यों देश की राजनीतिक और आर्थिक ताक़त कुछ परिवारों तक सिमटकर रह गई है

क्या अगले आम चुनाव में मोदी सरकार या महागठबंधन में से कोई नेता या दल अपने चुनावी घोषणा-पत्र में यह वादा कर सकता है कि वो देश की आम जनता को शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधा देने की संवैधानिक जवाबदारी निभाने के लिए 2019 से देश के अरबपतियों और अमीरों पर उचित टैक्स लगाने का काम करेगा?

क्या जनता परिवारवाद, यारवाद और पैसावाद को लेकर चिंतित है?

एक नागरिक और कार्यकर्ता के रूप में सतर्क रहना चाहिए कि राजनीति चंद परिवारों के हाथ में न रह जाए. लेकिन इस सवाल पर बहस करने योग्य न तो अमित शाह हैं, न नरेंद्र मोदी और न राहुल गांधी. सिर्फ जनता इसकी योग्यता रखती है. जब तक ये नेता कोई साफ़ लाइन नहीं लेते हैं, परिवारवाद के नाम पर इनकी बकवास न सुनें.

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