कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: यामिनी कृष्णमूर्ति देह और नृत्य की ज्यामिति को बहुत संतुलित ढंग और अचूक संयम से व्यक्त व अन्वेषित करती थीं. नर्तकी और नृत्य इस क़दर तदात्म हो जाते थे कि उनको अलगाकर देखना या सराहना संभव नहीं होता था.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता के वितान में उच्छल भावप्रवणता और बौद्धिक प्रखरता, कस्बाई संवेदना और कठोर नागरिक चेतना, कुआनो नदी और दिल्ली, बेचैनी-प्रश्नाकुलता और वैचारिक उद्वेलन आदि सभी मिलते हैं.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: अज्ञेय द्वारा लिखित एकमात्र नाटक ‘उत्तर प्रियदर्शी’ सम्राट अशोक द्वारा पाटिलपुत्र में स्थापित नरक की कथा को लेकर था. इस नाटक, उसके मूल अभिप्राय की वर्तमान भारत के लिए प्रासंगिकता बिल्कुल स्पष्ट है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: विनीत गिल की किताब निर्मल जीवन और लेखन का सूक्ष्म-सजग-संवेदनशील पाठ है. हर बखान या विवेचन, हर खोज या स्थापना के लिए प्राथमिक और निर्णायक साक्ष्य उनका लेखन है.
पुस्तक समीक्षा: हिंदी कविता और नई कहानी के प्रमुख हस्ताक्षर रहे अज्ञेय की अक्षय मुकुल द्वारा लिखी जीवनी ‘राइटर, रेबेल, सोल्जर, लवर: द मैनी लाइव्ज़ ऑफ अज्ञेय’ उनके जीवन के अनगिनत पहलुओं को तो उभारती ही है, साथ ही 1925 से 1980 के भारत के राजनीतिक-सामाजिक इतिहास का भी दस्तावेज़ बन जाती है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: अज्ञेय के लिए स्वतंत्रता और स्वाभिमान ऐसे मूल्य थे जिन पर उन्होंने कभी समझौता नहीं किया. अक्षय मुकुल की लिखी उनकी जीवनी इस धारणा का सत्यापन करती है.
प्रेमचंद की प्रासंगिकता का सवाल बेमानी जान पड़ता है, लेकिन हर दौर में उठता रहा है. अक्सर कहा जाता है कि अब भी भारत में किसान मर रहे हैं, शोषण है, इसलिए प्रेमचंद प्रासंगिक हैं. प्रेमचंद शायद ऐसी प्रासंगिकता अपनी मृत्यु के 80 साल बाद न चाहते.