आंबेडकर का कहना था कि हिंदू राज इस देश के लिए सबसे बड़ी आपदा होगी क्योंकि हिंदू राष्ट्र का सपना आज़ादी, बराबरी और भाईचारे के ख़िलाफ़ है, और यह लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों से मेल नहीं खाता.
अगर अगड़ी जाति को संविधान सम्मत और समता-मूलक समाज के अनुरूप अपने वैश्विक दर्शन को ढालना है, तो अपने विशेषाधिकारों पर सवाल करना होगा.
कुछ मेहरबान तर्क दे रहे हैं कि वर्गीकरण से दलित एकता कमज़ोर होगी. दलितों में फूट पड़ जाएगी. इसका मतलब यह हुआ कि महादलित वाल्मीकि/मज़हबी, मुसहर, मादिगा जैसे दलित समुदाय एकता के नाम पर कभी यह सवाल न करें कि वे आगे की पंक्ति में क्यों नहीं हैं.
जनतंत्र में दलितों की भागीदारी क्या मात्र संख्या है या वे इस जनतंत्र की शक्ल भी तय कर सकते हैं? मतदान का जो समान अधिकार दलितों को मिला या उन्होंने लिया, वह भी ऐसे जनतंत्र का संसाधन बन गया जो पारंपरिक वर्चस्व को और मज़बूत करता है. कविता में जनतंत्र स्तंभ की बीसवीं क़िस्त.
लोकसभा चुनाव के प्रचार के कई भाजपा नेता संविधान बदलने के लिए बहुमत हासिल करने की बात दोहरा चुके हैं. उनके ये बयान नए नहीं हैं, बल्कि संघ परिवार के उनके पूर्वजों द्वारा भारतीय संविधान के प्रति समय-समय पर ज़ाहिर किए गए ऐतराज़ और इसे बदलने की इच्छा की तस्दीक करते हैं.
प्रासंगिक: अपनी किताब ‘वेटिंग फॉर अ वीज़ा’ में भीमराव आंबेडकर ने 1901 में कोरेगांव यात्रा के दौरान हुए छुआछूत के कटु अनुभव पर विस्तार से चर्चा की है.
14 अक्टूबर 1956 को आंबेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाया था. वे देवताओं के संजाल को तोड़कर एक ऐसे मुक्त मनुष्य की कल्पना कर रहे थे जो धार्मिक तो हो लेकिन ग़ैर-बराबरी को जीवन मूल्य न माने.
भेदभाव का मूल हिंदुओं के हृदयों में बसे हुए उस भय में निहित है कि मुक्त समाज में अस्पृश्य अपनी निर्दिष्ट स्थिति से ऊपर उठ जाएंगे और हिंदू सामाजिक व्यवस्था के लिए ख़तरा बन जाएंगे.
जन्मदिन विशेष: मान्यवर कांशीराम के निकट राजसत्ता की चाभी बहुजन हितकारी सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के बंद ताले खोलने का पूरी तरह अपरिहार्य साधन थी और वे मानते थे कि देश की सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्थाओं में बहुजनों को अपरहैंड तभी मिल सकता है, जब यह चाभी उनके पास रहे. इसके इतर स्थिति में जिसके हाथ में यह चाभी रहेगी, उन्हें उसी की धुरी पर नाचते रहना होगा.
उदयनिधि के बयान पर हुई प्रतिक्रिया से ज़ाहिर होता है कि हिंदू ख़ुद को सनातनी कह लें, पर अपनी आलोचना नहीं सुन सकते. फिर वे उदार कैसे हुए?
19वीं सदी में आर्य समाज और ब्रह्म समाज जैसे सुधारवादी संगठनों के ख़िलाफ़ आंदोलन के दौरान हिंदू पुरातनपंथियों (ऑर्थोडॉक्सी) ने तब सनातन धर्म की अवधारणा को आकार देने का काम किया था, जब इन सुधारवादी संगठनों द्वारा सती प्रथा, मूर्ति पूजा और बाल विवाह जैसी प्रतिगामी प्रथाओं पर सवाल उठाए गए थे.
कुछ वक़्त पहले तक कहा जा रहा था कि विश्वविद्यालयों को राष्ट्रवादी भावना का प्रसार करना है. उस दौर में परिसर में राष्ट्रध्वज लगाना और वीरता दीवार बनाना ज़रूरी था. अब राष्ट्रवाद का चोला उतार फेंका गया है और बिना संकोच के हिंदुत्व का प्रचार किया जा रहा है.
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अकादमिक मामलों पर दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थायी समिति ने स्नातक पाठ्यक्रम से डॉ. बीआर आंबेडकर के दर्शन पर एक वैकल्पिक पाठ्यक्रम हटाने की सिफ़ारिश की है. हालांकि, दर्शनशास्त्र विभाग ने इसका कड़ा विरोध करते हुए कुलपति से पाठ्यक्रम को बनाए रखने का अनुरोध किया है.
बीते कुछ समय से भाजपा, आरएसएस तथा उनके द्वारा पोषित-समर्थित अन्य संगठन सनातन शब्द के प्रयोग पर ज़ोर देते नज़र आ रहे हैं. क्या वे हिंदुत्व शब्द से पीछा छुड़ाना चाहते हैं? सांप्रदायिक और दमनकारी हिंदुत्व की राजनीति के कारण भाजपा और संघ की बदरंग हुई छवि क्या सनातन शब्द से उजली हो जाएगी?