…और सुबह-ए-बनारस है रुख़-ए-यार का परतव

बनारस का ज़िक्र इसकी सुबहों के बिना अधूरा है. जहां शाम-ए-अवध इतिहास के उतार-चढ़ावों के बीच कई बार बदलने को मजबूर हुई, सुबह-ए-बनारस जाने कितनी सदियों से वैसी ही है. सूरज की पहली किरण गंगा को छूती हुई घाटों का स्पर्श करती है तो वे सोने के लगने लगते हैं और चिड़ियों की चहचहाहट सुहागे का काम करती है.

बनारस रा मगर दीदस्त दर ख़्वाब…

बनारस संस्कृति की आदिम लय का शहर है. जब मार्क ट्वेन कहते हैं कि 'बनारस इज़ ओल्डर दैन द हिस्ट्री' यानी ये शहर इतिहास से भी पुराना है तब वाकई लगता है कि सौ साल से भी अधिक समय पहले लिखी उनकी यह बात आज भी इस शहर के चरित्र पर सटीक बैठती है.

मधु लिमये याद दिलाते हैं कि लोकतंत्र बिना बुद्धि के सशक्त नहीं हो सकता

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: अमृतकाल में बुद्धि अभद्र शब्द बन गया है. बुद्धिजीवियों का लगभग रोज़ अपमान किया जाता है. अपनी बुद्धिहीनता को नेता आभूषण की तरह पहनकर रौब जमाते हैं. राजनीति में बुद्धि नहीं तिकड़म और हिकमत से सब काम चल रहा है. मधु लिमये इसके बरक़स, एक बुद्धिशील राजनीतिज्ञ थे. 

समाज का काम कभी-कभी साहित्य के बिना चल सकता है, पर साहित्य का समाज के बिना नहीं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: साहित्य उन शक्तियों में से नहीं रह गया जो मानवीय स्थिति को बदल सकती हैं- फिर भी हमें ऐसा लिखना चाहिए मानो कि हमारे लिखने से स्थिति बदल सकती है.

न्यू इंडिया में सामाजिक दरारें चौड़ी होती जा रही हैं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस समय भारतीय समाज में कई भीषण और गहरी दरारें पड़ चुकी हैं- जो पहले से थीं उन्हें और चौड़ा किया जा रहा है. सत्तारूढ़ राजनीति खुल्लमखुल्ला अभद्रता, गाली-गलौज, कीचड़फेंकू वृत्ति आदि से राजनीति, व्यापक ज़रूरी मुद्दों पर बहस को लगभग असंभव बना रही है.

यह देश जितना प्रधानमंत्री मोदी और आरएसएस प्रमुख का है, उतना मेरा भी है: मौलाना महमूद मदनी

जमीयत उलेमा-ए-हिंद (एमएम समूह) के प्रमुख मौलाना महमूद मदनी ने संगठन के 34वें महा अधिवेशन को संबोधित करते हुए कहा कि भारत इस्लाम की जन्मस्थली और मुसलमानों का पहला वतन है. भारत हिंदी-मुसलमानों के लिए वतनी और दीनी, दोनों लिहाज़ से सबसे अच्छी जगह है.

गांधी की ज़रूरत

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: गांधी-विचार अब तक, सारे हमलों और लांछनों-अपमानों के बावजूद, मौजूद है, प्रेरक हैं और उसका हमारे समय के लिए पुराविष्कार संभव है. भारत में अपार साधनों से अनेक दुष्प्रवृत्तियां पोसी जा रही हैं, गांधी उनका स्थायी और मजबूत प्रतिरोध हैं.

मुक्तिबोध: ज़माने के चेहरे पर… ग़रीबों की छातियों की ख़ाक है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: मुक्तिबोध ने आज से लगभग छह दशक पहले जो भारतीय यथार्थ अपनी कविता में विन्यस्त किया था, वह अपने ब्यौरों तक में आज का यथार्थ लगता है.

इतिहास की रणभूमि

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: भारत में इस समय विज्ञान की लगातार उपेक्षा और अवज्ञा हो रही है. इस क़दर कि वैज्ञानिक-बोध को दबाया जा रहा है. यह ज्ञान मात्र की अवमानना का समय है: बुद्धि, तर्क, तथ्य, संवाद, असहमति आदि सभी हाशिये पर फेंके जा रहे हैं.

अब हम राजनीति के समय में नहीं, ‘राजबाज़ारी’ के युग में हैं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: आज की सत्तारूढ़ राजनीति के सिलसिले में सब कुछ 'राज' पर इतना एकाग्र हो चला है कि 'नीति' लगभग ग़ायब हो गई है. नीति के राजनीति से लोप के चलते उसके लिए कोई नया शब्द गढ़ना चाहिए. इसी बीच, राज और बाज़ार का संबंध बहुत गाढ़ा हुआ है और वे एक-दूसरे के पोषक हो गए हैं.

नैयरा नूर: ग़म-ए-दुनिया से घबराकर, तुम्हें दिल ने पुकारा है

स्मृति शेष: नैयरा नूर ग़ालिब और मोमिन जैसे उस्ताद शायरों के कलाम के अलावा ख़ास तौर पर फ़ैज़ साहब और नासिर काज़मी जैसे शायरों की शायरी में जब 'सुकून' की बात करती हैं तो अंदाज़ा होता है कि वो महज़ गायिका नहीं थीं, बल्कि शायरी के मर्म को भी जानती-समझती थीं.

साहित्य हमारे समय में हो रहे अन्यायों की शिनाख़्त करता है और उनसे संघर्ष की प्रेरणा देता है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: अच्छा साहित्य हमें हमेशा वहां ले जाता है जहां भाषा पहले न गई हो: वह हमारी अनुभूति और अभिव्यक्ति के भूगोल को विस्तृत करता है. साहित्य हमें अधिकार और शक्ति के सभी प्रतिष्ठानों से, फिर वे राज्यपरक हों या धर्म, प्रश्न पूछने की हिम्मत देता है.

मंडला की पहचान अब सतत प्रवाहमान नर्मदा के साथ रज़ा से भी बन रही है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: मध्य प्रदेश के मंडला में चित्रकार सैयद हैदर रज़ा की स्मृति में ज़िला प्रशासन द्वारा बनाई गई कला वीथिका क्षेत्र के एकमात्र संस्कृति केंद्र के रूप में उभर रही है.

सार्वजनिक जीवन में असहमति को राज्य के विरुद्ध षड्यंत्र माना जाने लगा है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जो ख़ुद षड्यंत्र करता है वह यह मानकर चलता है कि जो उसके साथ नहीं है या उससे असहमत है वह भी षड्यंत्र कर रहा है.

देश में मौजूदा हालात डर की वजह बन गए हैं: अमर्त्य सेन

कोलकाता में एक कार्यक्रम के दौरान नोबेल सम्मानित अर्थशास्त्री ने कहा कि भारतीय न्यायपालिका अक्सर विखंडन के ख़तरों की अनदेखी करती है, जो डराने वाला है. एक सुरक्षित भविष्य के लिए न्यायपालिका, विधायिका और नौकरशाही के बीच संतुलन होना ज़रूरी है, जो भारत में नदारद है. यह असामान्य है कि लोगों को सलाखों के पीछे डालने के लिए औपनिवेशिक क़ानूनों का इस्तेमाल किया जा रहा है.